Thursday, December 4, 2014

साहू जी के नुस्‍खे 4 : सामान्‍य सावधानी

साहू जी के नुस्‍खे 4 : सामान्‍य सावधानी


पूर्वरंग: आज रायपुर के साहू जी (डॉ. आर.के. साहू) से मुलाकात हुई। दुनिया और समाज की दृष्टि से देखें तो उनकी गिनती बड़े आदमियों में होती है, लेकिन आज भी उतने ही सरल और सहज हैं। लोगों की सेवा और मदद के लिए सदैव तत्‍पर। बात बात में पता चला कि उनके पास औषधीय विद्या भी है। सो क्‍यों न उनका फायदा उठाया जाए: 

1. पानी ज्‍यादा पीएं। इससे शरीर के विषैले तत्‍व घुलकर निकलते हैं। ध्‍यान रखें नाश्‍ता या भोजन के तुरंत बाद पानी न पीएं, या बहुत कम पीएं। पानी पाचक रसों को डाइल्‍यूट हो जाता है। आधे घंटे बाद ज्‍यादा पानी पी सकते हैं।  

विस्‍तृत जानकारी के लिए चाहें तो संपर्क पता है : rksahu56@gmail.com.


साहू जी के नुस्‍खे 3 : मधुमेह का रामबाण इलाज

साहू जी के नुस्‍खे 3 : मधुमेह का रामबाण इलाज


पूर्वरंग: आज रायपुर के साहू जी (डॉ. आर.के. साहू) से मुलाकात हुई। दुनिया और समाज की दृष्टि से देखें तो उनकी गिनती बड़े आदमियों में होती है, लेकिन आज भी उतने ही सरल और सहज हैं। लोगों की सेवा और मदद के लिए सदैव तत्‍पर। बात बात में पता चला कि उनके पास औषधीय विद्या भी है। सो क्‍यों न उनका फायदा उठाया जाए: 

1.  जामुन के पेड़ पर आठ-दस वर्षों से चढ़ी गिलोय का अर्क मधुमेह को नियंत्रित करने में बहुत मददगार होता है। इस पर चढ़ी गिलोय प्रात: खाली पेट चबाकर रस चूसें या इसका काढ़ा बनाकर पीएं। एक घंटे तक अन्‍य कुछ खाना-पीना मना है। 

काढा या अर्क बनाने की विधि: गिलोय की 8-10 दातूनों (9-10 इंच लंबी डंडी) के छोटे-छोटे टुकड़े कर खलबट्टे में कूटकर 1 लीटर पानी में तब तक उबालें, जब तक वह आधा न हो जाए। इसे छानकर बोतल में भर लें, यही काढ़ा या अर्क कहते हैं (टेक्‍नीकली दोनों में थोड़ा अंतर होता है, लेकिन यहां इसे मोटे तौर पर एक ही समझें)। इसे फ्रिज में रखा जा सकता है। पीने के समय हल्‍का गुनगुना कर लें।

2. जंगली भिंडी की लौंग के साइज के बराबर की जड़ मुंह में रखकर चूसें। इससे ब्‍लड शूगर लेवल तुरंत उतर जाता है। चाहें तो ग्‍लूकोमीटर से चूसने के पहले और बाद में जांच कर ब्‍लड शूगर लेवल की परख कर लें। यह इंसुलिन का विकल्‍प हो सकता है। इसे रोजाना लिया जा सकता है। इसमें खाने-पीने में कोई परहेज नहीं है। सावधानी केवल इतनी रखें कि यदि भूलवश लौंग से बड़ी साइज का टुकड़ा ले लें तो ब्‍लड शूगर बहुत नीचे आ जाता है, इससे शरीर में पसीना आने लगता है, घबराएं नहीं, इसके समायोजन के लिए अतिरिक्त चॉकलेट या मीठी चीज खाना पड़ता है।


विस्‍तृत जानकारी के लिए चाहें तो संपर्क पता है : rksahu56@gmail.com.

साहू जी के नुस्‍खे 2 : वातरोग (उम्र के साथ-साथ घुटनों में होने वाले दर्द, आर्थराइटिस) का इलाज

साहू जी के नुस्‍खे 2 : वातरोग (उम्र के साथ-साथ घुटनों में होने वाले दर्द, आर्थराइटिस) का इलाज 

पूर्वरंग: आज रायपुर के साहू जी (डॉ. आर.के. साहू) से मुलाकात हुई। दुनिया और समाज की दृष्टि से देखें तो उनकी गिनती बड़े आदमियों में होती है, लेकिन आज भी उतने ही सरल और सहज हैं। लोगों की सेवा और मदद के लिए सदैव तत्‍पर। बात बात में पता चला कि उनके पास औषधीय विद्या भी है। सो क्‍यों न उनका फायदा उठाया जाए: 

1. एक पाव हरसिंगार (पारिजात) के पत्ते धोकर दो लीटर पानी में उबालें। इतना उबालें कि पानी सूखकर 1 लीटर रह जाए, तो उसे उतारकर ठंडा करें एवं छानकर बोतल में भर लें और फ्रिज में सुरक्षित रख लें। प्रतिदिन सुबह खाली पेट एक कप घोल हल्‍का गुनगुना करके पीएं। एक घंटे तक अन्‍य कोई भी चीज खाना पीना मना है। वैसे तो राहत पंद्रह दिन के बाद दिखनी शुरू हो जाती है, परंतु रोग की तीव्रता के अनुसार समह अधिक लग सकता है। दो महीने के निरंतर उपयोग के बाद घुटनों के दर्द में पर्याप्‍त राहत मिलेगी। फिर भी यदि पूरी राहत न मिले तो यह इलाज जारी रखा जा सकता है। इससे कोर्इ नुकसान नहीं होता।विस्‍तृत जानकारी के लिए चाहें तो संपर्क पता है : rksahu56@gmail.com. 

साहू जी के नुस्‍खे 1 : मोटापे का इलाज

साहू जी के नुस्‍खे 1 : मोटापे का इलाज


पूर्वरंग: आज रायपुर के साहू जी (डॉ. आर.के. साहू) से मुलाकात हुई। दुनिया और समाज की दृष्टि से देखें तो उनकी गिनती बड़े आदमियों में होती है, लेकिन आज भी उतने ही सरल और सहज हैं। लोगों की सेवा और मदद के लिए सदैव तत्‍पर। बात बात में पता चला कि उनके पास औषधीय विद्या भी है। सो क्‍यों न उनका फायदा उठाया जाए:

मोटापे का इलाज:

1.  Three White Poisons  का परित्‍याग करें: Salt, Maida and Sugar। एकदम परित्‍याग करना मुश्किल है, सो यथासंभव कम करें। Salt और Sugar को धीरे-धीरे और Maida का पूरी तरह बहिष्‍कार करें। यदि Sugar की जगह गुड़ का उपयोग करें तो बेहतर होगा।

2.  सुबह खालीपेट एक गिलास गुनगुने पानी में दो चम्‍मच शहद घोलकर पीएं। और एक घंटे तक अन्‍य कोई भी चीज न खाएं। यदि जरूरत हो तो यही पानी और पीया जा सकता है। चाय भी न पीएं। एक घंटे के बाद पी सकते हैं।

3.  शाम को त्रिफला चूर्ण एक चम्‍मच एक गिलास पानी में भिगो कर रखें। इसे रात्रि भोजन के बाद और सोने से पहले हलका गुनगुना करके पीएं। (यह इलाज मल्‍टीपरपज है, इससे गैस साफ होगी, पेट ठीक रहेगा)

विस्‍तृत जानकारी के लिए चाहें तो संपर्क पता है : rksahu56@gmail.com. 

Friday, October 24, 2014

पुतले हैं तो क्‍या हुआ





चिंता की कोई बात नहीं है। ज़ंजीर में इंसान नहीं पुतले हैं और यह फोटो अफगानिस्‍तान की नहीं, उत्तमनगर दिल्‍ली की है।


उस दिन में उत्तमनगर की गलियों में भटक रहा था। अचानक एक दुकान में दो-तीन पुतले दिखाई दिए। वैसे तो वे बड़े सुंदर थे, परंतु शायद कैद में रहने के कारण उनके चेहरे के एक्‍सप्रेशन कह रहे थे - हेल्‍प मी, प्‍लीज़..., हमें यहाँ से निकालो... ।

वे नहीं जानते थे कि ये बंधन उनकी सुरक्षा के लिए हैं। उनका मालिक उन्‍हें बहुत प्‍यार करता है, इसलिए। कमबख्‍त कोई कानूनी धारा भी नहीं है, जो उनका प्रोटेक्‍शन कर सके। यूँ भी यह उनका घरेलू मामला था और हमारा हस्‍तक्षेप बनता नहीं था।

फिर भी... अचानक लगता है कि कुछ करना चाहिए था...

Sunday, October 19, 2014

चूजा फॉर सेल



पड़ोस में बच्‍चे ने एक चूजा पाल लिया।

 मेरी बच्‍ची अपनी रिमोट कंट्रोल कार फेंककर उस चूजे के साथ खेलने लगी।

 साढ़े पाँच सौ रूपए की खिलौना कार बच्‍चे को लुभा नहीं पाई, और इस बीस रूपए के चूजे के आगे हार गई। 

दुख नहीं हुआ, खुशी हुई.... अपने बच्‍चे की च्‍वाइस देखकर।

 हमें बच्‍चों को और समझने की, उनसे सीखने की जरूरत है।


 

Sunday, October 5, 2014

राजीव गांधी आज बहुत याद आए....!



"ठहर भई, एक मिनट रुक कर दुआ सलाम तो कर ले।" मैंने उसकी बांह थामी।

मैं बड़ी देर से बुला रहा था, हाथ से इशारे कर रहा था, पर वह व्‍यस्‍तता का दिखावा कर रहा था, दिखा रहा था कि बड़ी जल्‍दबाजी में है। मैंने आखिर उसे पकड़कर अपने पास बिठा लिया, "क्‍या बात है बहुत बिजी चल रहा है।"

"हाँ, आप तो जानते हैं ये काम ही ऐसा है...।"

जो नए पाठक हैं, उन्‍हें मैं अपना परिचय दे देता हूँ। मैं डॉ.आर.के. त्रिपाठी, एक कृषि विज्ञान केंद्र, हरदोई का इंचार्ज हूँ। आप जानते होंगे, सरकार ने खेती को बढ़ावा देने के लिए हर जिले में के.वी.के. बनाए हैं, के.वी.के. यानि कृषि विज्ञान केंद्र। वैसे तो कृषि विभाग राज्‍य सरकारों के अधीन है। एक  अच्‍छा खासा महकमा है जो कृषि विकास करता है, पर एक से भले दो होते हैं। केंद्र सरकार ने हमें भी कमोबेश इसी काम के लिए तैनात कर दिया। हमारा काम ज़रा साइंटिफिक टाइप का है। हमारे स्‍टाफ में अलग-अलग विशेषज्ञ भी मौजूद होते हैं। इसलिए हम ज्‍यादातर ट्रेनिंग का काम देखते हैं।

मैंने अभी जिस शख्‍स को थामा था, वह कृषि विभाग में ए.डी.ओ. है - डी.पी. ठाकुर। उससे मेरा याराना है। पिछले साल तक सब ठीक था। वह बोला करता था, "डॉक्‍टर साहेब, ये ट्रेनिंग वगैरह का काम बड़े झंझट का होता है, इसे आप ही संभाला करो।" पर इस साल उसके सुर बदल गए थे।

खरीफ और रबी मौसम शुरू होने से पहले किसानों को ट्रेनिंग दी जाती है। यह अमूमन बुआई शुरू होने से पहले आयोजित होती है। कृषि विभाग के अफसर ट्रेनिंग का खर्चा चालीस हजार रुपए और पचास-साठ किसानों की सूची हमें के.वी.के. को थमाकर बेफिक्र हो जाते। हल्‍दी फिटकरी के बिना ही उनका पूरा रंग जम जाता।

इस साल अजीब घटना हुई, विभाग ने ट्रेनिंग हमें नहीं सौंपी। डी.पी. ने बताया "नए डी.डी.ओ. आए हैं, बड़े कड़क हैं। नहीं चाहते कि किसी काम में कोई कमी रह जाए।"

मैं समझ सकता था, आजकल के नए-नए अफसर, उनके अपने तरीके होते हैं। उन्‍हें लगता होगा कि शायद वे यह कार्यक्रम बेहतर तरीके से कर सकते हैं। अच्‍छा है, खुद करके देखेंगे तो पता चलेगा।

आज ट्रेनिंग के उद्घाटन में बतौर मेहमान मैं भी शरीक हुआ था। वहाँ का हाल देखकर सिर पीट लिया। ऐसे कहीं ट्रेनिंग होती है? मुश्किल से दस-पंद्रह किसान, आधे घंटे तक भाषणबाजी और कार्यक्रम समाप्त। ट्रेनिंग समाप्‍त। मैंने आंखों ही आंखों में ठाकुर से पूछा, "यह क्‍या तमाशा है?" वह कतराकर निकल रहा था।

आखिरकार मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसे कंधा पकड़कर थाम लिया, "भई, एक मिनट बैठ और बता, माजरा क्‍या है? यह कोई ट्रेनिंग हैं? न किसान, न कोई लेक्‍चर, न रीडिंग मटेरियल। चाय, नाश्‍ता लंच डिनर, बस्‍ता कुछ नहीं? ये हो क्‍या रहा है?"

वह बोला, "डॉक्‍टर साब, आप तो जानते हो, बजट चालीस हजार मिलता है।"

"तो?"

