Wednesday, August 6, 2008
कहीं आपको लीडरशिप के गुर सिखाने वाली कोई सीडी मिले तो बताना ज़रूर...!
पिछले हफ़्ते आशू 'साला' बोलना सीख आया।
हम पैरेंट्स के लिए यह बड़ा कठिन समय है। कोई एक परेशानी हो तो कहूँ। और पिछले हफ़्ते तो आशू कहीं से 'साला' सीखकर आ गया है।
पहले मैं आपको अपना परिचय देता हूँ। मेरा नाम आर.एल. श्रीवास्तव है, हाईस्कूल में लेक्चरर के पोस्ट पर हूँ। मैं खुद पोस्ट ग्रेजुएट हूँ इसलिए नॉलेज का महत्व समझता हूँ। आज के दौर में औसत की गुंजाइश नहीं है। जो सबसे तेज़ होगा वही कामयाब बनेगा। इसलिए हमने अपने आशू को सबसे बढ़िया स्कूल में डाला है। सभी हाई क्लास लोगों के बच्चे उसमें पढ़ने आते हैं। अब आप इसे बड़ाई न समझें, अभी से आशू कंप्यूटर में गेम खेल लेता है। कार रेस में तो वह कम्प्यूटर को भी हरा देता है। आजकल ज़माना ही कम्प्यूटर का है, मैं आशू को शुरू से कंप्यूटर सिखा रहा हूँ।
यहाँ हमारी सोसाइटी ठीक नहीं है। आस-पड़ोस के बच्चे दिन भर धमाचौकड़ी मचाते हैं। कोई गिर रहा है, तो कोई रो रहा है। किसी को कोई सलीका नहीं। बच्चों पर संगति का बहुत असर पड़ता है, इसलिए मैं आशू को भरसक घर पर ही रखता हूँ। कोई ज़रूरत नहीं है, बाहर जाने की। कहीं गिर गया, कोई चोट लग गई तो! विश्वास सर के बच्चों को देखो, कितने मैनर्स से रहते हैं! यहाँ के तो बिलकुल जंगली हैं।
आजकल टी.वी. पर बहुत से ज्ञानवर्धक कार्यक्रम आते हैं। डिस्कवरी देखो। एनिमल प्लेनेट देखो। पर कोई बच्चों को बाँध कर तो नहीं रख सकता। कुछ दिन पहले आशू खेलने गया तो गाली सीख कर आया। हमें तब पता चला जब उसने अपनी मम्मी से पूछा "माँ 'साला' क्या होता है?"
तब से आशू का बाहर जाना बिलकुल बंद। घर पर रहो। टीवी है। कार्टून पसंद है तो उसे देखो। कंप्यूटर पर गेम्स हैं, खेलो। मैंने आशू के लिए कई सीडी इकट्ठा की है। गुड हैबिट्स वाली सीडी है, सिंड्रेला की कहानी है, एक सीडी में तो मैथ्स सिखाया जाता है, एन्साइक्लोपीडिया भी है। यह सीडी भी बड़े कमाल की चीज़ है। मैं तो हैरान रह जाता हूँ। कार्टून और पिक्चर के जरिए कोई भी विषय बड़े अच्छे तरीक़े से से समझाया जाता है। इसके कोर्स के अलावा भी बहुत सी जानकारी मिल जाती है।
हमारा आशू थोड़ा शर्मीला है। कहीं भी बातें करते हुए शर्माता है। मैं उसे बोल्ड बनाना चाहता हूँ। कम्यूनिकेशन स्किल्स वाली सीडी मैं उसके लिए ले आया हूँ। दो एक विषयों पर और ढूँढ रहा हूँ, बनी तो होगी ही, पर मिल नहीं रही है। अरे, लीडरशिप और टीमवर्क वाली। मुझे पूरा विश्वास है कि आजकल ऐसे विषय बहुत पॉपुलर हैं। कहीं आपको लीडरशिप के गुर सिखाने वाली कोई सीडी मिले तो बताना ज़रूर...!
Thursday, February 28, 2008
देने के लिए मेरे पास सलाह के अलावा कुछ है भी नहीं.......!
