Monday, January 21, 2008
हे भगवान! मेरे बेटे को सलामत रखना....!
पिछले हफ़्ते ही मेरा बेटा राजा कनाडा से वापस लौटा। इस बार पूरे तीन साल बाद लौटा। हमारा इकलौता बेटा था, वह कब बड़ा हुआ, कब विदेश जाने के सपने देखने लगा, पता ही नहीं चला। अपने दोस्तों के साथ ही सारा इंतज़ाम कर लिया और जब सब-कुछ तय हो गया, पैसे की ज़रूरत पड़ी, तब हमें बताया। उस रात सब ख़ामोश थे। किसी ने आपस कोई बात नहीं की। राजा के पापा ने रात का खाना भी नहीं खाया। परंतु दूसरे दिन दोपहर तक एक लाख रूपए लाकर रख दिए। इस बात को दस साल हो गए, पर लगता है कल की ही बात है।
दो साल बाद राजा अपने पापा के गुज़रने के बाद आया था। बताया कि वहाँ एक बड़ी फ़ैक्ट्री में माल ढोने वाला ट्रक चलाता है। अच्छी कमाई है। वहीं उसने शादी भी कर ली। मुझसे कहने लगा कि "माँ तू भी चल। वहीं साथ रहेंगे।"
अपना घर-द्वार सब यहीं है। गुज़र-बसर आराम से हो जाती है, ऊपरले दोनों माले के किराएदारों का किराया बराबर आ जाता है। और फिर विदेश का खाना पीना, बोल-चाल कुछ मेरे पल्ले नहीं पड़ता। मैं वहाँ जाकर क्या करती?
इस बार भी साथ ले जाने की जिद कर रहा है। मैंने लाख मना किया पर उसने एक न सुनी। कहता है कि "माँ, वहाँ भी बहुत से मंदिर गुरूद्वारा हैं। तेरा पूजापाठ वहीं हो जाएगा। बस एक बार तू चल।" मैं मज़बूर हो गई। अब तो उम्र भी हो चली है। तबीयत ठीक नहीं रहती और ऊपर से यह घुटना परेशान करता है। अब तो दो रोटी मिल जाए, और क्या चाहिए? मुझे वहाँ के बोलचाल और खान-पान से क्या लेना देना? मैंने भी मन बना लिया।
पड़ोसियों से गले मिलने पर खूब रोना आया। जाने कब लौटना हो। अब इस ज़मीन से नाता खतम। तीन मंज़िल का यह मकान, उसका सारा सामान, थोड़ी बहुत खेती, सब-कुछ औने-पौने दामों में बेच दिया। हवाई जहाज से जाना है कहाँ ढोते फिरेंगे?
दिल्ली का हवाई अड्डा देखा। अरे बाप रे बाप ! इतना बड़ा है! लगता है पूरा शहर इसके अंदर आ जाएगा। कहीं बिछड़ न जाऊँ? मैंने डर कर राजा का हाथ पकड़ लिया।
अंदर एक कुर्सी में मुझे एक जगह बिठाकर राजा टिकट का पता करने चला गया है। हवाई जहाज में सामान पहले जमा करना पड़ता है इसलिए उसे भी ले गया। कह गया "माँ मैं टिकट का पता कर आता हूँ। सामान जमा करने में थोड़ी देर लग सकती है। तू कहीं जइयो मत। यहीं चुप बैठियो।"
इतने सारे भाँति-भाँति के लोग। पता नहीं चलता कि कौन हिंदुस्तानी हैं और कौन विदेशी। लोग अपना एक छोटी हाथगाड़ी से सामान खुद ढो रहे हैं। एक से बढ़कर एक सेठ होंगे, पर लगता है यहाँ कुली करने का रिवाज नहीं है। बहुत देर हो गई है। राजा लौटा नहीं अभी तक।
थोड़ी देर पहले रौबदार मूँछों वाला सिक्योरिटी का आदमी आया और पूछ-ताछ करने लगा। जा रही हूँ बाबा, मुझे क्या यहाँ अपना घर बनाना है? यह कमबख़्त मेरे पीछे ही पड़ गया। लो, अब मुच्छड़ अपने किसी और साथी को ले आया। इसकी बेशरमी देखो, "माँजी" कहकर बात कर रहा है। और राजा अभी तक क्यों नहीं आया? हे भगवान, मेरा राजा कहीं रास्ता तो नहीं भूल गया? इतना बड़ा एरिया है, ज़रूर कहीं रास्ता भूल गया होगा। कहाँ पता करूँ?
इन हवाई अड्डे वालों ने बड़े बदतमीज़ लोग भर्ती कर रखे हैं। सारे नंबर एक के झूठे हैं, कहते हैं, "कनाडा की फ़्लाइट तो कब की चली गई। अब आप अपने घर जाओ!"
हे भगवान! इस दुनिया में राजा के सिवा मेरा कोई नहीं है। मेरे बेटे को सलामत रखना, कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया....!
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5 comments:
बहुत मर्मांतक कहानी है ।
घुघूती बासूती
क्या बात है! धक्क रह गया दिल. मैं इस औरत से मिला हूँ. २००२ के प्रयाग महाकुम्भ में, जब वह अलसुबह गंगा में डुबकी लगाकर गोल घूम रही थी और फिर अपने बेटे से भटक गई थी. मैं उससे भोले भटके लोगों के बाड़े में मिला था. मज़ेदार बात ये है कि तब मैंने उसकी तुलना एयरपोर्ट से ही की थी. लोग बिछड़ रहे थे, मिल रहे थे, हंस रहे थे, रो रहे थे, कई बिल्कुल खोये हुए थे. एक अखबार के लिए रिपोर्टिंग करते वक्त हेमवती नंदन बहुगुणा के बेटे (तब श्रीमती बहुगुणा और उनका बेटा चलाते थे. हमेशा बहुगुणा परिवार ही चलता है शायद!) ने मुझे बताया था कि ऐसा कई बार हुआ है कि लोग अपनी माओं को संगम पर मरने के छोड़ आते हैं. लिखते रहो आनंद.
यह क्या है जी। पोस्ट दो बार पढ़ गया। आदमी की हैवानियत पर यकीन नहीं हुआ एक बार तो।
हे भगवान। आने वाली पीढ़ी को सद्बुद्धि मिले और क्या कह सकता हूं।
शब्दविहिन...हद हो गई!!
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