Friday, October 24, 2014

पुतले हैं तो क्‍या हुआ





चिंता की कोई बात नहीं है। ज़ंजीर में इंसान नहीं पुतले हैं और यह फोटो अफगानिस्‍तान की नहीं, उत्तमनगर दिल्‍ली की है।


उस दिन में उत्तमनगर की गलियों में भटक रहा था। अचानक एक दुकान में दो-तीन पुतले दिखाई दिए। वैसे तो वे बड़े सुंदर थे, परंतु शायद कैद में रहने के कारण उनके चेहरे के एक्‍सप्रेशन कह रहे थे - हेल्‍प मी, प्‍लीज़..., हमें यहाँ से निकालो... ।

वे नहीं जानते थे कि ये बंधन उनकी सुरक्षा के लिए हैं। उनका मालिक उन्‍हें बहुत प्‍यार करता है, इसलिए। कमबख्‍त कोई कानूनी धारा भी नहीं है, जो उनका प्रोटेक्‍शन कर सके। यूँ भी यह उनका घरेलू मामला था और हमारा हस्‍तक्षेप बनता नहीं था।

फिर भी... अचानक लगता है कि कुछ करना चाहिए था...

Sunday, October 19, 2014

चूजा फॉर सेल



पड़ोस में बच्‍चे ने एक चूजा पाल लिया।

 मेरी बच्‍ची अपनी रिमोट कंट्रोल कार फेंककर उस चूजे के साथ खेलने लगी।

 साढ़े पाँच सौ रूपए की खिलौना कार बच्‍चे को लुभा नहीं पाई, और इस बीस रूपए के चूजे के आगे हार गई। 

दुख नहीं हुआ, खुशी हुई.... अपने बच्‍चे की च्‍वाइस देखकर।

 हमें बच्‍चों को और समझने की, उनसे सीखने की जरूरत है।


 

Sunday, October 5, 2014

राजीव गांधी आज बहुत याद आए....!



"ठहर भई, एक मिनट रुक कर दुआ सलाम तो कर ले।" मैंने उसकी बांह थामी।

मैं बड़ी देर से बुला रहा था, हाथ से इशारे कर रहा था, पर वह व्‍यस्‍तता का दिखावा कर रहा था, दिखा रहा था कि बड़ी जल्‍दबाजी में है। मैंने आखिर उसे पकड़कर अपने पास बिठा लिया, "क्‍या बात है बहुत बिजी चल रहा है।"

"हाँ, आप तो जानते हैं ये काम ही ऐसा है...।"

जो नए पाठक हैं, उन्‍हें मैं अपना परिचय दे देता हूँ। मैं डॉ.आर.के. त्रिपाठी, एक कृषि विज्ञान केंद्र, हरदोई का इंचार्ज हूँ। आप जानते होंगे, सरकार ने खेती को बढ़ावा देने के लिए हर जिले में के.वी.के. बनाए हैं, के.वी.के. यानि कृषि विज्ञान केंद्र। वैसे तो कृषि विभाग राज्‍य सरकारों के अधीन है। एक  अच्‍छा खासा महकमा है जो कृषि विकास करता है, पर एक से भले दो होते हैं। केंद्र सरकार ने हमें भी कमोबेश इसी काम के लिए तैनात कर दिया। हमारा काम ज़रा साइंटिफिक टाइप का है। हमारे स्‍टाफ में अलग-अलग विशेषज्ञ भी मौजूद होते हैं। इसलिए हम ज्‍यादातर ट्रेनिंग का काम देखते हैं।

मैंने अभी जिस शख्‍स को थामा था, वह कृषि विभाग में ए.डी.ओ. है - डी.पी. ठाकुर। उससे मेरा याराना है। पिछले साल तक सब ठीक था। वह बोला करता था, "डॉक्‍टर साहेब, ये ट्रेनिंग वगैरह का काम बड़े झंझट का होता है, इसे आप ही संभाला करो।" पर इस साल उसके सुर बदल गए थे।