इस देश में बेरोज़गारी बहुत बढ़ गई है। आजकल एक से बढ़कर एक इंटैलिजेंट बच्चे नौकरी की तलाश में मारे-मारे फिर रहे हैं। योग्यता का कोई मोल नहीं रह गया। आप आठवीं-दसवीं पास चपरासी के लिए विज्ञापन दीजिए, तो बी.एस-सी., एम.एस-सी. पास लोगों की लाइन लग जाती है। सही आदमी चुनना बड़ा कठिन हो जाता है। ऊपर से सोर्स सिफ़ारिश भी इतनी तगड़ी, कि समझ में नहीं आता कि कैसे मना किया जाए। पोस्ट तो एक ही है, उसमें एक ही व्यक्ति को रखा जा सकता है। सबकी बात कैसे सुनें।
मैं आपको अपना परिचय दे दूँ। मैं घासीदास विश्वविद्यालय का रजिस्ट्रार डॉ. खत्री हूँ। यहाँ कर्मचारियों की भर्ती बोर्ड का मेम्बर भी हूँ। स्थायी और अस्थायी शिक्षकों की भर्ती के इंटरव्यू में भी बैठना पड़ता है। यक़ीन मानिए किसी इंटरव्यू मे बैठना सबसे मुश्किल काम है। विशेषकर पोस्ट तीन-चार ही हों और उम्मीदवार तीन-चार सौ। मज़बूरी में सब को इंटरव्यू के लिए बुलाना पड़ता है। न बुलाओ तो ये लोग कोर्ट से स्टे ले आते हैं, कि मैं तो योग्यता पूरी करता हूँ, मुझे क्यों नहीं बुलाया ?
बड़ा कष्ट होता है, दूर-दराज से लड़के अपना सूटकेस लिए आते हैं। अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए पुस्तकें पढ़ते रहते हैं, कि जाने कौन सा प्रश्न पूछ लें, जाने कौन सी बात बच गई है उसे पढ़ लें। अरे मूर्खों ! अपनी भ्रमजाल से बाहर निकलो। तुम्हारे इंटरव्यू का कोई मोल नहीं है। कौन सी दुनिया में रहते हो? जिसे सलेक्ट करना है, वह पहले ही तय किया जा चुका है। अब किताबें पलटने से तुम्हारी किस्मत नहीं पलटने वाली। जाओ! अपने घर जाओ ! अपना और हमारा समय खराब मत करो।
अभी पिछले हफ़्ते की ही बात है। पोस्ट थी लैब टेक्नीशियन की। योग्यता बी.एस-सी. होनी चाहिए। यही समझ में नहीं आता कि सामने बैठे उम्मीदवार से क्या सवाल किया जाए?
"एम.एस-सी.! फिजिक्स ! फ़र्स्ट डिवीज़न ! राइट ? " मैंने पूछा।
"जी हाँ।"
"तो आप इसमें क्यों आना चाहते हैं, यह तो बहुत छोटी पोस्ट है, आई मीन, तुम तो कहीं लेक्चरर, प्रोफ़ेसर के लिए भी एप्लाई कर सकते हैं।"
"जी हाँ, पर आजकल लेक्चरर की कोई पोस्ट नहीं निकलती, इसीलिए...."
"तो पी-एच.डी. कर लो। उसके बाद रिसर्च में अपना कैरियर बना सकते हो। कहीं फैलोशिप के लिए ट्राई किया ?"
"जी... नहीं।"
"क्यों? तुम तो बड़े ब्राइट लड़के हो, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? सामने पूरा कैरियर पड़ा है। अभी पढ़ो। रिसर्च करो। कोई फैलोशिप लेकर रिसर्च करने फ़ॉरेन भी जा सकते हो।"
"अभी.. मेरी फ़ाइनेंसियल पोज़ीशन ठीक नहीं है। इसलिए मैं फिलहाल नौकरी ही करना चाहता हूँ।"
"ओह ! तुम्हें कुछ कंप्यूटर वगैरह आता है?"
