Thursday, January 17, 2008
भगवान के काम में तेरा एहसान नहीं चाहिए.....!
जय साँईं राम। इस बार पंद्रह दिन के लिए शिरडी जाकर सेवा देने का कार्यक्रम पक्का है। सारी दुनियादारी से दूर पूरे पंद्रह दिन सत्संग और सेवा में बिताने का मौका मिलेगा। सभी ताज्जुब करते हैं कि भाई जवाहर, तुम ऐसा कैसे कर लेते हो? मैं मुस्कुरा देता हूँ। प्रभु की कृपा हो तो हर काम संभव हो जाता है।
मेरा नाम जवाहरलाल शर्मा है। मैं नवगाँव में फ़ील्ड मलेरिया वर्कर हूँ। मैं बचपन से ही धर्म-कर्म में रुचि रखता था। सोचता था बड़ा होकर साधू बनूँगा। परंतु यह गृहस्थ जीवन भी एक तपस्या से कम नहीं है। इसमें रहकर जो अपने कर्तव्यों को पूरा करते हुए, प्रभु का ध्यान करता है वही सबसे बड़ा साधू है।
"शिरडी आने जाने के लिए दीदी से कुछ उधार ले लूँ?" मैंने पत्नी से सलाह मशवरा किया।
"ठीक है, दो तीन महीने में चुका देंगे। पर धरम के काम में उधार लेना ठीक नहीं होता।" पत्नी बोली।
"हाँ, यह तो है।" मेरी पत्नी हमेशा समझदारी की बात करती है। धर्म-कर्म के काम में उधार लेने से उसका पुण्य नहीं मिलता। जिसका पैसा होता है, पुण्य उसके नाम चला जाता है।
मेरे ऑफिस के जी.पी.एफ़. में तो पैसा है ही, पाँच हज़ार निकाल लूँगा। पैसे और समय की समस्या तो हमेशा बनी रहेगी। इसको लेकर दुखी होने से क्या फ़ायदा?
पहले दो छुट्टी और बाद में संडे मिलाकर देखें तो कुल अठारह दिन हो जाते हैं। इसमें पंद्रह दिन की छुट्टी के लिए एकमुश्त ई.एल. (अर्जित अवकाश) लेना पड़ेगा। वैसे ही यह छुट्टियाँ बेकार जा रही हैं, कुछ उपयोग में आ जाएंगी।
मैं कल रात ऑफिस से वापस लौटा।
"क्या बात है, परेशान हो?" पत्नी ने पूछा।
"बाबू पैसा मांगता है। कहता है ई.एल. मंज़ूर कराने का रेट ढाई सौ रूपए है। साहब से मंज़ूर कराना पड़ेगा। मैंने उससे बताया कि मैं धर्म काम के लिए जा रहा हूँ। बार-बार रिक्वेस्ट करने पर अपना पचास रूपया तो छोड़ने के लिए तैयार हो गया है, पर साहब के लिए दो सौ रूपए देना ही पड़ेगा। और जी.पी.एफ़ एडवांस देने का रेट 10 परसेंट है इसलिए पाँच हज़ार रूपए पर 500 तो पहले ही काट लेंगे। हाथ में साढ़े चार हज़ार ही आएगा।"
"फिर क्या हुआ?" पत्नी पूछी।
"फिर क्या, मैं उसकी बात मान गया। उसने नई दरख्वास्त बनवाई। उसमें पत्नी बीमार है लिखवाया। अभी सोचता हूँ तो लगता है कि भगवान के दरबार में जाने के लिए घूस देना गलत है, इससे अच्छा मैं जाने का विचार छोड़ दूँ।" मैं निराशा हो गया।
पत्नी ने खाना परोसते हुए बोली "आप अपना दिल क्यों छोटा करते हैं। इस काम में जो घूस लेता है गलती उसकी है। आपको अपना कार्यक्रम बदलने की ज़रूरत नहीं है। अकेले आपसे थोड़े ही लेते हैं, सबसे लेते हैं। आप यह मानकर चलो कि यह घूस नहीं फ़ीस है।"
बिलकुल सही बात है। मेरे मन का बोझ हलका हो गया। सबके पाप को लेकर मैं अकेला क्यों परेशान होऊँ? कल ही जाकर बाबू को बोलता हूँ कि अपने पचास रूपए भी ले लेना। भगवान के काम में तेरा एहसान नहीं चाहिए.....!
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1 comment:
"यह घूस नहीं फ़ीस है।" - bahoot achhi tarah se aapne घूस ko paribhashit kiya hai :) Bahoot achhe
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