Tuesday, January 29, 2008

कृपया चलती गाड़ी से न उतरें....!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


पिछले हफ़्ते हमारी बस का स्‍टीरियो फिर खराब हो गया था। कई दिनों तक उसे ठीक करवाने का टाइम नहीं मिला। परसों लंच टाइम में पहले स्‍टीरियो ठीक करवाया फिर लंच किया। जोगेंदर जल्‍दी मचाने लगा तो लंच आधे में छोड़ना पड़ा। कंपीटीशन के चक्‍कर में आजकल अपना खाना-पीना सब हराम हो गया है।

दस दिन पहले ऐसे ही आगे निकलने के कारण बदरपुर में दो बसें आपस में भिड़ गईं और दो साइकिल सवार कुचल गए। बस, तब से लेकर आज तक अख़बारों में रोज़ हेडिंग आती, "आज ब्‍लूलाइन ने 4 को शिकार बनाया", "आज 2 को शिकार बनाया"। ऐसा लगता है ब्‍लूलाइन बस न हुई, राक्षस हो गई और राह चलते लोगों को पकड़-पकड़ कर खाने लगी। अरे मैं पूछता हूँ लोग यह क्‍यों नहीं छापते कि आज ब्‍लूलाइन ने पाँच हज़ार या दस हज़ार लोगों को सही सलामत घर पहुँचाया।

ठहरिए, मैं यह बताना ही भूल ही गया कि मेरा नाम शंकर है, ब्‍लूलाइन का ड्राइवर और कंडक्‍टर दोनों हूँ। मैं और मेरा दोस्‍त जोगेंदर रूट नंबर 725 में चलते हैं। गाड़ी कभी मैं चलाता हूँ, तो कभी जोगेंदर चला लेता है। मालिक को रोज़ के तीन हज़ार रूपए दो, बाक़ी वह और हिसाब नहीं पूछता। हमने साफ कह दिया है, हमें रोज की झिक-झिक पसंद नहीं। उसने ट्रैफिक वालों की पक्‍की सेटिंग कर रखी है, इसलिए हमें कोई दिक्‍कत भी नहीं होती।

सबेरे का समय अच्‍छा होता है। ज़्यादा ट्रैफिक नहीं होता। सवारियाँ भी नहाई-धोई होती हैं, हम भी अच्‍छे मूड में होते हैं। तब मैं अपना स्‍टीरियो ज़रूर बजाता हूँ। किशोर कुमार के गाने, "पल भर के लिए कोई हमें प्‍यार कर ले, झूठा ही सही...!"

लोग कहते हैं, ब्‍लूलाइन बस के कंडक्‍टर बदतमीज होते हैं, सवारी से सीधे मुँह बात नहीं करते। कहना है तो कुछ भी कहो, हम मुँह थोड़े ही पकड़ सकते हैं। आप हमसे सबेरे के समय मिलिए। आपको सब पता चल जाएगा। आप, जनाब और साहब के सिवा आप हमसे कोई दूसरा शब्‍द नहीं सुन सकते। मेरे मुँह से "मेरे माई बाप, लेडिज़ को सीट दे दो... मेरी सीट पर आ जाओ..." सुनकर जोगेंदर भी कभी-कभी अचरज करता है कि शंकर इतना सलीकेदार कैसे हो गया? यह सब संगीत का कमाल है... किशोर कुमार का कमाल है।

शाम को पाँच बजे शादीपुर स्‍टैंड से तीन चार लड़कियाँ बस पर चढ़ती हैं। यह रोज़ की सवारी हैं। इनके आने से पूरी थकावट दूर हो जाती है। फिर किशोर कुमार की याद आती है। लता मंगेशकर की याद आती है। मेरा स्‍टीरियो और गाने हमेशा साथ देते हैं। जोगेंदर भी देखता है कि मैं लेडीज़ सीट पर बैठे आदमियों से हाथ जोड़कर सीटें खाली करवाता हूँ। आप ताज्‍जुब करेंगे मैं टिकट काटकर सवारी को पैसे लौटाते समय "थैंक्‍यू" भी कहने लगा हूँ। आखिर हम भी घर परिवार वाले लोग हैं, हमारी भी माँ-बहनें हैं।