"जी हाँ सर! मैंने छ: माह का डिप्लोमा भी किया है।" वह कुछ उत्साहित हो गया।
"तो फिर ठीक है। मैं तो तुम्हें यही सलाह दूँगा कि अपने गाँव जाओ। आजकल हर जगह कंप्यूटर पर काम करने वालों की डिमांड है। पार्ट-टाइम कोई काम कर सकते हो। इस तरह तुम्हारा खर्चा भी निकल आएगा। और साथ-साथ पी-एच.डी. ज़रूर करना।"
"पर मैं पी-एच.डी. नहीं करना चाहता....!"
"मेरी सलाह मानो बेटे। इस नौकरी में अपना समय मत खराब करो। तुम्हें काफी आगे जाने है, रिसर्च करो और देश का नाम रोशन करो। तुम जैसे होनहार लड़कों की देश को ज़रूरत है। ठीक है? ओ.के.! बेस्ट ऑफ़ लक फ़ॉर योर ब्राइट फ़्यूचर।"
"थैंक्यू ... सर। मैं आपकी सलाह याद रखूँगा।" बोलकर वह निकल गया।
मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसी कौन सी आफत आ गई है। क्यों लोग एक छोटी सी नौकरी के पीछे पागलों की तरह टूट पड़े हैं। ऐसे होनहार लड़के इतनी जल्दी हिम्मत हार जाएंगे तो देश का क्या होगा। शायद उसे मेरी सलाह पसंद नहीं आई....। और फिर देने के लिए मेरे पास सलाह के अलावा कुछ है भी नहीं.....!
Wednesday, February 13, 2008
जो मरद अपनी औरत को “भूलभुलैया” नहीं दिखा सकता, वह किस काम का...?
मेरा नाम रामरत्ती बाई है। मैं दिशापुर गाँव में रहती हूँ। हमारे दिशापुर में कई आफिस हैं जिनमें बड़े-बड़े अफसर नौकरी करते हैं। मैं इन अफसरों के घरों में झाड़ू बरतन करती हूँ।
पहले मैं मज़दूरी करती थी। मज़दूरी में पैसा तो अधिक था, पर काम रोज़ रोज़ नहीं मिलता था। झाड़ू-बरतन, एक तो महीने भर का काम है और दूसरे इसमें पैसा बँधा-बँधाया मिलता है। शुरू के हफ़्ते में थोड़ी दिक्कत होती है, पर बाद में जब हाथ सेट हो जाए, तो काम फटाफट होने लगता है। मुझे तीन-चार घर निपटाने होते हैं, इसलिए मैं काम जल्दी ही करती हूँ।
शुरू-शुरू साहबों की बीबियाँ हमारी हरकतों पर नज़र रखती हैं, पर एक बार भरोसा जम जाए तो पूरा घर भी हमारे जिम्मे छोड़ देती हैं। बीबियों के मेरे हाथ का काम बहुत पसंद आता है।
जितने किस्म के साहब, उतनी ही किस्म की उनकी बीबियाँ। सब दूसरों के घरों के अंदर की बातें जानने की कोशिश करती हैं। तहसीलदार साहब की बीबी घुमा फिराकर पूछती है कि नायब तहसीलदार के घर इतनी रौनक क्यों रहती है। नायब तहसीलदार की बीबी पूछती है कि फूड इंस्पेक्टर के घर कौन-कौन आता-जाता है। मैं तो साफ कह देती हूँ “भई, दूसरों के घर क्या होता है, मुझे कुछ नहीं पता। हाँ मेरे बारे पूछो तो सब सच-सच बता दूँगी।” जब अपने दिल में खोट नहीं तो क्या डरना।