"इसमें से फिफ्टी परसेंट, यानी बीस हजार डी.डी.ए. साब ने रख लिए। बचे बीस, उसमें से फिफ्टी परसेंट यानी दस हजार ट्रेज़री बाबू ने रख लिए।"

"ट्रेज़री बाबू ने?उसने क्‍यों"

"आखिर उसे पूरा सैटलमैंट जो बनाना है। अब बचे दस हजार, तो पाँच पर मेरा भी हक बनता है। अब यह कुल मिलाकर पाँच हजार बचे हैं, इसी में ट्रेनिंग करानी है, बताइए, कैसे कराऊँ?"

मैं कुछ देर चुप रहा, फिर कहा "ठीक है भाई, पाँच हजार के हिसाब से यह कार्यक्रम ठीक है।"

"आप बैठो, मैं बाद में मिलता हूँ।" कहकर वह चला गया।

पाँच-दस परसेंट नहीं पूरे फिफ्टी परसेंट का घोटाला। कमाल है! मेरा दिमाग इस फिफ्टी-फिफ्टी पर उलझ कर रह गया। कितना पक्‍का हिसाब है। पैसा जितने हाथों से गुजरता है, उतने हाथों से बिलकुल आधा-आधा होता जाता है।

कुल मिलाकर कितना पैसा यूज़ हुआ... बीस हजार यानी पचास प्रतिशत... तो पाँच हजार हुए साढ़े बारह प्रतिशत। मतलब कि असल में कुल रकम का साढ़े बारह प्रतिशत ही इस्‍तेमाल किया जाता है, बाकी जेब में। यह आंकड़ा जाना-पहचाना लगा। याद आया, बहुत पहले राजीव गांधी ने कहा था, केवल पंद्रह प्रतिशत पैसा नीचे तक पहुँचता है। साढ़े बारह और पंद्रह में ज्‍यादा अंतर नहीं है। आज राजीव गांधी बहुत याद आया, जो भी हो वह आदमी होशियार था, पट्ठा पूरी खबर रखता था।
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Wednesday, August 6, 2008

कहीं आपको लीडरशिप के गुर सिखाने वाली कोई सीडी मिले तो बताना ज़रूर...!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


पिछले हफ़्ते आशू 'साला' बोलना सीख आया।

हम पैरेंट्स के लिए यह बड़ा कठिन समय है। कोई एक परेशानी हो तो कहूँ। और पिछले हफ़्ते तो आशू कहीं से 'साला' सीखकर आ गया है।

पहले मैं आपको अपना परिचय देता हूँ। मेरा नाम आर.एल. श्रीवास्‍तव है, हाईस्‍कूल में लेक्‍चरर के पोस्‍ट पर हूँ। मैं खुद पोस्‍ट ग्रेजुएट हूँ इसलिए नॉलेज का महत्‍व समझता हूँ। आज के दौर में औसत की गुंजाइश नहीं है। जो सबसे तेज़ होगा वही कामयाब बनेगा। इसलिए हमने अपने आशू को सबसे बढ़ि‍या स्‍कूल में डाला है। सभी हाई क्‍लास लोगों के बच्‍चे उसमें पढ़ने आते हैं। अब आप इसे बड़ाई न समझें, अभी से आशू कंप्‍यूटर में गेम खेल लेता है। कार रेस में तो वह कम्‍प्‍यूटर को भी हरा देता है। आजकल ज़माना ही कम्‍प्‍यूटर का है, मैं आशू को शुरू से कंप्‍यूटर सिखा रहा हूँ।

यहाँ हमारी सोसाइटी ठीक नहीं है। आस-पड़ोस के बच्‍चे दिन भर धमाचौकड़ी मचाते हैं। कोई गिर रहा है, तो कोई रो रहा है। किसी को कोई सलीका नहीं। बच्‍चों पर संगति का बहुत असर पड़ता है, इसलिए मैं आशू को भरसक घर पर ही रखता हूँ। कोई ज़रूरत नहीं है, बाहर जाने की। कहीं गिर गया, कोई चोट लग गई तो! विश्‍वास सर के बच्‍चों को देखो, कितने मैनर्स से रहते हैं! यहाँ के तो बिलकुल जंगली हैं।

आजकल टी.वी. पर बहुत से ज्ञानवर्धक कार्यक्रम आते हैं। डिस्‍कवरी देखो। एनिमल प्‍लेनेट देखो। पर कोई बच्‍चों को बाँध कर तो नहीं रख सकता। कुछ दिन पहले आशू खेलने गया तो गाली सीख कर आया। हमें तब पता चला जब उसने अपनी मम्‍मी से पूछा "माँ 'साला' क्‍या होता है?"

तब से आशू का बाहर जाना बिलकुल बंद। घर पर रहो। टीवी है। कार्टून पसंद है तो उसे देखो। कंप्‍यूटर पर गेम्‍स हैं, खेलो। मैंने आशू के लिए कई सीडी इकट्ठा की है। गुड हैबिट्स वाली सीडी है, सिंड्रेला की कहानी है, एक सीडी में तो मैथ्‍स सिखाया जाता है, एन्‍साइक्‍लोपीडिया भी है। यह सीडी भी बड़े कमाल की चीज़ है। मैं तो हैरान रह जाता हूँ। कार्टून और पिक्‍चर के जरिए कोई भी विषय बड़े अच्‍छे तरीक़े से से समझाया जाता है। इसके कोर्स के अलावा भी बहुत सी जानकारी मिल जाती है।

हमारा आशू थोड़ा शर्मीला है। कहीं भी बातें करते हुए शर्माता है। मैं उसे बोल्‍ड बनाना चाहता हूँ। कम्‍यूनिकेशन स्किल्‍स वाली सीडी मैं उसके लिए ले आया हूँ। दो एक विषयों पर और ढूँढ रहा हूँ, बनी तो होगी ही, पर मिल नहीं रही है। अरे, लीडरशिप और टीमवर्क वाली। मुझे पूरा विश्‍वास है कि आजकल ऐसे विषय बहुत पॉपुलर हैं। कहीं आपको लीडरशिप के गुर सिखाने वाली कोई सीडी मिले तो बताना ज़रूर...!

Thursday, February 28, 2008

देने के लिए मेरे पास सलाह के अलावा कुछ है भी नहीं.......!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


इस देश में बेरोज़गारी बहुत बढ़ गई है। आजकल एक से बढ़कर एक इंटैलिजेंट बच्‍चे नौकरी की तलाश में मारे-मारे फिर रहे हैं। योग्‍यता का कोई मोल नहीं रह गया। आप आठवीं-दसवीं पास चपरासी के लिए विज्ञापन दीजिए, तो बी.एस-सी., एम.एस-सी. पास लोगों की लाइन लग जाती है। सही आदमी चुनना बड़ा कठिन हो जाता है। ऊपर से सोर्स सिफ़ारिश भी इतनी तगड़ी, कि समझ में नहीं आता कि कैसे मना किया जाए। पोस्‍ट तो एक ही है, उसमें एक ही व्‍यक्ति को रखा जा सकता है। सबकी बात कैसे सुनें।

मैं आपको अपना परिचय दे दूँ। मैं घासीदास विश्‍वविद्यालय का रजिस्‍ट्रार डॉ. खत्री हूँ। यहाँ कर्मचारियों की भर्ती बोर्ड का मेम्‍बर भी हूँ। स्‍थायी और अस्‍थायी शिक्षकों की भर्ती के इंटरव्‍यू में भी बैठना पड़ता है। यक़ीन मानिए किसी इंटरव्‍यू मे बैठना सबसे मुश्किल काम है। विशेषकर पोस्‍ट तीन-चार ही हों और उम्‍मीदवार तीन-चार सौ। मज़बूरी में सब को इंटरव्‍यू के लिए बुलाना पड़ता है। न बुलाओ तो ये लोग कोर्ट से स्‍टे ले आते हैं, कि मैं तो योग्‍यता पूरी करता हूँ, मुझे क्‍यों नहीं बुलाया ?

बड़ा कष्‍ट होता है, दूर-दराज से लड़के अपना सूट‍केस लिए आते हैं। अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए पुस्‍तकें पढ़ते रहते हैं, कि जाने कौन सा प्रश्‍न पूछ लें, जाने कौन सी बात बच गई है उसे पढ़ लें। अरे मूर्खों ! अपनी भ्रमजाल से बाहर निकलो। तुम्‍हारे इंटरव्‍यू का कोई मोल नहीं है। कौन सी दुनिया में रहते हो? जिसे सलेक्‍ट करना है, वह पहले ही तय किया जा चुका है। अब किताबें पलटने से तुम्‍हारी किस्‍मत नहीं पलटने वाली। जाओ! अपने घर जाओ ! अपना और हमारा समय खराब मत करो।

अभी पिछले हफ़्ते की ही बात है। पोस्‍ट थी लैब टेक्‍नीशियन की। योग्‍यता बी.एस-सी. होनी चाहिए। यही समझ में नहीं आता कि सामने बैठे उम्‍मीदवार से क्‍या सवाल किया जाए?

"एम.एस-सी.! फिजिक्‍स ! फ़र्स्‍ट डिवीज़न ! राइट ? " मैंने पूछा।

"जी हाँ।"

"तो आप इसमें क्‍यों आना चाहते हैं, यह तो बहुत छोटी पोस्‍ट है, आई मीन, तुम तो कहीं लेक्‍चरर, प्रोफ़ेसर के लिए भी एप्‍लाई कर सकते हैं।"

"जी हाँ, पर आजकल लेक्‍चरर की कोई पोस्‍ट नहीं निकलती, इसीलिए...."

"तो पी-एच.डी. कर लो। उसके बाद रिसर्च में अपना कैरियर बना सकते हो। कहीं फैलोशिप के लिए ट्राई किया ?"

"जी... नहीं।"

"क्‍यों? तुम तो बड़े ब्राइट लड़के हो, अभी तुम्‍हारी उम्र ही क्‍या है? सामने पूरा कैरियर पड़ा है। अभी पढ़ो। रिसर्च करो। कोई फैलोशिप लेकर रिसर्च करने फ़ॉरेन भी जा सकते हो।"

"अभी.. मेरी फ़ाइनेंसियल पोज़ीशन ठीक नहीं है। इसलिए मैं फिलहाल नौकरी ही करना चाहता हूँ।"

"ओह ! तुम्‍हें कुछ कंप्‍यूटर वगैरह आता है?"

"जी हाँ सर! मैंने छ: माह का डिप्‍लोमा भी किया है।" वह कुछ उत्‍साहित हो गया।

"तो फिर ठीक है। मैं तो तुम्‍हें यही सलाह दूँगा कि अपने गाँव जाओ। आजकल हर जगह कंप्‍यूटर पर काम करने वालों की डिमांड है। पार्ट-टाइम कोई काम कर सकते हो। इस तरह तुम्‍हारा खर्चा भी निकल आएगा। और साथ-साथ पी-एच.डी. ज़रूर करना।"

"पर मैं पी-एच.डी. नहीं करना चाहता....!"

"मेरी सलाह मानो बेटे। इस नौकरी में अपना समय मत खराब करो। तुम्‍हें काफी आगे जाने है, रिसर्च करो और देश का नाम रोशन करो। तुम जैसे होनहार लड़कों की देश को ज़रूरत है। ठीक है? ओ.के.! बेस्‍ट ऑफ़ लक फ़ॉर योर ब्राइट फ़्यूचर।"

"थैंक्‍यू ... सर। मैं आपकी सलाह याद रखूँगा।" बोलकर वह निकल गया।

मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसी कौन सी आफत आ गई है। क्‍यों लोग एक छोटी सी नौकरी के पीछे पागलों की तरह टूट पड़े हैं। ऐसे होनहार लड़के इतनी जल्‍दी हिम्‍मत हार जाएंगे तो देश का क्‍या होगा। शायद उसे मेरी सलाह पसंद नहीं आई....। और फिर देने के लिए मेरे पास सलाह के अलावा कुछ है भी नहीं.....!

Wednesday, February 13, 2008

जो मरद अपनी औरत को “भूलभुलैया” नहीं दिखा सकता, वह किस काम का...?