मुझे बस एक बात अच्‍छी नहीं लगती, जब लड़कियाँ "भैया" कहती हैं, "भैया! ज़रा गाड़ी रोकना..." या "भैया! पाँच रूपए की टिकट देना..."। मैंने यह बात को जोगेंदर को बताई तो वह इसका मज़ाक उड़ाने लगा। मैं जानता हूँ, वह मेरी बात नहीं समझेगा। इसके लिए मुझे ही कुछ करना पड़ेगा।

इसलिए मैंने आज लंच के समय गाड़ी में पिछले दरवाज़े के ऊपर पेंट से लिखवा दिया, "ड्राइवर का नाम -शंकर", "कंडक्‍टर का नाम-जोगेंदर", और अगले दरवाज़े के ऊपर लिखवा दिया, "कृपया चलती गाड़ी से न उतरें... ड्राइवर को भैया न कहें...!"

Monday, January 21, 2008

हे भगवान! मेरे बेटे को सलामत रखना....!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


पिछले हफ़्ते ही मेरा बेटा राजा कनाडा से वापस लौटा। इस बार पूरे तीन साल बाद लौटा। हमारा इकलौता बेटा था, वह कब बड़ा हुआ, कब विदेश जाने के सपने देखने लगा, पता ही नहीं चला। अपने दोस्‍तों के साथ ही सारा इंतज़ाम कर लिया और जब सब-कुछ तय हो गया, पैसे की ज़रूरत पड़ी, तब हमें बताया। उस रात सब ख़ामोश थे। किसी ने आपस कोई बात नहीं की। राजा के पापा ने रात का खाना भी नहीं खाया। परंतु दूसरे दिन दोपहर तक एक लाख रूपए लाकर रख दिए। इस बात को दस साल हो गए, पर लगता है कल की ही बात है।

दो साल बाद राजा अपने पापा के गुज़रने के बाद आया था। बताया कि वहाँ एक बड़ी फ़ैक्‍ट्री में माल ढोने वाला ट्रक चलाता है। अच्‍छी कमाई है। वहीं उसने शादी भी कर ली। मुझसे कहने लगा कि "माँ तू भी चल। वहीं साथ रहेंगे।"

अपना घर-द्वार सब यहीं है। गुज़र-बसर आराम से हो जाती है, ऊपरले दोनों माले के किराएदारों का किराया बराबर आ जाता है। और फिर विदेश का खाना पीना, बोल-चाल कुछ मेरे पल्‍ले नहीं पड़ता। मैं वहाँ जाकर क्‍या करती?

इस बार भी साथ ले जाने की जिद कर रहा है। मैंने लाख मना किया पर उसने एक न सुनी। कहता है कि "माँ, वहाँ भी बहुत से मंदिर गुरूद्वारा हैं। तेरा पूजापाठ वहीं हो जाएगा। बस एक बार तू चल।" मैं मज़बूर हो गई। अब तो उम्र भी हो चली है। तबीयत ठीक नहीं रहती और ऊपर से यह घुटना परेशान करता है। अब तो दो रोटी मिल जाए, और क्‍या चाहिए? मुझे वहाँ के बोलचाल और खान-पान से क्‍या लेना देना? मैंने भी मन बना लिया।

पड़ोसियों से गले मिलने पर खूब रोना आया। जाने कब लौटना हो। अब इस ज़मीन से नाता खतम। तीन मंज़ि‍ल का यह मकान, उसका सारा सामान, थोड़ी बहुत खेती, सब-कुछ औने-पौने दामों में बेच दिया। हवाई जहाज से जाना है कहाँ ढोते फिरेंगे?

दिल्‍ली का हवाई अड्डा देखा। अरे बाप रे बाप ! इतना बड़ा है! लगता है पूरा शहर इसके अंदर आ जाएगा। कहीं बिछड़ न जाऊँ? मैंने डर कर राजा का हाथ पकड़ लिया।

अंदर एक कुर्सी में मुझे एक जगह बिठाकर राजा टिकट का पता करने चला गया है। हवाई जहाज में सामान पहले जमा करना पड़ता है इसलिए उसे भी ले गया। कह गया "माँ मैं टिकट का पता कर आता हूँ। सामान जमा करने में थोड़ी देर लग सकती है। तू कहीं जइयो मत। यहीं चुप बैठियो।"