“रत्ती बाई, बेबी को दो घंटे खिलाने (देख रेख करने) का काम है। बता तेरी नज़र में कोई है।” नायब तहसीलदार बीबी ने पूछा।
उनका एक छोटा बेबी है। उन्होंने मुझसे कहा था खिलाने के लिए, पर मैंने मना कर दिया। मेरे पास बिलकुल टाइम नहीं है। और जितने समय में बच्चा खिलाने का काम होगा, उतने में तो मैं दो घर और निपटा सकती हूँ। पर मेरे लिए चार घर ही काफी हैं। और ज़्यादा घर पकड़ने का बिलकुल मूड नहीं है।
मुझे गाना सुनने का बहुत शौक है। मैंने सबको पहले ही बता दिया कि मैं काम करते समय रेडियो चलाकर सुनती हूँ। मंजूर हो तो बोलो हाँ, नहीं तो नमस्ते। और आजकल अफ़सरों के घर रेडियो तो ज़रूर होता है।
हमारे गाँव में कोई सिनेमाहॉल नहीं है। वहाँ से सबसे पास का सिनेमाहॉल बिचपुरी का “सपना” है, जिसमें फिल्म देखने के लिए बिचपुरी दो घंटे बस में जाना पड़ता है। जब भी वहाँ कोई सिनेमा लगता, उसकी खबर हमारे गाँव में भी लगती। मुझे फिल्म देखने का भी बड़ा शौक है।
फिल्मो में सलमान खान मेरा फेवरेट हीरो है। जिस दिन ऐश्वर्या राय उसको छोड़कर अभिषेक बच्चन से शादी की, मैंने नायब तहसीलदार बीबी से बोल दिया, “आजकल की हीरोइनों को हीरो से नहीं, हीरो के पैसे से प्यार है।” अमिताभ बच्चन के पास ज़्यादा पैसा है, इसलिए वह सलमान को छोड़कर अभिषेक के पास गई। आजकल का जमाना ऐसा ही है।
“रत्ती बाई, फूड इंस्पेक्टर का अपनी बीबी से झगड़ा हुआ क्या? अचानक मैके कैसे चली गई?” नायब तहसील दार की बीबी ने पूछा।
“पता नहीं बाई। उनके घर क्या हुआ, मेरे को कुछ नहीं पता।” मैंने साफ कह दिया “बाई। आप मेरे घर की बात पूछो तो मैं बता सकती हूँ। और दूसरों की बात नहीं बता सकती।”
“चल-चल। बड़ी आई शराफत बताने वाली।” बीबी नाराज़ हो गई। पर मैं जानती थी वह ज़्यादा देर चुप नहीं बैठेगी।
“तूने अपना मरद क्यों छोड़ दिया?”
“ऐसे ही, वह मुझे पसंद नहीं था।”
“क्या मार-पीट करता था?”
“नहीं। वैसे तो बड़ा भला आदमी था। पर मुझे पसंद नहीं था। बड़ा कंजूस था। उसने वादा किया था कि मुझे “सपना” में “भूलभुलैया” दिखाने ले जाएगा, पर नहीं ले गया।”
“बस? इसी लिए उसे छोड़ दिया?” बीबी ने बड़ी हैरत से पूछा।
“हाँ...! इसीलिए...। और मैं अपना खर्चा खुद करने के लिए तैयार थी। फिर भी मेरी बात नहीं सुनता। उसे मेरी कोई परवाह ही नहीं है...।”
बीबी मेरा मुँह देखती रही। मैं उन्हें बता रही थी कि कैसे मैं अकेली बिचपुरी जाकर ‘भूलभुलैया’ देखकर आई। जो मरद अपनी औरत को “भूलभुलैया” नहीं दिखा सकता, वह किस काम का...? मैंने अब दूसरा मरद रख लिया है।
Tuesday, January 29, 2008
कृपया चलती गाड़ी से न उतरें....!