खरीफ और रबी मौसम शुरू होने से पहले किसानों को ट्रेनिंग दी जाती है। यह अमूमन बुआई शुरू होने से पहले आयोजित होती है। कृषि विभाग के अफसर ट्रेनिंग का खर्चा चालीस हजार रुपए और पचास-साठ किसानों की सूची हमें के.वी.के. को थमाकर बेफिक्र हो जाते। हल्‍दी फिटकरी के बिना ही उनका पूरा रंग जम जाता।

इस साल अजीब घटना हुई, विभाग ने ट्रेनिंग हमें नहीं सौंपी। डी.पी. ने बताया "नए डी.डी.ओ. आए हैं, बड़े कड़क हैं। नहीं चाहते कि किसी काम में कोई कमी रह जाए।"

मैं समझ सकता था, आजकल के नए-नए अफसर, उनके अपने तरीके होते हैं। उन्‍हें लगता होगा कि शायद वे यह कार्यक्रम बेहतर तरीके से कर सकते हैं। अच्‍छा है, खुद करके देखेंगे तो पता चलेगा।

आज ट्रेनिंग के उद्घाटन में बतौर मेहमान मैं भी शरीक हुआ था। वहाँ का हाल देखकर सिर पीट लिया। ऐसे कहीं ट्रेनिंग होती है? मुश्किल से दस-पंद्रह किसान, आधे घंटे तक भाषणबाजी और कार्यक्रम समाप्त। ट्रेनिंग समाप्‍त। मैंने आंखों ही आंखों में ठाकुर से पूछा, "यह क्‍या तमाशा है?" वह कतराकर निकल रहा था।

आखिरकार मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसे कंधा पकड़कर थाम लिया, "भई, एक मिनट बैठ और बता, माजरा क्‍या है? यह कोई ट्रेनिंग हैं? न किसान, न कोई लेक्‍चर, न रीडिंग मटेरियल। चाय, नाश्‍ता लंच डिनर, बस्‍ता कुछ नहीं? ये हो क्‍या रहा है?"

वह बोला, "डॉक्‍टर साब, आप तो जानते हो, बजट चालीस हजार मिलता है।"

"तो?"

"इसमें से फिफ्टी परसेंट, यानी बीस हजार डी.डी.ए. साब ने रख लिए। बचे बीस, उसमें से फिफ्टी परसेंट यानी दस हजार ट्रेज़री बाबू ने रख लिए।"

"ट्रेज़री बाबू ने?उसने क्‍यों"

"आखिर उसे पूरा सैटलमैंट जो बनाना है। अब बचे दस हजार, तो पाँच पर मेरा भी हक बनता है। अब यह कुल मिलाकर पाँच हजार बचे हैं, इसी में ट्रेनिंग करानी है, बताइए, कैसे कराऊँ?"

मैं कुछ देर चुप रहा, फिर कहा "ठीक है भाई, पाँच हजार के हिसाब से यह कार्यक्रम ठीक है।"

"आप बैठो, मैं बाद में मिलता हूँ।" कहकर वह चला गया।

पाँच-दस परसेंट नहीं पूरे फिफ्टी परसेंट का घोटाला। कमाल है! मेरा दिमाग इस फिफ्टी-फिफ्टी पर उलझ कर रह गया। कितना पक्‍का हिसाब है। पैसा जितने हाथों से गुजरता है, उतने हाथों से बिलकुल आधा-आधा होता जाता है।

कुल मिलाकर कितना पैसा यूज़ हुआ... बीस हजार यानी पचास प्रतिशत... तो पाँच हजार हुए साढ़े बारह प्रतिशत। मतलब कि असल में कुल रकम का साढ़े बारह प्रतिशत ही इस्‍तेमाल किया जाता है, बाकी जेब में। यह आंकड़ा जाना-पहचाना लगा। याद आया, बहुत पहले राजीव गांधी ने कहा था, केवल पंद्रह प्रतिशत पैसा नीचे तक पहुँचता है। साढ़े बारह और पंद्रह में ज्‍यादा अंतर नहीं है। आज राजीव गांधी बहुत याद आया, जो भी हो वह आदमी होशियार था, पट्ठा पूरी खबर रखता था।
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