इतने सारे भाँति-भाँति के लोग। पता नहीं चलता कि कौन हिंदुस्‍तानी हैं और कौन विदेशी। लोग अपना एक छोटी हाथगाड़ी से सामान खुद ढो रहे हैं। एक से बढ़कर एक सेठ होंगे, पर लगता है यहाँ कुली करने का रिवाज नहीं है। बहुत देर हो गई है। राजा लौटा नहीं अभी तक।

थोड़ी देर पहले रौबदार मूँछों वाला सिक्‍योरिटी का आदमी आया और पूछ-ताछ करने लगा। जा रही हूँ बाबा, मुझे क्‍या यहाँ अपना घर बनाना है? यह कमबख़्त मेरे पीछे ही पड़ गया। लो, अब मुच्‍छड़ अपने किसी और साथी को ले आया। इसकी बेशरमी देखो, "माँजी" कहकर बात कर रहा है। और राजा अभी तक क्‍यों नहीं आया? हे भगवान, मेरा राजा कहीं रास्‍ता तो नहीं भूल गया? इतना बड़ा एरिया है, ज़रूर कहीं रास्‍ता भूल गया होगा। कहाँ पता करूँ?

इन हवाई अड्डे वालों ने बड़े बदतमीज़ लोग भर्ती कर रखे हैं। सारे नंबर एक के झूठे हैं, कहते हैं, "कनाडा की फ़्लाइट तो कब की चली गई। अब आप अपने घर जाओ!"

हे भगवान! इस दुनिया में राजा के सिवा मेरा कोई नहीं है। मेरे बेटे को सलामत रखना, कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया....!

Thursday, January 17, 2008

भगवान के काम में तेरा एहसान नहीं चाहिए.....!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


जय साँईं राम। इस बार पंद्रह दिन के लिए शिरडी जाकर सेवा देने का कार्यक्रम पक्‍का है। सारी दुनियादारी से दूर पूरे पंद्रह दिन सत्‍संग और सेवा में बिताने का मौका मिलेगा। सभी ताज्‍जुब करते हैं कि भाई जवाहर, तुम ऐसा कैसे कर लेते हो? मैं मुस्‍कुरा देता हूँ। प्रभु की कृपा हो तो हर काम संभव हो जाता है।

मेरा नाम जवाहरलाल शर्मा है। मैं नवगाँव में फ़ील्‍ड मलेरिया वर्कर हूँ। मैं बचपन से ही धर्म-कर्म में रुचि रखता था। सोचता था बड़ा होकर साधू बनूँगा। परंतु यह गृहस्‍थ जीवन भी एक तपस्‍या से कम नहीं है। इसमें रहकर जो अपने कर्तव्‍यों को पूरा करते हुए, प्रभु का ध्‍यान करता है वही सबसे बड़ा साधू है।

"शिरडी आने जाने के लिए दीदी से कुछ उधार ले लूँ?" मैंने पत्‍नी से सलाह मशवरा किया।

"ठीक है, दो तीन महीने में चुका देंगे। पर धरम के काम में उधार लेना ठीक नहीं होता।" पत्‍नी बोली।

"हाँ, यह तो है।" मेरी पत्‍नी हमेशा समझदारी की बात करती है। धर्म-कर्म के काम में उधार लेने से उसका पुण्‍य नहीं मिलता। जिसका पैसा होता है, पुण्‍य उसके नाम चला जाता है।

मेरे ऑफिस के जी.पी.एफ़. में तो पैसा है ही, पाँच हज़ार निकाल लूँगा। पैसे और समय की समस्‍या तो हमेशा बनी रहेगी। इसको लेकर दुखी होने से क्‍या फ़ायदा?

पहले दो छुट्टी और बाद में संडे मिलाकर देखें तो कुल अठारह दिन हो जाते हैं। इसमें पंद्रह दिन की छुट्टी के लिए एकमुश्‍त ई.एल. (अर्जित अवकाश) लेना पड़ेगा। वैसे ही यह छुट्टियाँ बेकार जा रही हैं, कुछ उपयोग में आ जाएंगी।

मैं कल रात ऑफिस से वापस लौटा।

"क्‍या बात है, परेशान हो?" पत्‍नी ने पूछा।

"बाबू पैसा मांगता है। कहता है ई.एल. मंज़ूर कराने का रेट ढाई सौ रूपए है। साहब से मंज़ूर कराना पड़ेगा। मैंने उससे बताया कि मैं धर्म काम के लिए जा रहा हूँ। बार-बार रिक्‍वेस्‍ट करने पर अपना पचास रूपया तो छोड़ने के लिए तैयार हो गया है, पर साहब के लिए दो सौ रूपए देना ही पड़ेगा। और जी.पी.एफ़ एडवांस देने का रेट 10 परसेंट है इसलिए पाँच हज़ार रूपए पर 500 तो पहले ही काट लेंगे। हाथ में साढ़े चार हज़ार ही आएगा।"