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


मेरा नाम रामरत्ती बाई है। मैं दिशापुर गाँव में रहती हूँ। हमारे दिशापुर में कई आफिस हैं जिनमें बड़े-बड़े अफसर नौकरी करते हैं। मैं इन अफसरों के घरों में झाड़ू बरतन करती हूँ।

पहले मैं मज़दूरी करती थी। मज़दूरी में पैसा तो अधिक था, पर काम रोज़ रोज़ नहीं मिलता था। झाड़ू-बरतन, एक तो महीने भर का काम है और दूसरे इसमें पैसा बँधा-बँधाया मिलता है। शुरू के हफ़्ते में थोड़ी दिक्‍कत होती है, पर बाद में जब हाथ सेट हो जाए, तो काम फटाफट होने लगता है। मुझे तीन-चार घर निपटाने होते हैं, इसलिए मैं काम जल्‍दी ही करती हूँ।

शुरू-शुरू साहबों की बीबियाँ हमारी हरकतों पर नज़र रखती हैं, पर एक बार भरोसा जम जाए तो पूरा घर भी हमारे जिम्‍मे छोड़ देती हैं। बीबियों के मेरे हाथ का काम बहुत पसंद आता है।

जितने किस्‍म के साहब, उतनी ही किस्‍म की उनकी बीबियाँ। सब दूसरों के घरों के अंदर की बातें जानने की कोशिश करती हैं। तहसीलदार साहब की बीबी घुमा फिराकर पूछती है कि नायब तहसीलदार के घर इतनी रौनक क्‍यों रहती है। नायब तहसीलदार की बीबी पूछती है कि फूड इंस्‍पेक्‍टर के घर कौन-कौन आता-जाता है। मैं तो साफ कह देती हूँ “भई, दूसरों के घर क्‍या होता है, मुझे कुछ नहीं पता। हाँ मेरे बारे पूछो तो सब सच-सच बता दूँगी।” जब अपने दिल में खोट नहीं तो क्‍या डरना।

“रत्ती बाई, बेबी को दो घंटे खिलाने (देख रेख करने) का काम है। बता तेरी नज़र में कोई है।” नायब तहसीलदार बीबी ने पूछा।

उनका एक छोटा बेबी है। उन्‍होंने मुझसे कहा था खिलाने के लिए, पर मैंने मना कर दिया। मेरे पास बिलकुल टाइम नहीं है। और जितने समय में बच्‍चा खिलाने का काम होगा, उतने में तो मैं दो घर और निपटा सकती हूँ। पर मेरे लिए चार घर ही काफी हैं। और ज़्यादा घर पकड़ने का बिलकुल मूड नहीं है।

मुझे गाना सुनने का बहुत शौक है। मैंने सबको पहले ही बता दिया कि मैं काम करते समय रेडियो चलाकर सुनती हूँ। मंजूर हो तो बोलो हाँ, नहीं तो नमस्‍ते। और आजकल अफ़सरों के घर रेडियो तो ज़रूर होता है।

हमारे गाँव में कोई सिनेमाहॉल नहीं है। वहाँ से सबसे पास का सिनेमाहॉल बिचपुरी का “सपना” है, जिसमें फिल्‍म देखने के लिए बिचपुरी दो घंटे बस में जाना पड़ता है। जब भी वहाँ कोई सिनेमा लगता, उसकी खबर हमारे गाँव में भी लगती। मुझे फिल्‍म देखने का भी बड़ा शौक है।

फिल्‍मो में सलमान खान मेरा फेवरेट हीरो है। जिस दिन ऐश्‍वर्या राय उसको छोड़कर अभिषेक बच्‍चन से शादी की, मैंने नायब तहसीलदार बीबी से बोल दिया, “आजकल की हीरोइनों को हीरो से नहीं, हीरो के पैसे से प्‍यार है।” अमिताभ बच्‍चन के पास ज़्यादा पैसा है, इसलिए वह सलमान को छोड़कर अभिषेक के पास गई। आजकल का जमाना ऐसा ही है।

“रत्ती बाई, फूड इंस्‍पेक्‍टर का अपनी बीबी से झगड़ा हुआ क्‍या? अचानक मैके कैसे चली गई?” नायब तहसील दार की बीबी ने पूछा।

“पता नहीं बाई। उनके घर क्‍या हुआ, मेरे को कुछ नहीं पता।” मैंने साफ कह दिया “बाई। आप मेरे घर की बात पूछो तो मैं बता सकती हूँ। और दूसरों की बात नहीं बता सकती।”

“चल-चल। बड़ी आई शराफत बताने वाली।” बीबी नाराज़ हो गई। पर मैं जानती थी वह ज़्यादा देर चुप नहीं बैठेगी।

“तूने अपना मरद क्‍यों छोड़ दिया?”

“ऐसे ही, वह मुझे पसंद नहीं था।”

“क्‍या मार-पीट करता था?”

“नहीं। वैसे तो बड़ा भला आदमी था। पर मुझे पसंद नहीं था। बड़ा कंजूस था। उसने वादा किया था कि मुझे “सपना” में “भूलभुलैया” दिखाने ले जाएगा, पर नहीं ले गया।”

“बस? इसी लिए उसे छोड़ दिया?” बीबी ने बड़ी हैरत से पूछा।

“हाँ...! इसीलिए...। और मैं अपना खर्चा खुद करने के लिए तैयार थी। फिर भी मेरी बात नहीं सुनता। उसे मेरी कोई परवाह ही नहीं है...।”

बीबी मेरा मुँह देखती रही। मैं उन्‍हें बता रही थी कि कैसे मैं अकेली बिचपुरी जाकर ‘भूलभुलैया’ देखकर आई। जो मरद अपनी औरत को “भूलभुलैया” नहीं दिखा सकता, वह किस काम का...? मैंने अब दूसरा मरद रख लिया है।

Tuesday, January 29, 2008

कृपया चलती गाड़ी से न उतरें....!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


पिछले हफ़्ते हमारी बस का स्‍टीरियो फिर खराब हो गया था। कई दिनों तक उसे ठीक करवाने का टाइम नहीं मिला। परसों लंच टाइम में पहले स्‍टीरियो ठीक करवाया फिर लंच किया। जोगेंदर जल्‍दी मचाने लगा तो लंच आधे में छोड़ना पड़ा। कंपीटीशन के चक्‍कर में आजकल अपना खाना-पीना सब हराम हो गया है।

दस दिन पहले ऐसे ही आगे निकलने के कारण बदरपुर में दो बसें आपस में भिड़ गईं और दो साइकिल सवार कुचल गए। बस, तब से लेकर आज तक अख़बारों में रोज़ हेडिंग आती, "आज ब्‍लूलाइन ने 4 को शिकार बनाया", "आज 2 को शिकार बनाया"। ऐसा लगता है ब्‍लूलाइन बस न हुई, राक्षस हो गई और राह चलते लोगों को पकड़-पकड़ कर खाने लगी। अरे मैं पूछता हूँ लोग यह क्‍यों नहीं छापते कि आज ब्‍लूलाइन ने पाँच हज़ार या दस हज़ार लोगों को सही सलामत घर पहुँचाया।

ठहरिए, मैं यह बताना ही भूल ही गया कि मेरा नाम शंकर है, ब्‍लूलाइन का ड्राइवर और कंडक्‍टर दोनों हूँ। मैं और मेरा दोस्‍त जोगेंदर रूट नंबर 725 में चलते हैं। गाड़ी कभी मैं चलाता हूँ, तो कभी जोगेंदर चला लेता है। मालिक को रोज़ के तीन हज़ार रूपए दो, बाक़ी वह और हिसाब नहीं पूछता। हमने साफ कह दिया है, हमें रोज की झिक-झिक पसंद नहीं। उसने ट्रैफिक वालों की पक्‍की सेटिंग कर रखी है, इसलिए हमें कोई दिक्‍कत भी नहीं होती।

सबेरे का समय अच्‍छा होता है। ज़्यादा ट्रैफिक नहीं होता। सवारियाँ भी नहाई-धोई होती हैं, हम भी अच्‍छे मूड में होते हैं। तब मैं अपना स्‍टीरियो ज़रूर बजाता हूँ। किशोर कुमार के गाने, "पल भर के लिए कोई हमें प्‍यार कर ले, झूठा ही सही...!"

लोग कहते हैं, ब्‍लूलाइन बस के कंडक्‍टर बदतमीज होते हैं, सवारी से सीधे मुँह बात नहीं करते। कहना है तो कुछ भी कहो, हम मुँह थोड़े ही पकड़ सकते हैं। आप हमसे सबेरे के समय मिलिए। आपको सब पता चल जाएगा। आप, जनाब और साहब के सिवा आप हमसे कोई दूसरा शब्‍द नहीं सुन सकते। मेरे मुँह से "मेरे माई बाप, लेडिज़ को सीट दे दो... मेरी सीट पर आ जाओ..." सुनकर जोगेंदर भी कभी-कभी अचरज करता है कि शंकर इतना सलीकेदार कैसे हो गया? यह सब संगीत का कमाल है... किशोर कुमार का कमाल है।

शाम को पाँच बजे शादीपुर स्‍टैंड से तीन चार लड़कियाँ बस पर चढ़ती हैं। यह रोज़ की सवारी हैं। इनके आने से पूरी थकावट दूर हो जाती है। फिर किशोर कुमार की याद आती है। लता मंगेशकर की याद आती है। मेरा स्‍टीरियो और गाने हमेशा साथ देते हैं। जोगेंदर भी देखता है कि मैं लेडीज़ सीट पर बैठे आदमियों से हाथ जोड़कर सीटें खाली करवाता हूँ। आप ताज्‍जुब करेंगे मैं टिकट काटकर सवारी को पैसे लौटाते समय "थैंक्‍यू" भी कहने लगा हूँ। आखिर हम भी घर परिवार वाले लोग हैं, हमारी भी माँ-बहनें हैं।

मुझे बस एक बात अच्‍छी नहीं लगती, जब लड़कियाँ "भैया" कहती हैं, "भैया! ज़रा गाड़ी रोकना..." या "भैया! पाँच रूपए की टिकट देना..."। मैंने यह बात को जोगेंदर को बताई तो वह इसका मज़ाक उड़ाने लगा। मैं जानता हूँ, वह मेरी बात नहीं समझेगा। इसके लिए मुझे ही कुछ करना पड़ेगा।

इसलिए मैंने आज लंच के समय गाड़ी में पिछले दरवाज़े के ऊपर पेंट से लिखवा दिया, "ड्राइवर का नाम -शंकर", "कंडक्‍टर का नाम-जोगेंदर", और अगले दरवाज़े के ऊपर लिखवा दिया, "कृपया चलती गाड़ी से न उतरें... ड्राइवर को भैया न कहें...!"

Monday, January 21, 2008

हे भगवान! मेरे बेटे को सलामत रखना....!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


पिछले हफ़्ते ही मेरा बेटा राजा कनाडा से वापस लौटा। इस बार पूरे तीन साल बाद लौटा। हमारा इकलौता बेटा था, वह कब बड़ा हुआ, कब विदेश जाने के सपने देखने लगा, पता ही नहीं चला। अपने दोस्‍तों के साथ ही सारा इंतज़ाम कर लिया और जब सब-कुछ तय हो गया, पैसे की ज़रूरत पड़ी, तब हमें बताया। उस रात सब ख़ामोश थे। किसी ने आपस कोई बात नहीं की। राजा के पापा ने रात का खाना भी नहीं खाया। परंतु दूसरे दिन दोपहर तक एक लाख रूपए लाकर रख दिए। इस बात को दस साल हो गए, पर लगता है कल की ही बात है।

दो साल बाद राजा अपने पापा के गुज़रने के बाद आया था। बताया कि वहाँ एक बड़ी फ़ैक्‍ट्री में माल ढोने वाला ट्रक चलाता है। अच्‍छी कमाई है। वहीं उसने शादी भी कर ली। मुझसे कहने लगा कि "माँ तू भी चल। वहीं साथ रहेंगे।"

अपना घर-द्वार सब यहीं है। गुज़र-बसर आराम से हो जाती है, ऊपरले दोनों माले के किराएदारों का किराया बराबर आ जाता है। और फिर विदेश का खाना पीना, बोल-चाल कुछ मेरे पल्‍ले नहीं पड़ता। मैं वहाँ जाकर क्‍या करती?

इस बार भी साथ ले जाने की जिद कर रहा है। मैंने लाख मना किया पर उसने एक न सुनी। कहता है कि "माँ, वहाँ भी बहुत से मंदिर गुरूद्वारा हैं। तेरा पूजापाठ वहीं हो जाएगा। बस एक बार तू चल।" मैं मज़बूर हो गई। अब तो उम्र भी हो चली है। तबीयत ठीक नहीं रहती और ऊपर से यह घुटना परेशान करता है। अब तो दो रोटी मिल जाए, और क्‍या चाहिए? मुझे वहाँ के बोलचाल और खान-पान से क्‍या लेना देना? मैंने भी मन बना लिया।

पड़ोसियों से गले मिलने पर खूब रोना आया। जाने कब लौटना हो। अब इस ज़मीन से नाता खतम। तीन मंज़ि‍ल का यह मकान, उसका सारा सामान, थोड़ी बहुत खेती, सब-कुछ औने-पौने दामों में बेच दिया। हवाई जहाज से जाना है कहाँ ढोते फिरेंगे?

दिल्‍ली का हवाई अड्डा देखा। अरे बाप रे बाप ! इतना बड़ा है! लगता है पूरा शहर इसके अंदर आ जाएगा। कहीं बिछड़ न जाऊँ? मैंने डर कर राजा का हाथ पकड़ लिया।

अंदर एक कुर्सी में मुझे एक जगह बिठाकर राजा टिकट का पता करने चला गया है। हवाई जहाज में सामान पहले जमा करना पड़ता है इसलिए उसे भी ले गया। कह गया "माँ मैं टिकट का पता कर आता हूँ। सामान जमा करने में थोड़ी देर लग सकती है। तू कहीं जइयो मत। यहीं चुप बैठियो।"

इतने सारे भाँति-भाँति के लोग। पता नहीं चलता कि कौन हिंदुस्‍तानी हैं और कौन विदेशी। लोग अपना एक छोटी हाथगाड़ी से सामान खुद ढो रहे हैं। एक से बढ़कर एक सेठ होंगे, पर लगता है यहाँ कुली करने का रिवाज नहीं है। बहुत देर हो गई है। राजा लौटा नहीं अभी तक।

थोड़ी देर पहले रौबदार मूँछों वाला सिक्‍योरिटी का आदमी आया और पूछ-ताछ करने लगा। जा रही हूँ बाबा, मुझे क्‍या यहाँ अपना घर बनाना है? यह कमबख़्त मेरे पीछे ही पड़ गया। लो, अब मुच्‍छड़ अपने किसी और साथी को ले आया। इसकी बेशरमी देखो, "माँजी" कहकर बात कर रहा है। और राजा अभी तक क्‍यों नहीं आया? हे भगवान, मेरा राजा कहीं रास्‍ता तो नहीं भूल गया? इतना बड़ा एरिया है, ज़रूर कहीं रास्‍ता भूल गया होगा। कहाँ पता करूँ?