पिछले हफ़्ते हमारी बस का स्टीरियो फिर खराब हो गया था। कई दिनों तक उसे ठीक करवाने का टाइम नहीं मिला। परसों लंच टाइम में पहले स्टीरियो ठीक करवाया फिर लंच किया। जोगेंदर जल्दी मचाने लगा तो लंच आधे में छोड़ना पड़ा। कंपीटीशन के चक्कर में आजकल अपना खाना-पीना सब हराम हो गया है।
दस दिन पहले ऐसे ही आगे निकलने के कारण बदरपुर में दो बसें आपस में भिड़ गईं और दो साइकिल सवार कुचल गए। बस, तब से लेकर आज तक अख़बारों में रोज़ हेडिंग आती, "आज ब्लूलाइन ने 4 को शिकार बनाया", "आज 2 को शिकार बनाया"। ऐसा लगता है ब्लूलाइन बस न हुई, राक्षस हो गई और राह चलते लोगों को पकड़-पकड़ कर खाने लगी। अरे मैं पूछता हूँ लोग यह क्यों नहीं छापते कि आज ब्लूलाइन ने पाँच हज़ार या दस हज़ार लोगों को सही सलामत घर पहुँचाया।
ठहरिए, मैं यह बताना ही भूल ही गया कि मेरा नाम शंकर है, ब्लूलाइन का ड्राइवर और कंडक्टर दोनों हूँ। मैं और मेरा दोस्त जोगेंदर रूट नंबर 725 में चलते हैं। गाड़ी कभी मैं चलाता हूँ, तो कभी जोगेंदर चला लेता है। मालिक को रोज़ के तीन हज़ार रूपए दो, बाक़ी वह और हिसाब नहीं पूछता। हमने साफ कह दिया है, हमें रोज की झिक-झिक पसंद नहीं। उसने ट्रैफिक वालों की पक्की सेटिंग कर रखी है, इसलिए हमें कोई दिक्कत भी नहीं होती।
सबेरे का समय अच्छा होता है। ज़्यादा ट्रैफिक नहीं होता। सवारियाँ भी नहाई-धोई होती हैं, हम भी अच्छे मूड में होते हैं। तब मैं अपना स्टीरियो ज़रूर बजाता हूँ। किशोर कुमार के गाने, "पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही...!"
लोग कहते हैं, ब्लूलाइन बस के कंडक्टर बदतमीज होते हैं, सवारी से सीधे मुँह बात नहीं करते। कहना है तो कुछ भी कहो, हम मुँह थोड़े ही पकड़ सकते हैं। आप हमसे सबेरे के समय मिलिए। आपको सब पता चल जाएगा। आप, जनाब और साहब के सिवा आप हमसे कोई दूसरा शब्द नहीं सुन सकते। मेरे मुँह से "मेरे माई बाप, लेडिज़ को सीट दे दो... मेरी सीट पर आ जाओ..." सुनकर जोगेंदर भी कभी-कभी अचरज करता है कि शंकर इतना सलीकेदार कैसे हो गया? यह सब संगीत का कमाल है... किशोर कुमार का कमाल है।
शाम को पाँच बजे शादीपुर स्टैंड से तीन चार लड़कियाँ बस पर चढ़ती हैं। यह रोज़ की सवारी हैं। इनके आने से पूरी थकावट दूर हो जाती है। फिर किशोर कुमार की याद आती है। लता मंगेशकर की याद आती है। मेरा स्टीरियो और गाने हमेशा साथ देते हैं। जोगेंदर भी देखता है कि मैं लेडीज़ सीट पर बैठे आदमियों से हाथ जोड़कर सीटें खाली करवाता हूँ। आप ताज्जुब करेंगे मैं टिकट काटकर सवारी को पैसे लौटाते समय "थैंक्यू" भी कहने लगा हूँ। आखिर हम भी घर परिवार वाले लोग हैं, हमारी भी माँ-बहनें हैं।
मुझे बस एक बात अच्छी नहीं लगती, जब लड़कियाँ "भैया" कहती हैं, "भैया! ज़रा गाड़ी रोकना..." या "भैया! पाँच रूपए की टिकट देना..."। मैंने यह बात को जोगेंदर को बताई तो वह इसका मज़ाक उड़ाने लगा। मैं जानता हूँ, वह मेरी बात नहीं समझेगा। इसके लिए मुझे ही कुछ करना पड़ेगा।
इसलिए मैंने आज लंच के समय गाड़ी में पिछले दरवाज़े के ऊपर पेंट से लिखवा दिया, "ड्राइवर का नाम -शंकर", "कंडक्टर का नाम-जोगेंदर", और अगले दरवाज़े के ऊपर लिखवा दिया, "कृपया चलती गाड़ी से न उतरें... ड्राइवर को भैया न कहें...!"
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Monday, January 21, 2008
हे भगवान! मेरे बेटे को सलामत रखना....!