इन हवाई अड्डे वालों ने बड़े बदतमीज़ लोग भर्ती कर रखे हैं। सारे नंबर एक के झूठे हैं, कहते हैं, "कनाडा की फ़्लाइट तो कब की चली गई। अब आप अपने घर जाओ!"

हे भगवान! इस दुनिया में राजा के सिवा मेरा कोई नहीं है। मेरे बेटे को सलामत रखना, कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया....!

Thursday, January 17, 2008

भगवान के काम में तेरा एहसान नहीं चाहिए.....!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


जय साँईं राम। इस बार पंद्रह दिन के लिए शिरडी जाकर सेवा देने का कार्यक्रम पक्‍का है। सारी दुनियादारी से दूर पूरे पंद्रह दिन सत्‍संग और सेवा में बिताने का मौका मिलेगा। सभी ताज्‍जुब करते हैं कि भाई जवाहर, तुम ऐसा कैसे कर लेते हो? मैं मुस्‍कुरा देता हूँ। प्रभु की कृपा हो तो हर काम संभव हो जाता है।

मेरा नाम जवाहरलाल शर्मा है। मैं नवगाँव में फ़ील्‍ड मलेरिया वर्कर हूँ। मैं बचपन से ही धर्म-कर्म में रुचि रखता था। सोचता था बड़ा होकर साधू बनूँगा। परंतु यह गृहस्‍थ जीवन भी एक तपस्‍या से कम नहीं है। इसमें रहकर जो अपने कर्तव्‍यों को पूरा करते हुए, प्रभु का ध्‍यान करता है वही सबसे बड़ा साधू है।

"शिरडी आने जाने के लिए दीदी से कुछ उधार ले लूँ?" मैंने पत्‍नी से सलाह मशवरा किया।

"ठीक है, दो तीन महीने में चुका देंगे। पर धरम के काम में उधार लेना ठीक नहीं होता।" पत्‍नी बोली।

"हाँ, यह तो है।" मेरी पत्‍नी हमेशा समझदारी की बात करती है। धर्म-कर्म के काम में उधार लेने से उसका पुण्‍य नहीं मिलता। जिसका पैसा होता है, पुण्‍य उसके नाम चला जाता है।

मेरे ऑफिस के जी.पी.एफ़. में तो पैसा है ही, पाँच हज़ार निकाल लूँगा। पैसे और समय की समस्‍या तो हमेशा बनी रहेगी। इसको लेकर दुखी होने से क्‍या फ़ायदा?

पहले दो छुट्टी और बाद में संडे मिलाकर देखें तो कुल अठारह दिन हो जाते हैं। इसमें पंद्रह दिन की छुट्टी के लिए एकमुश्‍त ई.एल. (अर्जित अवकाश) लेना पड़ेगा। वैसे ही यह छुट्टियाँ बेकार जा रही हैं, कुछ उपयोग में आ जाएंगी।

मैं कल रात ऑफिस से वापस लौटा।

"क्‍या बात है, परेशान हो?" पत्‍नी ने पूछा।

"बाबू पैसा मांगता है। कहता है ई.एल. मंज़ूर कराने का रेट ढाई सौ रूपए है। साहब से मंज़ूर कराना पड़ेगा। मैंने उससे बताया कि मैं धर्म काम के लिए जा रहा हूँ। बार-बार रिक्‍वेस्‍ट करने पर अपना पचास रूपया तो छोड़ने के लिए तैयार हो गया है, पर साहब के लिए दो सौ रूपए देना ही पड़ेगा। और जी.पी.एफ़ एडवांस देने का रेट 10 परसेंट है इसलिए पाँच हज़ार रूपए पर 500 तो पहले ही काट लेंगे। हाथ में साढ़े चार हज़ार ही आएगा।"

"फिर क्‍या हुआ?" पत्‍नी पूछी।

"फिर क्‍या, मैं उसकी बात मान गया। उसने नई दरख्‍वास्‍त बनवाई। उसमें पत्‍नी बीमार है लिखवाया। अभी सोचता हूँ तो लगता है कि भगवान के दरबार में जाने के लिए घूस देना गलत है, इससे अच्‍छा मैं जाने का विचार छोड़ दूँ।" मैं निराशा हो गया।

पत्‍नी ने खाना परोसते हुए बोली "आप अपना दिल क्‍यों छोटा करते हैं। इस काम में जो घूस लेता है गलती उसकी है। आपको अपना कार्यक्रम बदलने की ज़रूरत नहीं है। अकेले आपसे थोड़े ही लेते हैं, सबसे लेते हैं। आप यह मानकर चलो कि यह घूस नहीं फ़ीस है।"

बिलकुल सही बात है। मेरे मन का बोझ हलका हो गया। सबके पाप को लेकर मैं अकेला क्‍यों परेशान होऊँ? कल ही जाकर बाबू को बोलता हूँ कि अपने पचास रूपए भी ले लेना। भगवान के काम में तेरा एहसान नहीं चाहिए.....!

Sunday, January 13, 2008

इतनी समझदारी तो वी.आई.पी. लोगों में होनी ही चाहिए....!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


मेरा नाम सत्‍यनारायण वर्मा है, मंडला के फ़ायर ब्रिगेड स्‍टेशन में ड्राइवर हूँ। काम बड़े जोखिम का है इसलिए हमारी स्‍पेशल ट्रेनिंग भी होती है। हमें पूरी तरह से मुस्‍तैद रहने की ट्रेनिंग दी जाती है। कई बार तो अभ्‍यास के लिए ड्रिल भी होती है। हमारी ड्यूटी चौबीसो घंटे की होती है, पर भगवान की दया से यहाँ आग लगने की घटनाएँ नहीं होती।

यहाँ फ़ायर ब्रिगेड की दो गाड़ि‍याँ हैं, जिनमें से एक तो हमेशा चालू हालत में रहती है। यह इमरजेंसी सेवा है न जाने कब ज़रूरत पड़ जाए, इसलिए हमारे स्‍टाफ को भी साथ रहना होता है। आग लगने का इंतज़ार करते हुए बैठा नहीं जा सकता, इसलिए ज़रूरी काम पड़ने पर हममें से एकाध उसे निपटाने चला जाता है। परंतु हम इस बात का पूरा ध्‍यान रखते हैं कि कम से कम एक आदमी टेलीफ़ोन उठाने के लिए तो मौजूद होना ही चाहिए।

गरमी के दिनों में हमारी ड्यूटी सख्‍त हो जाती है, दिन में कई-कई चक्‍कर लगाने पड़ते हैं। रात को थका मांदा लौटता हूँ तो मेरी घरवाली पूछती है, "कौन सी आग है जो रोज-रोज लग जाती है?"

मेरी पत्‍नी ही नहीं बल्कि कई लोगों को हमारी ऐसी ड्यूटी से शिकायत है।

पिछले दिनों फ्रिज के शो रूम वाले अग्रवाल साहब नाराज़ हो रहे थे। गाड़ी उनके दुकान के सामने खड़ी थी और रास्‍ता जाम हो गया था।

"फायर ब्रिगेड की गाड़ी है साहब। इमरजेंसी सेवा।" मैं सफाई देने लगा

"आपको यहाँ रोज-रोज सेवा देनी है तो पिछले रोड से आइए।" अग्रवाल जी झल्‍लाए।

"हम भी क्‍या करें साहब, विधायक जी का घर है, इसलिए आना पड़ता है।" मैंने सफाई दी।

"विधायक जी से कहो, उनकी मोटर हम ठीक करवा देंगे।"

"तो आप ही ठीक करवा दो, हमें भी रोज-रोज की झंझट से छुट्टी मिले...." मैं भी चिढ़ गया। आज यह हालत है हमारी, कि अग्रवाल हमारी गाड़ी के रास्‍ते पर रोक लगाएगा। हम फायर ब्रिगेड वाले हैं, ज़रूरत होगी तो तुम्‍हारे घर के अंदर घुस सकते हैं।

मुझे विधायक जी पर भी गुस्‍सा आता है। माना कि गरमी में पानी की तंगी होती है। कभी बिजली गोल तो कभी मोटर खराब हो जाती है। आपके घर की मोटर खराब है तो पानी का टैंकर मंगाइए। नगरनिगम वाले इसी काम के लिए हैं और वो बराबर वी.आई.पी. ड्यूटी में लगे रहते हैं। इतनी समझदारी तो वी.आई.पी. लोगों में होनी ही चाहिए....

Sunday, December 16, 2007

आधिकारिक आदेशों पर तुरंत कार्रवाई करो_______!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


आज हमारे प्रकाशन विभाग में एक पत्र आया कि दीपावली मेले में दो दिन की प्रदर्शनी लगने वाली है, उसमें अपने प्रकाशन का स्‍टॉल लगाना है और किताबें प्रदर्शित करनी है। पत्र इंचार्ज के नाम आया और उन्‍होंने आवश्‍यक कार्रवाई के लिए मेरे पास भेज दिया। किसी प्रदर्शनी में अपना स्‍टॉल लगाने का मतलब है पूरा सिरदर्द।

इसमें क्‍या कम काम होता है? किताबों के संदूक लिए वहाँ जाना, सारा कुछ खुद ही ढोना। दिन भर की ड्यूटी और किताबों का हिसाब किताब। चाय पीने, पेशाब करने का भी समय नहीं मिल पाता। पता नहीं रूकने और खाने की व्‍यवस्‍था है या सब अपने जेब से ही करनी पड़ेगी। पैसा देकर किताबें कोई खरीदना नहीं चाहेगा और फ्री का सैकड़ों कैटलॉग खराब हो जाएंगे।

पहले मैं अपना परिचय दे देता हूँ। मेरा नाम सूबेदार सिंह है, परंतु मेरे पूरे नाम से बहुत कम लोग जानते हैं। जबकि आप एस.डी. सिंह जी को पूछें तो यहाँ हर कोई बता देगा। मैं यहाँ इंदौर कृषि विश्‍वविद्यालय के सूचना और प्रकाशन विभाग में काम करता हूँ। हमारे विभाग का मुख्‍य काम रिपोर्टों, पत्र-प‍त्रिकाओं, कृषि संबंधी बुलेटिनों का प्रकाशन करना है। प्रकाशन के काम में जो लोग प्रत्‍यक्ष रूप से जुड़े हैं वही लोग इस काम की गंभीरता, इसकी मुश्किलों को समझ सकते हैं, वरना आम लोगों को यह बड़े आराम का काम लगता है।

अभी पिछले माह ही कुलपति महोदय ने आदेश जारी किया कि हमारा विश्‍वविद्यालय अपने प्रकाशन विभाग को सार्वजनिक मेलों तथा समारोहों में भी भेजेगा। इससे लोगों को हमारी गतिविधियों की जानकारी होगी, साहित्‍य की बिक्री होगी, संस्‍थान का प्रचार-प्रसार होगा, कृ‍षकों का कल्‍याण होगा, राजस्‍व आएगा, विजिबिलिटी बढ़ेगी.....। मतलब यह कि हम अपना संदूक उठा-उठाकर जगह जगह घूमें और तंबू लगाएँ। बस ठेला लेकर गली-गली फेरी लगाने की कसर रह गई है।

अब पत्र आया था तो आवश्‍यक कार्रवाई करनी ही थी। मैं दीवाली मेले के संयोजक यादव जी के पास मिलने गया।

"मैं इंदौर कृषि विश्‍वविद्यालय से आया हूँ। आपने पत्र दिया था स्‍टॉल लगाने के लिए। हाँ वही, बहुत शुक्रिया कि आपने मेले में बुलाया। इसी बारे में कुछ जानकारी चाहिए। बस पाँच मिनट आपका लूँगा।" मैं उनसे बड़ी गर्मजोशी से मिला।

"ज़रूर जी। धन्‍यवाद तो आपका है, जो आप हमारे पास आए। बताइए क्‍या सेवा करें?" यादव जी भी विनम्र हो गए।

"स्‍टॉल लगाने का चार्ज भी कुछ लेते हैं?" मैंने पूछा।

"चार्ज तो है। पर आप कृषि यूनिवर्सिटी वालों से कुछ नहीं लेंगे। आप लोग वैसे ही आ जाइए। हम चार्ज प्राइवेट कंपनियों से लेंगे।"

"हमारे तीन आदमी होंगे। उनके रूकने की व्‍यवस्‍था क्‍या होगी?"

"अजी रूकना क्‍या है, सुबह मेला शुरू है, शाम को बंद। दिन भर मेले में रहिए और शाम को अपने घर में लौट जाइए।"

"आप कह तो ठीक रहे हैं, पर मेला बंद होते होते रात के आठ-नौ बज जाएंगे और सामान लेकर हमारे आदमी कहाँ परेशान होंगे। तो उनके रूकने की व्‍यवस्‍था तो होनी ही चाहिए।"

"हाँ आपकी बात भी सही है।" यादव जी थोड़ा नीचे उतरे।

"भोजन की व्‍यवस्‍था आपकी ओर से कुछ है?" मैं कुछ आगे बढ़ा।

"वहाँ फूड स्‍टॉल होंगे, वहाँ आपके आदमी भोजन कर सकते हैं।

"उसके पैसे तो देने पड़ेंगे ना।"

"जी हाँ, वो तो है। हमारी ओर से कोई ऐसी व्‍यवस्‍था नहीं है।" यादव जी कुछ और नीचे उतर गए।

"हमारे पास किताबों के संदूक होंगे तो उसके लिए कोई गाड़ी चाहिए। कुछ इंतज़ाम हो सकता है कि सुबह ले आएँ और शाम को छोड़ आएँ?"

"नहीं गाड़ी तो नहीं हो पाएगी?" अब यादव और उतरे।

"तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी यादव जी। और मेले में दर्शक कैसे होंगे?"

"यही शहर के लोग होंगे। सभी फैमिली वाले घूमने फिरने आएंगे। झूला झूलेंगे, कुछ ख़रीददारी करेंगे।"

"तो उनमें हमारे विश्‍वविद्यालय की किताबें पढ़ने में किसको दिलचस्‍पी होगी। इसमें तो रिपोर्टें, मोटी-मोटी किताबें और कृषि पत्रिकाएँ होती हैं। आपको क्‍या लगता है? कितनी किताबें बिक पाएंगी?" मैंने बॉल यादव जी के कोर्ट में डाल दी।

"अब मैं क्‍या बता सकता हूँ। आप ठीक कहते हैं। इन किताबों की बिक्री में मुश्किल ही होगी। लोग घूमने फिरने आएंगे, किताबें कौन ख़रीदेगा।" यादव जी पूरी तरह उतर गए।

"तो ठीक है। बहुत-बहुत धन्‍यवाद। आपसे सारी बातें क्‍लीयर हो गईं। आपके हिसाब से इस मेले कें किताबें तो बिकेंगी नहीं, फिर स्‍टॉल लगाने का क्‍या फ़ायदा?" मैं उठने लगा।

"जी बिलकुल। ऐसे तो स्‍टॉल लगाने का कोई मतलब नहीं है।" यादव जी उठने लगे।

मैंने वह पत्र निकाला, उस पर मेरी आवश्‍यक कार्रवाई पूरी हो चुकी थी। मैंने मेले के संयोजक से मुलाक़ात की। उन्‍हें लगता है कि स्‍टॉल लगाना बेमानी होगा। इसलिए स्‍टॉल लगाने का विचार छोड़ देना चाहिए।

Monday, December 3, 2007

बायोडाटा ऐसा बनाओ कि नौकरी देने वाला विवश हो जाए _____!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


आपने गौर किया होगा कि जब से प्राइवेट तथा मल्‍टीनेशनल कंपनियों का ज़ोर बढ़ा है, हमारे यहाँ नौकरियों में भर्ती की प्रणाली में काफ़ी बदलाव आ गया है। पहले इम्‍तहान के नंबरों के आधार पर सीधे फैसला ले लिया जाता था। इंटरव्‍यू होते भी थे, तो नाम-मात्र के। अब सरकारी कंपनियों में भी लोग इंटरव्‍यू और स्‍मार्टनेस को बहुत महत्‍व देने लगे हैं।

मेरा नाम जे.पी. देशपांडे है। यहाँ ग्‍वालियर में बैंक में काम करता हूँ। मैंने भी नौकरी पाने के लिए बहुत पापड़ बेले हैं। हमारे समय में गाइड करने वाला कोई नहीं था। इसलिए काफ़ी भटकना पड़ा। अब कोई बेरोज़गार युवक मुझसे सलाह माँगता है तो मैं उसका पूरा सहयोग करता हूँ।

पड़ोस का एक लड़का नौकरी की तलाश में था। एक दिन वह मेरे पास सलाह लेने आया। मैंने सबसे पहले उसका बायोडाटा देखा। सबसे पहले उसमें सुधार की ज़रूरत थी। मैंने उसे सलाह दी -

"बायोडाटा पुराने स्‍टाइल का है, आजकल के हिसाब से ठीक नहीं है। बायोडाटा ऐसा होना चाहिए कि देखने वाला इंप्रेस हो जाए।"

"तो इसे कैसा बनाएँ?"

"सबसे पहले तो इसे उलटा कर दो। मतलब कि जो कुछ इसमें नीचे है, वह ऊपर लिखो और जो ऊपर लिखा है उसे नीचे करो, जैसे इसमें तुमने अपने नाम, पिता का नाम से शुरू किया है। यह सब पढ़ने का टाइम किसके पास है? इसे सबसे लास्‍ट में लिखो।"

"अच्‍छा!"

"इम्‍तहान में कितने नंबर हैं, इसे भी बाद में ले जाओ।"

"तो शुरूआत में क्‍या लिखूँ?"

"शुरूआत में अपनी विशेषताएँ बताओ। तुम्‍हारी विशेषताएँ क्‍या हैं?" मैंने उससे पूछा।

"मैं पढ़ाई में तेज हूँ।"

"नहीं। यह सब नहीं चलता। इसके बदले कोई दूसरी विशेषता सोचो।"

"दूसरा.... मैं खेलकूद में अव्‍वल हूँ।"

"अरे यार। इनसे काम नहीं चलता। विशेषताएँ ऐसी लिखो कि तुम्‍हारी पर्सनैलिटी का पता चले जैसे कि तुम फ्रेंडशिप जल्‍दी करते हो, तुम्‍हारे अंदर लीडरशिप की क्‍वालिटी है, तुम हँसमुख हो, मुसीबत में भी हँसते रहते हो, वगैरह.." मैने उसे समझाया।

"पर भैया यह सब तो नहीं हैं। मैं फ्रेंडशिप जल्‍दी नहीं कर पाता।"

"जो भी हो, पर लिखना यही। समझे! "

"जी समझ गया।" वह मेरे सुझाव से उत्‍साहित था।

"और तुम्‍हारी हॉबी क्‍या है? मतलब तुम्‍हें क्‍या करना पसंद है?"

"हॉबी.... फिल्‍में देखना, सोना, टीवी देखना...."

"यह सब तो रहने दो। इसके बदले लिखो कि तुम्‍हें माउंटैनिंग, ट्रैकिंग, घूमना-फिरना, लोगों का कल्‍चर स्‍टडी करना वगैरह पसंद है।"

"नहीं, सब तो बिलकुल पसंद नहीं, यह ट्रैकिंग क्‍या होती है?"

"यह जो भी हो, लिखना यही चाहिए।"

"जी समझ गया।"

"और यह भी लिखना पड़ता है कि तुम्‍हारा लक्ष्‍य क्‍या है। तुम अपनी जिंदगी में क्‍या करना चाहते हो?" मैंने उससे पूछा।

"मैं अच्‍छी नौकरी करना चाहता हूँ। गाड़ी और घर खरीदना चाहता हूँ।"

"धत् तेरे की। यह कभी मत कहना। हमेशा कहना कि मैं अपने फ़ील्‍ड में टॉप पर पहुँचना चाहता हूँ। समझे?" मैंने पूछा।

"समझ गया।" वह सिर हिलाया।

"और सबसे अंत में अपना नाम, पता, और अपने पिता का नाम लिखना चाहिए। समझे?"

"जी समझ गया। पिता का नाम क्‍या लिखना ठीक रहेगा। इसे असली लिख दूँ?" वह पूछा।

मैं सोच में पड़ गया। इस पर तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था।

Wednesday, November 28, 2007

यहाँ अंदर आना एलाऊड नहीं है_____!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


मुझे बहुत ख़ुशी हुई जब मेरी नौकरी लगी थी। पैसा तो कम है, महीने भर का 3000 रूपया यानि कि रोज़ाना के 100 रूपए। मालिक कहता है कि ईमानदारी से काम करो तो आगे पैसा बढ़ा देगा।

मैं भरतकुमार थपलियाल, गढ़चिरौली का रहने वाला हूँ। दोस्‍तों के पास दिल्‍ली घूमने आया था और फिर ऐसा मन लगा कि यहीं रह गया। यहाँ दिल्‍ली में हमारे आसपास के गाँवों के बहुत सारे लोग हैं जो फैक्‍टरियों में नौकरी करते है। मैं हिंदुस्‍तान सिक्‍योरिटी में लग गया। आजकल मेरी ड्यूटी सेंट थॉमस स्‍कूल में है। सिक्‍योरिटी वाले ने स्‍कूल पर सिक्‍योरिटी गार्ड सप्‍लाई का ठेका साल भर के लिए ले रखा है। पहले बड़ा ताज्‍जुब होता था हमें तनख़्वाह कोई और देता है, हुक्‍म किसी और का बजाना पड़ता है।

मुझे वर्दी पहनकर काम करने में बड़ा मज़ा आता है। इसमें पैसा तो कम है पर पॉवर बहुत है। हम किसी को भी आने वाले को रोककर पूछताछ कर सकते हैं। बड़े-बड़े लोग अंदर जाने के लिए रिक्‍वेस्‍ट करते हैं।

अभी पिछले हफ़्ते की बात है, मेरा मूड कुछ ख़राब था। तभी स्‍कूल में एक आदमी आया, वह शायद किसी बच्‍चे का बाप था।

"क्‍या काम है?" मैंने उससे पूछा।

"अंदर ऑफिस में जाना है।"

"ऑफिस में क्‍या काम है?"

"अरे भाई, प्रिंसिपल से मिलकर कुछ बात करनी है।" उस आदमी ने कुछ रूखे स्‍वर में कहा।

"सर, अंदर जाना एलाऊड नहीं है।"

"अरे, कुछ ज़रूरी बात करनी है। कैसे एलाऊड नहीं है?" उसका स्‍वर और तेज़ हो गया।

"जब तक अंदर से हमें आदेश नहीं होगा, हम अंदर नहीं जाने नहीं दे सकते। आपको कोई बात करनी है तो फोन से करिए।"

"ज़रूरी बात है, फोन से नहीं हो सकती, मुझे खुद मिलना है, आप मेरा कार्ड प्रिंसिपल को भिजवाइए।" वह मुझसे झगड़ा करने लगे।

"मेरा ड्यूटी कार्ड देने का नहीं है। यहाँ कार्ड देना एलाऊड नहीं है।" मैं भी अड़ गया। साला, मुझसे अकड़ कर बात करता है।

"तू कैसे रोक सकता है? प्रिसिपल कहाँ है? अच्‍छा तमाशा बना रखा है।" वह अपना मोबाइल फ़ोन निकालकर नंबर मिलाने लगा।

"सर, रास्‍ते से हट जाइए, रास्‍ते में खड़ा होना एलाऊड नहीं है।" मेरी इच्‍छा भी है कि प्रिंसिपल मुझे खुद यहाँ से हटा दे। ऐसी वाहियात नौकरी छूट जाए तो ही ठीक है।

अगले दिन ठेकेदार ने बुलवाया। ठेकेदार ने बताया कि प्रिंसिपल मेरी तारीफ़ कर रहा था। "ऐसे ही मन लगाकर काम करो, खूब तरक्‍की करोगे।" मेरी तनख़्वाह में पाँच सौ रूपए की बढ़ोत्तरी हो गई थी। मेरी तीन दिन की छुट्टी भी मंजूर हो गई थी।

इस शहर का हिसाब-किताब अब मेरी समझ में आने लगा था। मैंने अपने चचेरे भाई को भी गाँव से बुला कर सिक्‍योरिटी गार्ड में लगा दिया है। उसे अच्‍छे से समझा दिया है कि चाहे कहीं भी ड्यूटी हो, किसी को भी अंदर घुसने मत दो। याद रखो "हमेशा यही कहो कि यहाँ एलाऊड नहीं है। आने वाला जितना ज़्यादा परेशान होगा मालिक उतने ही अधिक खुश होंगे।"

वह पूछता है, "क्‍यों? अपने मिलने वाले को परेशान करने से मालिक क्‍यों खुश होता है?"

"इससे उसकी औक़ात कुछ और बढ़ी महसूस होती है, उसे लगता है "एलाऊड नहीं है" सुनकर आने वाले के मन में रौब पड़ता होगा ...।"

Thursday, November 22, 2007

तारीफ़ करो लेकिन संभलकर______ !


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


मैं कैलाश वर्मा, डिग्री कॉलेज यमुनानगर में अर्थशास्‍त्र का लेक्‍चरर हूँ। आज अर्थशास्‍त्र विषय की बहुत पूछ है। पहले ऐसा नहीं था। पहले जो लड़का पढ़ाई में कमज़ोर होता था किसी तरह डिग्री पूरी करने के लिए अर्थशास्‍त्र विषय ले लिया करता था। परंतु मैं ऐसे लोगों में शामिल नहीं था। मैं चाहता तो आसानी से साइंस या कोई अन्‍य विषय मिल सकता था, परंतु मैंने अपनी रुचि से अर्थशास्‍त्र चुना, और देखिए, एक से एक होशियार बच्‍चे अर्थशास्‍त्र पढ़ रहे हैं।

यहाँ हमारे विभाग के लोग मेरी दूरंदेशी और समझ का लोहा मानते हैं। किसी भी बात में मैं अपनी राय सबसे अंत में देता हूँ क्‍योंकि मेरी राय ज़रा हटकर होती हैं। मैं ऐसे पहलुओं पर विचार करता हूँ जिन पर किसी और की नज़र नहीं जा पाती। लोग मेरी बात सुनकर चकित रह जाते हैं, "यार! यह तो हमने सोचा ही नहीं था।"

पिछले हफ़्ते रीडर आरती सिन्‍हा ने विभागाध्‍यक्ष का चार्ज सम्‍हाला। अपना पुराना कमरा छोड़कर विभागाध्‍यक्ष के कमरे में शिफ़्ट कर लिया। जैसी कि परंपरा है, सारे लोग बधाई देने पहुँचे। मैं सबसे अंत में बधाई देने पहुँचा।

"मैडम, कांग्रेच्‍यूलेशंस! आपमें तो बिलकुल चेंज आ गया।" आज मैडम खूब सज-धज कर आई थीं। और विभागाध्‍यक्ष के पद का रौब तो देखते ही बनता था।

"अच्‍छा ! क्‍या चेंज आया है?" मैडम की आँखें चमक रही थीं। वह शायद अपनी तारीफ़ सुनना चाहती थीं।