पिछले हफ़्ते ही मेरा बेटा राजा कनाडा से वापस लौटा। इस बार पूरे तीन साल बाद लौटा। हमारा इकलौता बेटा था, वह कब बड़ा हुआ, कब विदेश जाने के सपने देखने लगा, पता ही नहीं चला। अपने दोस्तों के साथ ही सारा इंतज़ाम कर लिया और जब सब-कुछ तय हो गया, पैसे की ज़रूरत पड़ी, तब हमें बताया। उस रात सब ख़ामोश थे। किसी ने आपस कोई बात नहीं की। राजा के पापा ने रात का खाना भी नहीं खाया। परंतु दूसरे दिन दोपहर तक एक लाख रूपए लाकर रख दिए। इस बात को दस साल हो गए, पर लगता है कल की ही बात है।
दो साल बाद राजा अपने पापा के गुज़रने के बाद आया था। बताया कि वहाँ एक बड़ी फ़ैक्ट्री में माल ढोने वाला ट्रक चलाता है। अच्छी कमाई है। वहीं उसने शादी भी कर ली। मुझसे कहने लगा कि "माँ तू भी चल। वहीं साथ रहेंगे।"
अपना घर-द्वार सब यहीं है। गुज़र-बसर आराम से हो जाती है, ऊपरले दोनों माले के किराएदारों का किराया बराबर आ जाता है। और फिर विदेश का खाना पीना, बोल-चाल कुछ मेरे पल्ले नहीं पड़ता। मैं वहाँ जाकर क्या करती?
इस बार भी साथ ले जाने की जिद कर रहा है। मैंने लाख मना किया पर उसने एक न सुनी। कहता है कि "माँ, वहाँ भी बहुत से मंदिर गुरूद्वारा हैं। तेरा पूजापाठ वहीं हो जाएगा। बस एक बार तू चल।" मैं मज़बूर हो गई। अब तो उम्र भी हो चली है। तबीयत ठीक नहीं रहती और ऊपर से यह घुटना परेशान करता है। अब तो दो रोटी मिल जाए, और क्या चाहिए? मुझे वहाँ के बोलचाल और खान-पान से क्या लेना देना? मैंने भी मन बना लिया।
पड़ोसियों से गले मिलने पर खूब रोना आया। जाने कब लौटना हो। अब इस ज़मीन से नाता खतम। तीन मंज़िल का यह मकान, उसका सारा सामान, थोड़ी बहुत खेती, सब-कुछ औने-पौने दामों में बेच दिया। हवाई जहाज से जाना है कहाँ ढोते फिरेंगे?
दिल्ली का हवाई अड्डा देखा। अरे बाप रे बाप ! इतना बड़ा है! लगता है पूरा शहर इसके अंदर आ जाएगा। कहीं बिछड़ न जाऊँ? मैंने डर कर राजा का हाथ पकड़ लिया।
अंदर एक कुर्सी में मुझे एक जगह बिठाकर राजा टिकट का पता करने चला गया है। हवाई जहाज में सामान पहले जमा करना पड़ता है इसलिए उसे भी ले गया। कह गया "माँ मैं टिकट का पता कर आता हूँ। सामान जमा करने में थोड़ी देर लग सकती है। तू कहीं जइयो मत। यहीं चुप बैठियो।"
इतने सारे भाँति-भाँति के लोग। पता नहीं चलता कि कौन हिंदुस्तानी हैं और कौन विदेशी। लोग अपना एक छोटी हाथगाड़ी से सामान खुद ढो रहे हैं। एक से बढ़कर एक सेठ होंगे, पर लगता है यहाँ कुली करने का रिवाज नहीं है। बहुत देर हो गई है। राजा लौटा नहीं अभी तक।
थोड़ी देर पहले रौबदार मूँछों वाला सिक्योरिटी का आदमी आया और पूछ-ताछ करने लगा। जा रही हूँ बाबा, मुझे क्या यहाँ अपना घर बनाना है? यह कमबख़्त मेरे पीछे ही पड़ गया। लो, अब मुच्छड़ अपने किसी और साथी को ले आया। इसकी बेशरमी देखो, "माँजी" कहकर बात कर रहा है। और राजा अभी तक क्यों नहीं आया? हे भगवान, मेरा राजा कहीं रास्ता तो नहीं भूल गया? इतना बड़ा एरिया है, ज़रूर कहीं रास्ता भूल गया होगा। कहाँ पता करूँ?
इन हवाई अड्डे वालों ने बड़े बदतमीज़ लोग भर्ती कर रखे हैं। सारे नंबर एक के झूठे हैं, कहते हैं, "कनाडा की फ़्लाइट तो कब की चली गई। अब आप अपने घर जाओ!"
हे भगवान! इस दुनिया में राजा के सिवा मेरा कोई नहीं है। मेरे बेटे को सलामत रखना, कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया....!
Thursday, January 17, 2008
भगवान के काम में तेरा एहसान नहीं चाहिए.....!
जय साँईं राम। इस बार पंद्रह दिन के लिए शिरडी जाकर सेवा देने का कार्यक्रम पक्का है। सारी दुनियादारी से दूर पूरे पंद्रह दिन सत्संग और सेवा में बिताने का मौका मिलेगा। सभी ताज्जुब करते हैं कि भाई जवाहर, तुम ऐसा कैसे कर लेते हो? मैं मुस्कुरा देता हूँ। प्रभु की कृपा हो तो हर काम संभव हो जाता है।
मेरा नाम जवाहरलाल शर्मा है। मैं नवगाँव में फ़ील्ड मलेरिया वर्कर हूँ। मैं बचपन से ही धर्म-कर्म में रुचि रखता था। सोचता था बड़ा होकर साधू बनूँगा। परंतु यह गृहस्थ जीवन भी एक तपस्या से कम नहीं है। इसमें रहकर जो अपने कर्तव्यों को पूरा करते हुए, प्रभु का ध्यान करता है वही सबसे बड़ा साधू है।
"शिरडी आने जाने के लिए दीदी से कुछ उधार ले लूँ?" मैंने पत्नी से सलाह मशवरा किया।
"ठीक है, दो तीन महीने में चुका देंगे। पर धरम के काम में उधार लेना ठीक नहीं होता।" पत्नी बोली।
"हाँ, यह तो है।" मेरी पत्नी हमेशा समझदारी की बात करती है। धर्म-कर्म के काम में उधार लेने से उसका पुण्य नहीं मिलता। जिसका पैसा होता है, पुण्य उसके नाम चला जाता है।
मेरे ऑफिस के जी.पी.एफ़. में तो पैसा है ही, पाँच हज़ार निकाल लूँगा। पैसे और समय की समस्या तो हमेशा बनी रहेगी। इसको लेकर दुखी होने से क्या फ़ायदा?
पहले दो छुट्टी और बाद में संडे मिलाकर देखें तो कुल अठारह दिन हो जाते हैं। इसमें पंद्रह दिन की छुट्टी के लिए एकमुश्त ई.एल. (अर्जित अवकाश) लेना पड़ेगा। वैसे ही यह छुट्टियाँ बेकार जा रही हैं, कुछ उपयोग में आ जाएंगी।
मैं कल रात ऑफिस से वापस लौटा।
"क्या बात है, परेशान हो?" पत्नी ने पूछा।
"बाबू पैसा मांगता है। कहता है ई.एल. मंज़ूर कराने का रेट ढाई सौ रूपए है। साहब से मंज़ूर कराना पड़ेगा। मैंने उससे बताया कि मैं धर्म काम के लिए जा रहा हूँ। बार-बार रिक्वेस्ट करने पर अपना पचास रूपया तो छोड़ने के लिए तैयार हो गया है, पर साहब के लिए दो सौ रूपए देना ही पड़ेगा। और जी.पी.एफ़ एडवांस देने का रेट 10 परसेंट है इसलिए पाँच हज़ार रूपए पर 500 तो पहले ही काट लेंगे। हाथ में साढ़े चार हज़ार ही आएगा।"
"फिर क्या हुआ?" पत्नी पूछी।
"फिर क्या, मैं उसकी बात मान गया। उसने नई दरख्वास्त बनवाई। उसमें पत्नी बीमार है लिखवाया। अभी सोचता हूँ तो लगता है कि भगवान के दरबार में जाने के लिए घूस देना गलत है, इससे अच्छा मैं जाने का विचार छोड़ दूँ।" मैं निराशा हो गया।
पत्नी ने खाना परोसते हुए बोली "आप अपना दिल क्यों छोटा करते हैं। इस काम में जो घूस लेता है गलती उसकी है। आपको अपना कार्यक्रम बदलने की ज़रूरत नहीं है। अकेले आपसे थोड़े ही लेते हैं, सबसे लेते हैं। आप यह मानकर चलो कि यह घूस नहीं फ़ीस है।"
बिलकुल सही बात है। मेरे मन का बोझ हलका हो गया। सबके पाप को लेकर मैं अकेला क्यों परेशान होऊँ? कल ही जाकर बाबू को बोलता हूँ कि अपने पचास रूपए भी ले लेना। भगवान के काम में तेरा एहसान नहीं चाहिए.....!