"आप पहले से ज़्यादा कर्मठ दिखाई दे रही हैं। काम में जुटी हुईं।" मैं जानता था कि पहले बधाई देने वाले लोग नए कमरे की, उनके चमक-दमक की खूब तारीफ़ कर चुके होंगे।

"मतलब, क्‍या मैं पहले काम नहीं करती थी?" मैंडम ने दूसरा अर्थ लगा लिया।

"नहीं, मेरा मतलब था कि पहले आप पुराने कमरे में अपने दूसरे कामों में व्‍यस्‍त रहती थीं...." लगता है मैंने कुछ ग़लत बोल दिया।

"दूसरे कामों में ? यहां ऑफिस के इतने काम होते हैं, क्‍लास, सेमीनार, स्‍टुडेंट्स को गाइड करना क्‍या काम नहीं होते?" उन्‍होंने उखड़े लहज़े में कहा।

"मैं तो इसलिए कह रहा था कि पहले आपके काम एकेडेमिक होते थे, आपके एकेडमिक काम तो लोगों को दिखाई नहीं पड़ते न! अब जब एडमिनिस्‍ट्रेटिव होंगे, तब सबको पता चलेगा।" मैंने बात को संभालने की कोशिश की।

"हाँ, सच है। जब तक दूसरों को तंग न करो, काम की गिनती ही नहीं होती।" मैडम ने कहा। दरअसल पहले भी उनके काम पर कई सवाल उठे होंगे। शायद इसीलिए उन्‍होंने यह बात पकड़ ली।

मैं खिसिया कर रह गया। मन में आया कि कह दूँ, "हाँ, तुमने अपनी पूरी जिंदगी लिपस्टिक पोत कर दूसरों की चुगली की है। आज तक कोई काम नहीं किया है। और अब भी नहीं करोगी। तुम्‍हारे बस का कोई काम है भी नहीं।" पर चुपचाप लौट आया। मैं टीका-टिप्‍पणी नहीं बल्कि तारीफ़ कर रहा था, पर मेरी राय को मैडम ने ग़लत तरीक़े से ले लिया था। कहते हैं न, कि "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।"

मैंने एक बात और अनुभव की है, औरतों की तारीफ़ करो तो बहुत संभल-संभलकर। आपकी अच्‍छी भली बात से वह क्‍या मतलब निकाल ले, आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते।

अभी कल की ही बात है। मैंने बातचीत के दौरान हल्‍के-फुल्‍के मूड में अपनी पत्‍नी से कहा कि उसे वक़ालत पढ़ना चाहिए। उसमें ऐसा गुण है कि वह वक़ालत में बहुत क़ामयाब हो सकती है। इस पर वह नाराज़ हो गई, और लड़ने लगी। अब आप ही बताइए, इसमें नाराज़ होने वाली क्‍या बात है ? वक़ील होना कोई गाली तो नहीं है! और क्‍या किसी को कैरियर एडवाइस देना भी ग़लत है?

Wednesday, November 14, 2007

हनुमान जी क्षमा करें, पापी पेट का सवाल है____!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


मेरा नाम रामशरण है। फिलहाल मैं मंत्रालय के डिप्‍टी सेक्रेटरी साहब का ड्राइवर हूँ। फिलहाल इसलिए कह रहा हूँ हम ड्राइवरों का तबादला होता रहता है। कभी एक सेक्रेटरी के पास कभी दूसरे डिप्‍टी सेक्रेटरी के पास। मंत्रालय में सेक्रेटरियों की कमी नहीं है, अलबत्ता ड्राइवरों की कमी ज़रूर है।

हम हैं तो ड्राइवर, पर साहब लोग उम्‍मीद करते हैं कि हम चपरासियों का काम भी करें। कभी कभार तो ठीक है, पर रोज़-रोज़ हमें यह पसंद नहीं है। कई बार साहब अच्‍छे मिल जाते हैं, हमारी भावनाओं का ख्‍याल रखते हैं। कोई बेवजह डाँट-डपट करता है तो हम भी कह देते हैं, "कर दो ट्रांसफ़र।" बस इतना सुनकर अधिकांश साहब शांत हो जाते हैं। ट्रांस़फ़र कर तो दें, पर नया ड्राइवर मिलता इतना आसान नहीं होता।

मैं अपने काम से मतलब रखता हूँ। अपना काम करो और राम का नाम लो। अंडर सेक्रेटरी साहब ऑफिस की गाड़ी का इस्‍तेमाल घरेलू कामों में करते हैं। कहते हैं, "घर चले जाओ, तुम्‍हारी आंटी को थोड़ी मार्केटिंग करनी है।" इसमें कौन सी नई बात है, सभी ऐसा करते हैं। जो साहब का आदेश है वही हमारे लिए हुक्‍म है और वही क़ानून। पर साहब की फैमिली (पत्‍नी), बाप रे बाप, फैमिली को राजी रखना बड़ा मुश्किल काम होता है। साहब की फैमिली घड़ी-घड़ी डांटती हैं, "मेरा थैला पकड़ो", "यहाँ खड़ा करो" "तुम्‍हें मैनर्स नहीं है", "मैं साहब से तुम्‍हारी शिकायत कर दूँगी"। अब लेडिस से बहस कौन करे? मैं तो साहब का बहुत लिहाज करता हूँ वरना जी करता है बीच रास्‍ते गाड़ी से उतार दूँ।

पिछले हफ़्ते मैं आंटी जी (साहब की फैमिली) को ब्‍यूटी पार्लर ले जा रहा था। जाने क्‍या हुआ आंटी ने आज बड़े अच्‍छे से बात की, "रामशरण तुम कौन से भगवान को मानते हो?"

"मैं सभी भगवान को मानता हूँ, राम, कृष्‍ण, शंकर....।" मैं डरते डरते कहने लगा। मेरी समझ में कुछ नहीं आया था। लग रहा था कि यदि एक किसी भगवान का नाम लूँगा तो नाराज़ हो जाएंगी।

"अरे नहीं, सब नहीं एक बताओ, किसकी पूजा अधिक करते हो?" आंटी ने पूछा।

"मैं हनुमान का भक्‍त हूँ। उन्‍हीं की पूज़ा रोज़ करता हूँ।" मैंने कह दिया। अब क्‍या करूँ, जो होता है सो हो।

"एक बात सच-सच बताओगे? तुम्‍हें हनुमान जी की क़सम है, क्‍या साहब इस गाड़ी से किसी मैडम को गेस्‍ट हाउस ले जाते हैं?"

"आंटी मैं आपसे झूठ क्‍यों बालूँगा?" मैं हकबका गया।

"देखो तुम्‍हें तुम्‍हारे हनुमान जी की क़सम है, सच-सच बताना।"

मैडम ने बड़ा बुरा फँसा दिया। इधर कुआँ तो उधर खाई। साहब ऑफिस के काम से या किसी मीटिंग के सिलसिले में गेस्‍ट हाउस तो जाते रहते थे। कई बार पी.आर. ऑफ़ीसर मिसेज जोशी भी साथ जाती हैं। यह सरकारी गाड़ी है, इसमें तो कोई भी बैठ सकता है। पर मैंडम को कौन समझाए? कुछ पूछना है तो सीधे साहब से पूछो, मुझ गरीब को क्‍यों फँसा रही हो। यदि मेरे मुँह से एक भी शब्‍द ग़लत निकल गया तो मेरी नौकरी खतरे में पड़ सकती है।

"मैडम आज चाहे जिसकी क़सम दे दें, मैं आपसे बिलकुल झूठ नहीं बोलूँगा। अपनी ड्यूटी में, मैंने अपनी जानकारी में मैंने किसी मैडम को नहीं बिठाया है।"

"देखो, रामशरण तुम झूठ बोल रहे हो, सच बताओ। मुझे सब पता है।"

"हनुमान जी की कसम आंटी जी, मैंने आपके अलावा किसी मैडम को नहीं बिठाया।"

आंटी मुझ पर गुस्‍सा करने लगी। अब वह अपने पुराने रूप में लौट आई, "तुम्‍हें मैनर्स नहीं है", "मैं साहब से तुम्‍हारी शिकायत कर दूँगी"।

मैं मन ही मन भगवान से माफ़ी मांग रहा था। हे हनुमान जी, मुझे माफ़ कर दो। नौकरी की सवाल है। मुझे इस मुसीबत से बचाओ और जल्‍दी से जल्‍दी मेरा ट्रांसफ़र कहीं और कर दो।

Monday, November 12, 2007

धन्‍यवाद धोनी, आपने अपने बाल कटा लिए _____!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी



चित्र साभार:
  • शरत जायसवाल


  • मेरा नाम श्‍यामनारायण शिवहरे है। मध्‍यप्रदेश में उज्‍जैन का रहने वाला हूँ और यहाँ के डिग्री कॉलेज में रसायन विज्ञान का प्रोफ़ेसर हूँ। छोटा परिवार सुखी परिवार है और ईश्‍वर की कृपा से तनख्‍वाह भी अच्‍छी ख़ासी है, मज़े से गुज़ारा हो जाता है।

    मेरा एक बेटा है जो इस समय दसवीं बोर्ड की परीक्षा में बैठ रहा है। कद-काठी तंदुरूस्‍त है और मेरी शर्ट अभी से उस पर फिट आती है। भगवान ने उसे दिमाग़ भी अच्‍छा दिया है। मैं स्‍वयं पढ़ा लिखा हूँ और पढ़ाई का महत्‍व समझता हूँ। जानता हूँ कि इस उम्र में पढ़ाई कितनी ज़रूरी है। मैंने तय कर लिया है कि उसके कैरियर के बारे में अपनी कोई राय नहीं थोपूँगा। जो चुनना चाहे, चुने।

    परंतु इस उम्र में सही मार्गदर्शन की अत्‍यंत आवश्‍यकता होती है। एक पिता से अच्‍छा मार्गदर्शक कोई और नहीं हो सकता। उसकी ड्राइंग बचपन से ही अच्‍छी थी इसलिए मैंने तय किया है कि उसके लिए बायोलोजी विषय अच्‍छा रहेगा। बायोलोजी, जूलॉजी आदि विषयों में प्रेक्टिकल में अच्‍छी ड्राइंग वालों को अच्‍छे नंबर मिलते हैं।

    बच्‍चे का मन कच्‍चे घड़े की तरह होता है। इसलिए मैंने उसे सिखा दिया था, घर में कोई भी आता और पूछता "बेटे बड़े होकर क्‍या बनोगे? तो वह तपाक से कहता "डॉक्‍टर"। "शाबास ! वाह शिवहरे जी, बड़ा होनहार बेटा है आपका !" उसके खिलौनों में डॉक्‍टर की छोटी किट ख़रीद कर ले आया। खेलते समय डॉक्‍टर-डॉक्‍टर खेलता, ताकि उसके अवचेतन मन में डॉक्‍टर बनना अच्‍छे से जम जाए।

    अब वह बड़ा हो गया है। इस समय वह अपना समय पढ़ाई के अलावा अन्‍य गतिविधियों में अधिक बिताने लगा है। यह भी ठीक ही है, इससे बच्‍चे का समग्र विकास होता है। आजकल बिलकुल किताबी होना भी ठीक नहीं है। बच्‍चे में पढ़ाई के साथ-साथ पर्सनैलिटी भी होनी चाहिए।

    दो माह वह मेरे पास आया।

    "पापा। पचास रूपए चाहिए। बाल कटवाना है।"

    "यह लो। पर बाल कटवाने के पचास रूपए?" मैं समझ नहीं पाया। यहाँ तो बाल पंदरह से बीस रूपए मैं कट जाते हैं।

    "धोनी स्‍टाइल के पचास रूपए लगते हैं।"

    "क्‍या?" मैं कुछ समझ नहीं पाया। धोनी जैसी स्‍टाइल के पचास रूपए। इसके सिर पर धोनी का भूत कब चढ़ गया? अरे! धोनी कभी बाल कटाता भी है? और फिर इसे तो डॉक्‍टर बनना है। मैंने किसी डॉक्‍टर का बाल धोनी स्‍टाइल का नहीं देखा था।

    मेरा सपना बिखरता हुआ नज़र आया। मैंने उसे समझाने की कोशिश की "भले ही यह पचास रूपए ले जाओ, किसी दूसरे काम में खर्च कर लो, पर धोनी जैसे बाल मत रखो।"

    पर उसने मेरी बात नहीं मानी, तभी भगवान ने मेरा साथ दिया। मैं धोनी को धन्‍यवाद देता हूँ कि उसने अपने बाल छोटे करा लिए हैं।

    Wednesday, November 7, 2007

    भागचंद मारवाड़ी को बि‍ज़नेस का नया नुस्‍ख़ा मालूम नहीं है ___!


    चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


    मेरा नाम साजन कुमार सिंधी है। पढ़ाई 10वीं से अधिक नहीं चल पाई, पढ़ने में मन नहीं लगता था, और कुछ घर की आर्थिक स्थिति अच्‍छी नहीं थी इसलिए सीधे बिज़नेस में लग गया। मेरा गुपचुप (पानी-पुरी) और चाट का छोटा सा बिज़नेस है। शाम-शाम में ही अच्‍छी कमाई हो जाती है। मेरी साथ के पढ़े लिखे लड़के बी.ए., एम.ए. कर अभी भी घूम रहे हैं, उनकी नौकरी का ठिकाना नहीं है। अच्‍छा हुआ मैं पढ़ने-लिखने के चक्‍कर में नहीं पड़ा, सीधे बिज़नेस में लग गया।

    माँ बाप ने मेरा नाम बहुत अच्‍छा रखा है। साथ पढ़ने वाली लड़कियाँ मेरा नाम लेते हुए शरमा जाया करती थीं, कुछ तो मेरा नाम ही नहीं लेती थीं, सिर्फ एस.के. कह कर बुलाती थीं। ख़ैर यह सब तो पुरानी यादें हैं, अब तो बिज़नेस में इतने व्‍यस्‍त हैं कि यह सब याद करने की फुरसत ही नहीं मिलती। हमारे बिज़नेस का एक उसूल है लोगों से बोल-चाल में वि‍नम्रता होना चाहिए। कोई कभी गुस्‍से में कड़ा भी बोल जाए, तो उसका बुरा न मानो क्‍योंकि कोई भी आदमी दिल से बुरा नहीं होता है। सबसे बड़ी बात यह कि हर आदमी एक ग्राहक होता है, और ग्राहक भगवान का रूप होता है।

    मैंने कहीं पढ़ा है बिज़नेस बढ़ाने का एक नुस्ख़ा और है - पहले लोगों से उनका हाल-चाल, घर-परिवार की ख़ैरियत पूछना चाहिए और फिर काम की बात करनी चाहिए। इससे अपनापन बढ़ता है जो लांग टर्म रिलेशन बनाने के लिए अच्‍छा होता है। जिसने भी यह बात कही है बिलकुल ठीक है। सचमुच, हम कहाँ जा रहे हैं ! न दुआ न सलाम, सीधे-सीधे काम पर आ जाते हैं, आजकल किसी को एक दूसरे का हाल जानने की फुरसत ही नहीं है!

    एक मिनट, मुझे एक काम याद आया। मुझे भागचंद मारवाड़ी से बात करनी है, उनकी दुकान में आलू आया या नहीं, पूछना है। इस इलाके में आलू कि‍राने की दुकान में मि‍लता है। यह तो भला कि आजकल मोबाइल आ गया है, क्‍या ग़ज़ब चीज़ बनाई है, कितनी सुविधा हो जाती है इससे।

    "हैलो कौन बोल रहा है? भागचंद से बात कराइए!" मैने भागचंद की दुकान में नंबर मिलाया। मैं भागचंद से आलू थोक में ख़रीदता हूँ।

    "मैं भागचंद ही बोल रहा हूँ भाया।"

    "नमस्‍कार सेठ जी, मैं चटखारा से साजन कुमार बोल रहा हूँ। कैसे हैं आप?"

    "ऊपर वाले की दुआ से खैरियत है।" मैं भी ऐसे ही नहीं छोड़ने वाला। लगता है भागचंद मारवाड़ी जी को यह नुस्‍ख़ा नहीं मालूम है।

    "और परिवार में सब कैसे हैं, बाल बच्‍चे?"

    "ठीक ही हैं, तुम्‍हारी भाभी इस समय बीमार चल रही है। वही गठिया की शिकायत.. आजकल चल-फिर नहीं पाती, इसलिए एक नौकरानी रख छोड़ी है। बड़ा तो मेरे साथ दुकान में ही बैठता है, उसके रिश्‍तेवाले आए थे... मैंने तो उनसे साफ कह दिया कि भई, काम धाम वाला घर है। अभी तो वापस चले गए हैं। जैसा भी होगा फोन से बताएंगे। दूसरे नंबर वाले का दो सब्‍जेक्‍ट में ट्यूशन लगा दिया है फिर भी कहता है और ट्यूशन पढ़ेगा.. सब कमबख़्त खाली करके छोड़ेंगे। सबसे छोटी वाली ...."

    "अरे बाल बच्‍चों की चिंता छोड़ि‍ए, सब ठीक हो जाएगा। बताइए काम-धाम कैसा चल रहा है?" ये तो रामायण ही खोलकर बैठ गया, मैंने इसे मोबाइल से फोन क्‍यों कि‍या?

    "बाज़ार में आजकल बड़ी मंदी है। शादी का सीजन आने में तीन महीने हैं। ट्रांसपोर्ट वाले अपना रेट बढ़ाने वाले हैं। सोचता हूँ रेलवे से माल मंगाना शुरू कर दूँ, पर खर्चा फि‍र भी डबल का डबल ही पड़ेगा। गोदाम यहाँ से दूर पड़ता है इसलि‍ए यहीं कहीं आसपास एक और गोदाम ढूँढ रहा हूँ, तेरी नज़र में है क्‍या कोई जगह भाया?"

    "फ़ि‍लहाल तो नहीं है, ठीक हैं अभी रखता हूँ।"

    "अरे भाया, यह तो बता कि‍ फोन क्‍यों कि‍या था?"

    "मैं पूछना चाहता हूँ कि‍ नए माल में आलू आया कि‍ नहीं।"

    "तो सीधे-सीधे पूछ न, टाइम क्‍यों बर्बाद करता है? आलू वाला ट्रक कल पहुँचेगा। और कुछ?"

    "नहीं, इतना बहुत है।" और मैंने जल्‍दी से फ़ोन काट दि‍या। ओह, फि‍र गलती हो गई, मैंने फोन काटने से पहले धन्‍यवाद या गुडबाई तो कहा ही नहीं___!

    Sunday, November 4, 2007

    उल्‍टे का उल्‍टा सीधा होता है____!


    चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


    मेरा नाम शिवशंकर झा है। मैं प्रयोगशालाओं में काम आने वाले उपकरणों को बनाने वाली विश्‍वविख्‍यात कंपनी "ट्राइसन" की भारतीय इकाई में एरिया असिस्‍टेंट मैनेजर हूँ। आप कभी गुड़गाँव स्थित हमारे ऑफिस आइए। आपको एक पूरा कारपोरेट वर्ल्‍ड दिखाई देगा। अव्‍वल दर्जे की फ़र्निशिंग, अव्‍वल दर्जे के सोफ़े-कालीन और अव्‍वल दर्जे का स्‍टाफ। हम अपने फ़ील्‍ड एग्‍ज़ीक्‍यूटिव्‍स काम करने में पूरी आज़ादी देते हैं। अनेक प्रकार की आर्थिक सहूलियतें भी देते हैं कि छोटा-मोटा खर्चा करना ज़रूरी हो तो वह भी अपने स्‍तर पर कर लें, पर टारगेट से समझौता न करें।

    मेरे अधिकारी एरिया मैनेजर श्री डांगर जी बिज़नेस में डिग्री धारक हैं, और बहुत तेज़ तर्रार किस्‍म के अफ़सर हैं। इन बिज़नेस के डिग्री धारकों की सबसे बड़ी समस्‍या होती है कि यह व्‍यावहारिक नहीं होते। कई बार इनके फ़ैसले इतने अव्‍यावहारिक होते हैं कि लाभ के बजाए नुक़सान अधिक होता है। जैसे किसी भी भले चंगे फ़ील्‍ड स्‍टाफ़ पर अकारण दबाव बनाना। एक और परेशानी है कि यह अपनी क़ाबिलियत साबित करने के लिए अधीनस्‍थों की उम्‍मीदों से बिलकुल उलटा निर्णय लेते हैं।

    मुझे जब से डांगर साहब के इन उलटे निर्णयों का पता चला तो मैंने उनके मुताबिक अपनी रणनीति बदली।

    पिछले माह मेरे मित्र ग्रेवाल साहब अपनी पत्रिका के लिए विज्ञापन मांगने आए। बड़े सज्‍जन व्‍यक्ति हैं और उनके जरिए हमें कई क्‍लाइंट मिले हैं। उनसे मेरा याराना है और पब्लिसिटी के फंड से मैं उन्‍हें विज्ञापन देना भी चाहता था।

    मैंने ग्रेवाल जी से कहा, "इसमें मेरा पहल करना ठीक नहीं है। आप एरिया मैनेजर डांगर जी से सीधे बात करिए। उनसे यह बात जिक्र ज़रूर करिए कि आप मेरे पास आए थे और मैं इस पर राजी नहीं हूँ।"

    "पर ऐसा करने की क्‍या ज़रूरत है? आप स्‍वयं ही विज्ञापन देना स्‍वीकार कर क्‍यों नहीं कर रहे हैं। कान को घुमाकर क्‍यों पकड़ते हैं?" ग्रेवाल साहब दुविधा में पड़ गए।

    "मेरा भरोसा करिए ग्रेवाल साहब। विज्ञापन आपको ज़रूर मिलेगा पर जैसा मैं कहता हूँ करिए। ध्‍यान रहे कि डांगर साहब के सामने आपको ऐसा जाहिर करना है कि मैं इसके लिए राजी नहीं हूँ।"

    वह तैयार हो गए।

    दूसरे दिन डांगर साहब ने मुझे बुलाया। उनके सामने ग्रेवाल साहब का पत्र रखा था। मैं समझ गया कि ग्रेवाल जी की मुलाकात डांगर से हो चुकी है।

    "मि.शिवशंकर, इस पत्र को देखिए। आपकी क्‍या ओपीनियन है?"

    "सर! ग्रेवाल साहब के मैगजीन की सर्कुलेशन इतनी अधिक नहीं है, इसलिए मैंने उन्‍हें हामी नहीं भरी थी। वैसे भी इस साल विज्ञापन का बजट पिछली बार से कम है।"

    "परंतु ग्रेवाल साहब से हमारी कंपनी के पुराने रिलेशन हैं। इनके मैगजीन की रेपुटेशन बड़ी अच्‍छी है। हमें ज़रूर इन्‍हें ही विज्ञापन देना चाहिए। मैं इसी लेटर पर ही अपने कमेंट लिख देता हूँ। आप बैक फुल पेज का कलर एड दे दीजिए।" और उन्‍होंने उस पत्र पर एक नोट लिखकर मुझे दे दिया।

    "ठीक है सर। आप कहते हैं तो मैं इसे प्रोसेस करता हूँ।" और मैं बाहर आ गया।

    इसी उलटबंसी का एक अनुभव और याद आता है। यहाँ के एक समाजसेवी पत्रकार श्रीवास्‍तव जी आए। उनकी ब्‍लैकमेलिंग के किस्‍से जगजाहिर थे। उनका मक़सद भी विज्ञापन हासिल करना था। उन्‍होंने अपना रूतबा दर्शाने के लिए अपने ऊँची पहुँच और मीडिया की ताक़त की बातें बतानी शुरू कर दी। वह ऐसा जाहिर कर रहे थे मानों वह हमसे विज्ञापन मांगकर हमारा कल्‍याण करना चाहते हों। ठीक है बेटा, मैं भी देखता हूँ, तुम्‍हें विज्ञापन कैसे मिलता है।

    "आप बैठिए तो सही, अभी हाथों-हाथ प्रोपोजल भेजता हूँ। आप आराम से चाय पीजिए।" मैंने चपरासी को चाय लाने का आदेश दिया।

    "थोड़ा जल्‍दी कीजिएगा। मुझे कई क्षेत्रों को एक साथ संभालना पड़ता है। क्‍या करें? जर्नलिज़्म का काम ही बड़ा जोखिम भरा होता है।"

    "यह बन गया प्रोपोजल मैं अपने बॉस के पास भेजता हूँ, बल्कि खुद लेकर जाता हूँ।"

    वह खुशी-खुशी चाय पीकर विदा हुए।

    मैं स्‍वयं अपने हाथों से प्रोपोजल लेकर गया। मैंने तो अपनी ओर से पूरी क़ोशिश की, पर मेरे चाहने से क्‍या होता है?

    एक हफ़्ते बाद श्रीवास्‍तव जी को हमारा खेद पत्र मिल गया। हमारे पब्लिसिटी बज़ट में पैसा ही नहीं था, इसलिए हम उन्‍हें विज्ञापन नहीं दे सके। अगले वर्ष अवश्‍य प्रयास करेंगे___!

    Thursday, November 1, 2007

    एक कलाकार ही दूसरे कलाकार का दर्द समझता है____!


    चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


    मेरा नाम बजरंगी देवांगन, कलापथक प्रमुख, रायपुर का रहने वाला हूँ। कलापथक ऐसी सरकारी कला मंडली होती है जो सांस्‍कृतिक कार्यक्रमों के जरिए सरकार की योजनाओं का प्रचार प्रसार करती है। मुझे तो पता ही नहीं था कि ऐसी भी कोई सरकारी नौकरी होती है जिसमें काम गाने बजाने का हो। मुझे शुरू से ही गाने बजाने का शौक़ था। मेरी तो लाटरी ही लग गई थी।

    हमें कलेक्‍टर के अंडर काम करना पड़ता है। शुरू में तो काम में मज़ा आया, पर बाद में बड़ा बेकार लगने लगा। हमें ग़रीबी हटाओ, परिवार नियोजन, पढ़ो-पढ़ाओ जैसे विषयों पर गीत गाना पड़ता। हमारे गीत भी कहीं और से लिखे आते, कोई रस नहीं, कोई भाव नहीं, बस आदेश होता गीत गाना है। मोटे-मोटे अफ़सर, जिन्‍हें कला और संगीत के बारे में क ख भी पता नहीं होता, वह हमें बताते कि क्‍या गाना है और कब गाना है।

    समझ लो हम सरकारी भांड हैं। किसी भी कार्यक्रम में जहाँ कलेक्‍टर या किसी बड़े अधिकारियों का दौरा होता, हमें भेज दिया जाता। हमारा काम भीड़ जुटाना था, जब तक कि कलेक्‍टर साहब वहाँ पहुँच न जाएँ। पहले बहुत बुरा लगता था कि कोई हमारा गीत बीच में रोककर अपना भाषण शुरू कर दे, पर धीरे-धीरे इसकी आदत हो गई।

    मैं अब अपने काम में बिलकुल परफेक्‍ट हूँ। आप कोई भी कार्यक्रम बताइए, एड्स नियंत्रण या पोलिया टीकाकरण, उसके बारे में आधा पेज लिख कर दीजिए, चुटकी बजाते किसी भी लोकगीत या फिल्‍मी गीत में फिट कर सकता हूँ। बस गीत तैयार। आपको मज़ा नहीं आ रहा है तो इससे मुझे क्‍या। मैं आपके मनोरंजन की परवाह करूँ या अपनी नौकरी करूँ? माफ़ कीजिएगा बाबूजी, पर बदलती दुनिया के साथ-साथ मैं भी जीना सीख गया हूँ।

    विकासखंड अधिकारी, राजस्‍व अधिकारी, तहसीलदार, पंचायत प्रमुख और यहाँ तक कि एन.जी.ओ. के लोग भी हमारे चारों ओर डोलते हैं, कहते हैं "बजरंगी भाई, आप जैसे कलाकार की हमारे कार्यक्रम में उपस्थिति ज़रूरी है।" उनका मतलब होता कि
    कि "बजरंगी भाई, हमारे कार्यक्रम में आकर मुफ़्त में गाना-बजाना कर दो।" अव्‍वल तो हम हर किसी कार्यक्रम में जाते नहीं, यदि गए भी तो ऐसा गाते-बजाते हैं कि किसी को सुनाई ही न दे। लोगों को ढोलक, हारमोनियम की आवाज़ बस सुनाई देती है पर समझ में कुछ नहीं आता। जब तक आयोजक लोग माइक सेट करते हैं हम दो गीत गाकर ब्रेक ले लेते हैं।

    लोग आखिरी में हमारे मन की बात कह देते हैं-"इससे अच्‍छा तो नाचा या भजन मंडली बुलवा लेते।" यही तो हम भी चाहते हैं कि अगली बार नाचा बुलवा लें तो हमारी बला टले। हमें संतोष है कि हमारी नौकरी पक्‍की है हमारा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा। अब थोड़ा गाली खा लेने से, या थोड़े घटिया साबित होने से हमारी कलाकार बिरादरी के किसी भाई को रोज़गार मिले तो इससे अच्‍छी बात क्‍या हो सकती है___!

    Tuesday, October 30, 2007

    सरफ़रोशी की तमन्‍ना दिल में ही रह गई ____!


    चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


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    मेरा नाम विनायक अहिरवार है, पेशा राजनीति, रीवा मध्‍यप्रदेश कर रहने वाला हूँ। सभी भाई बहन अपने अपने ठिकाने लग गए हैं। ठिकाने लगने का मतलब है कि भाई अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं, बड़े की नौकरी तो पहले से ही थी, छोटा कपड़ों का बिज़नेस करता है। दोनों बहनों की शादी हो चुकी है। यहाँ हमारी रिश्‍तेदारी बहुत बड़ी है। मेरा मानना है कि हर परिवार में कोई-न-सदस्‍य राजनीति में होना चाहिए। दूसरों का न सही, अपने घर में ही इतने काम रहते हैं एडमिशन से लेकर तबादले तक, बिजली-पानी के कनेक्‍शन से लेकर कोर्ट कचहरी तक, कि राजनैतिक जान-पहचान की ज़रूरत पड़ती रहती है।

    मैंने एम.ए कर लिया, एल.एल.बी भी कर लिया पर नौकरी नहीं मिली। इसलिए मैंने पढ़ लिखकर राजनीति को अपना कैरियर बनाने का निश्‍चय किया है। राजनीति में पढ़े लिखे नेताओं की हमेशा ज़रूरत रही है और मैं तो शुरू से ही बोलने-चालने में अच्‍छा रहा हूँ। काफी विचार विमर्श कर काँग्रेस पार्टी का कार्यकर्ता बन गया हूँ। हमारे क्षेत्र के युवा विधायक हैं श्री ईश्‍वर सिंह जी, वह मेरी बहुत इज्‍जत करते हैं। मैं उनका बहुत ही ख़ास चेला बन गया हूँ।

    राजनीति में निष्‍ठावान तथा जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं की बहुत ज़रूरत पड़ती है। शुरूआती स्‍तर पर छिछोरापन ठीक नहीं है। पहले विचारधारा के स्‍तर पर तो परिपक्‍व हो लें, फिर यदि ईमानदारी से काम किया जाए तो सत्ता भी मिल जाएगी। जनता का काम नि:स्‍वार्थ भाव से करना चाहिए। फिलहाल आप सबों की दुआ से अपना जेबखर्च निकल ही जाता है। मेरी दृष्टि स्‍थानीय राजनीति, छोटी मोटी उठापकट से काफी आगे है। मैं राष्‍ट्रीय राजनीति में अपना दखल बनाना चाहता हूँ। राजनीति में छात्रों का नेतृत्‍व करना आसान लगता है, पर इसमें बहुत जटिलताएँ भी शामिल होती हैं।

    उस समय हम पाकिस्‍तान के राष्‍ट्रपति मुशर्रफ़ के भारत आगमन के विरोध में जनमत तैयार कर रहे थे। छात्र शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है। हमारी नीति रही है कि छात्र नेताओं से संपर्क कर उन्‍हें अपने आंदोलन में शामिल करते हैं। छात्रों में नया जोश, नई ऊर्जा होती है। हम अपने कुछ पदाधिकारियों के साथ यहाँ के मेडिकल कॉलेज में जनआंदोलन के लिए छात्रों से मिले जुले तो वातावरण काफ़ी अनुकूल लगा। जहाँ एक ओर मुशर्रफ़ कारगिल लड़ाई का जिम्‍मेदार था, हमारे देश में अव्‍यवस्‍था फैलाने के लिए आतंकवादियों को शह देने की बात किसी से छिपी नहीं है। उसी खलनायक का स्‍वागत आज केंद्र सरकारी राज सम्‍मान के साथ कर रही है। इस सरकार को हमारे देश के आत्‍मसम्‍मान की ज़रा भी परवाह नहीं है! धिक्‍कार है!

    यहाँ के छात्र नेताओं में काफी उत्‍साह था, इसलिए युवा विधायक श्री ईश्‍वरचंद ने स्‍वयं वहाँ एक मीटिंग ली।

    "साथियों! कोई बात आप सब से छिपी नहीं है। इसलिए समय बरबाद न करते हुए मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ। हमारे हिंदुस्‍तान के टुकड़े करने का सपना देखने वाले मुशर्रफ का स्‍वागत हम नहीं होने देंगे। इसने ही हमारे कश्‍मीर पर, हमारी माँ बहनों पर अत्‍याचार कराया है। इसे तो गोलियों से भून देना चाहिए। और यह सरकार, अमेरिका की गुलामी कर रही है...।" ईश्‍वर जी ने वहाँ उपस्थित सभी छात्रों की अंतरात्‍मा को हिला कर रख दिया।

    इसके बाद आंदोलन की रूपरेखा तय हुई।

    "तो हमने इसके लिए भोपाल में 11 तारीख को एक रैली का आह्वान किया है। यहाँ से पूरी ट्रेन भरकर जाएगी। वैसे तो आप लोगों के रूकने, खाने पीने की व्‍यवस्‍था सब है, पर यदि कुछ गड़बड़ी हो तो आप अपना खर्च खुद करना पड़ सकता है। क्‍या हम अपने देश के लिए इतना भी नहीं कर सकते?" सभी छात्रों जाने के लिए तैयार थे।

    "आप लोगों को अपनी कुछ कक्षाएँ छोड़नी पड़ेंगी, तो क्‍या आप सब तैयार हैं?"

    "हाँ, बिलकुल तैयार हैं।"

    "शाबास! यदि यहाँ के प्रिंसिपल ने कोई टांग अड़ाने की क़ोशिश की, तो क्‍या उनका विरोध करने के लिए?"

    "हाँ, बिलकुल तैयार हैं।"

    "यदि हम एकजुट रहे तो कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यह हमारे अपने देश के स्‍वाभिमान की लड़ाई है। मैं आप लोगों को बता दूँ कि यदि प्रिंसिपल कल आप लोगों में किसी को रेस्टिकेट भी कर सकता है। क्‍या देश के लिए लड़ाई लड़ने को तैयार है। आप में से कितने लोग अपनी कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं? अपने हाथ उठाएँ!"

    सारे हाथ खडे हो गए।

    "और कितने लोग कुर्बानी नहीं दे सकते? हाथ उठाएँ। किसी के साथ कोई जबरदस्‍ती नहीं है।"

    एक भी हाथ नहीं उठा। सभी छात्र देश के लिए अपनी कुर्बानी देने को तैयार थे। सबके मन में सरफ़रोशी की तमन्‍ना जोर मार रही थी। यह मेरे देश, भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद के देश के युवा हैं...!

    ईश्‍वर जी प्रसन्‍न होकर कॉलेज से विदा हुए। उन्‍होंने विशेष तौर पर मेरी पीठ ठोंकी।

    हमने अपने कार्यकर्ताओं के साथ भोपाल में रैली की, रैली बहुत अच्‍छी रही। पर उस मेडिकल कॉलेज से कोई नहीं आया। सुना है उनके परीक्षा की डेट एनाउंस गई थी और सब अपनी पढ़ाई में जुट गए थे।
    आजकल छात्र राजनीति भी आसान नहीं रह गई। और इन मेडिकल कॉलेज के भगतसिंहों के सरफ़रोशी की तमन्‍ना का कोई भरोसा नहीं _____!

    Thursday, October 25, 2007

    छोटे शहर की छोटी मानसिकता_____


    चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

    मेरा नाम डी.पी. यादव है, एम.ए., एम.एस-सी., बी.एड. हूँ और सिहोरा के शासकीय हाई स्‍कूल में शिक्षक हूँ। सिहोरा शहर काफ़ी तेज़ी से विकास कर रहा है। अब तो यहाँ एम.एस-सी. तक का कॉलेज, दो हाई स्‍कूल, तथा एक गर्ल्‍स हाई स्‍कूल, दो प्राइवेट नर्सिंग होम, एक स्‍टे‍डियम, एक आई.ए.एस. कोचिंग सेंटर भी खुल गया है। यहाँ से पढ़े बच्‍चे देश भर में अपने सिहोरा गाँव का नाम रोशन कर रहे हैं। अब यह गाँव कहाँ रहा, अच्‍छा खासा शहर हो गया है।

    यहाँ बायोलॉजी की कक्षा में अध्‍यापन कार्य कर रहा हूँ। पिछले 15 वर्ष से बायोलॉजी अध्‍यापन के क्षेत्र में मेरा नाम है। आसपास के शहरों से विद्यार्थी ट्यूशन पढ़ने मेरे पास आते हैं। पर मैं हर किसी को नहीं पढ़ाता। मेरे स्‍कूल से भी अनेक बच्‍चे मेरे पास आते हैं। ट्यूशन पढ़ना या न पढ़ना छात्रों की अपनी इच्‍छा पर निर्भर करता है। मैं किसी पर कोई दबाव नहीं डालता, किसी को मैं बाध्‍य नहीं करता। जिसे पढ़ना है पढ़े, जिसे नही पढ़ना वह स्‍वाध्‍याय कर परीक्षा देने के लिए स्‍वतंत्र है। अपने नंबरों के लिए वह स्‍वयं जिम्‍मेदार होगा। मेरा आशीर्वाद उसके साथ है।

    यहाँ के लोगों की मानसिकता अभी भी पिछड़ी हुई है। एक लड़का है सुंदर लाल। बारहवीं का छात्र है। पढ़ने में तेज़ है। ईश्‍वर ने उसे बुद्धि अच्‍छी दी है पर उसे इसका घमंड हो गया है। मेरे पास ट्यूशन नहीं पढ़ता और कहता है कि स्‍वयं ही क्‍लास में फ़र्स्‍ट आकर दिखाएगा। वह एक दिन प्रिंसिपल के पास शिकायत लेकर पहुँच गया कि यादव सर लड़कों को प्रेक्टिकल नंबर कम देते हैं और लड़कियों को नंबर ज़्यादा देते हैं।

    आप तो जानते हैं कि छोटे शहर के लोग और उनकी वैसी ही ओछी मानसिकता। लड़कों को पूरे समय नेतागिरी करने, क्रिकेट वगैरह से फुरसत नहीं मिलती। लड़कियाँ मन लगाकर प्रेक्टिकल में भाग लेती हैं। उनकी हैंडराइटिंग सुंदर होती है। उनका मौखिक साक्षात्‍कार अच्‍छा होता है इसलिए उनके नंबर अधिक आते हैं। एक शिक्षक के नाते हमें अपने छात्रों का संपूर्ण व्‍यक्तित्‍व जाँचना होता है। प्रेक्टिकल नंबर और किसलिए होता है?

    अभी परसों तो हद हो गई। वह प्रिंसिपल के पास पहुँच गया और कहने लगा कि यादव सर नीता के सिर पर हाथ फेर रहे थे। नीता उसी की सहपाठी है, और बहुत अच्‍छी लड़की है। मेरा लेक्‍चर बड़े ध्‍यान से सुनती है। क्‍या एक शिक्षक स्‍नेह से अपने विद्यार्थियों के सिर पर हाथ नहीं फेर सकता? मैंने प्रिंसिपल साहब से कह दिया कि चाहे जिसकी कसम खवा लो, मैं नीता के सिर पर ममत्‍व युक्‍त स्‍नेह से हाथ फेर रहा था। सुंदरलाल कहने लगा कि हम भी तो आपके छात्र हैं, हमारे सर पर भी ममत्‍व वाले स्‍नेह से हाथ फेरो। ठहर साले! इसी ममत्‍व वाले हाथ से तेरा टेंटुआ न दबा दूँ_____!