Sunday, January 13, 2008
इतनी समझदारी तो वी.आई.पी. लोगों में होनी ही चाहिए....!
मेरा नाम सत्यनारायण वर्मा है, मंडला के फ़ायर ब्रिगेड स्टेशन में ड्राइवर हूँ। काम बड़े जोखिम का है इसलिए हमारी स्पेशल ट्रेनिंग भी होती है। हमें पूरी तरह से मुस्तैद रहने की ट्रेनिंग दी जाती है। कई बार तो अभ्यास के लिए ड्रिल भी होती है। हमारी ड्यूटी चौबीसो घंटे की होती है, पर भगवान की दया से यहाँ आग लगने की घटनाएँ नहीं होती।
यहाँ फ़ायर ब्रिगेड की दो गाड़ियाँ हैं, जिनमें से एक तो हमेशा चालू हालत में रहती है। यह इमरजेंसी सेवा है न जाने कब ज़रूरत पड़ जाए, इसलिए हमारे स्टाफ को भी साथ रहना होता है। आग लगने का इंतज़ार करते हुए बैठा नहीं जा सकता, इसलिए ज़रूरी काम पड़ने पर हममें से एकाध उसे निपटाने चला जाता है। परंतु हम इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि कम से कम एक आदमी टेलीफ़ोन उठाने के लिए तो मौजूद होना ही चाहिए।
गरमी के दिनों में हमारी ड्यूटी सख्त हो जाती है, दिन में कई-कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। रात को थका मांदा लौटता हूँ तो मेरी घरवाली पूछती है, "कौन सी आग है जो रोज-रोज लग जाती है?"
मेरी पत्नी ही नहीं बल्कि कई लोगों को हमारी ऐसी ड्यूटी से शिकायत है।
पिछले दिनों फ्रिज के शो रूम वाले अग्रवाल साहब नाराज़ हो रहे थे। गाड़ी उनके दुकान के सामने खड़ी थी और रास्ता जाम हो गया था।
"फायर ब्रिगेड की गाड़ी है साहब। इमरजेंसी सेवा।" मैं सफाई देने लगा
"आपको यहाँ रोज-रोज सेवा देनी है तो पिछले रोड से आइए।" अग्रवाल जी झल्लाए।
"हम भी क्या करें साहब, विधायक जी का घर है, इसलिए आना पड़ता है।" मैंने सफाई दी।
"विधायक जी से कहो, उनकी मोटर हम ठीक करवा देंगे।"
"तो आप ही ठीक करवा दो, हमें भी रोज-रोज की झंझट से छुट्टी मिले...." मैं भी चिढ़ गया। आज यह हालत है हमारी, कि अग्रवाल हमारी गाड़ी के रास्ते पर रोक लगाएगा। हम फायर ब्रिगेड वाले हैं, ज़रूरत होगी तो तुम्हारे घर के अंदर घुस सकते हैं।
मुझे विधायक जी पर भी गुस्सा आता है। माना कि गरमी में पानी की तंगी होती है। कभी बिजली गोल तो कभी मोटर खराब हो जाती है। आपके घर की मोटर खराब है तो पानी का टैंकर मंगाइए। नगरनिगम वाले इसी काम के लिए हैं और वो बराबर वी.आई.पी. ड्यूटी में लगे रहते हैं। इतनी समझदारी तो वी.आई.पी. लोगों में होनी ही चाहिए....
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