"फिर क्‍या हुआ?" पत्‍नी पूछी।

"फिर क्‍या, मैं उसकी बात मान गया। उसने नई दरख्‍वास्‍त बनवाई। उसमें पत्‍नी बीमार है लिखवाया। अभी सोचता हूँ तो लगता है कि भगवान के दरबार में जाने के लिए घूस देना गलत है, इससे अच्‍छा मैं जाने का विचार छोड़ दूँ।" मैं निराशा हो गया।

पत्‍नी ने खाना परोसते हुए बोली "आप अपना दिल क्‍यों छोटा करते हैं। इस काम में जो घूस लेता है गलती उसकी है। आपको अपना कार्यक्रम बदलने की ज़रूरत नहीं है। अकेले आपसे थोड़े ही लेते हैं, सबसे लेते हैं। आप यह मानकर चलो कि यह घूस नहीं फ़ीस है।"

बिलकुल सही बात है। मेरे मन का बोझ हलका हो गया। सबके पाप को लेकर मैं अकेला क्‍यों परेशान होऊँ? कल ही जाकर बाबू को बोलता हूँ कि अपने पचास रूपए भी ले लेना। भगवान के काम में तेरा एहसान नहीं चाहिए.....!

Sunday, January 13, 2008

इतनी समझदारी तो वी.आई.पी. लोगों में होनी ही चाहिए....!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


मेरा नाम सत्‍यनारायण वर्मा है, मंडला के फ़ायर ब्रिगेड स्‍टेशन में ड्राइवर हूँ। काम बड़े जोखिम का है इसलिए हमारी स्‍पेशल ट्रेनिंग भी होती है। हमें पूरी तरह से मुस्‍तैद रहने की ट्रेनिंग दी जाती है। कई बार तो अभ्‍यास के लिए ड्रिल भी होती है। हमारी ड्यूटी चौबीसो घंटे की होती है, पर भगवान की दया से यहाँ आग लगने की घटनाएँ नहीं होती।

यहाँ फ़ायर ब्रिगेड की दो गाड़ि‍याँ हैं, जिनमें से एक तो हमेशा चालू हालत में रहती है। यह इमरजेंसी सेवा है न जाने कब ज़रूरत पड़ जाए, इसलिए हमारे स्‍टाफ को भी साथ रहना होता है। आग लगने का इंतज़ार करते हुए बैठा नहीं जा सकता, इसलिए ज़रूरी काम पड़ने पर हममें से एकाध उसे निपटाने चला जाता है। परंतु हम इस बात का पूरा ध्‍यान रखते हैं कि कम से कम एक आदमी टेलीफ़ोन उठाने के लिए तो मौजूद होना ही चाहिए।

गरमी के दिनों में हमारी ड्यूटी सख्‍त हो जाती है, दिन में कई-कई चक्‍कर लगाने पड़ते हैं। रात को थका मांदा लौटता हूँ तो मेरी घरवाली पूछती है, "कौन सी आग है जो रोज-रोज लग जाती है?"

मेरी पत्‍नी ही नहीं बल्कि कई लोगों को हमारी ऐसी ड्यूटी से शिकायत है।

पिछले दिनों फ्रिज के शो रूम वाले अग्रवाल साहब नाराज़ हो रहे थे। गाड़ी उनके दुकान के सामने खड़ी थी और रास्‍ता जाम हो गया था।

"फायर ब्रिगेड की गाड़ी है साहब। इमरजेंसी सेवा।" मैं सफाई देने लगा

"आपको यहाँ रोज-रोज सेवा देनी है तो पिछले रोड से आइए।" अग्रवाल जी झल्‍लाए।

"हम भी क्‍या करें साहब, विधायक जी का घर है, इसलिए आना पड़ता है।" मैंने सफाई दी।

"विधायक जी से कहो, उनकी मोटर हम ठीक करवा देंगे।"

"तो आप ही ठीक करवा दो, हमें भी रोज-रोज की झंझट से छुट्टी मिले...." मैं भी चिढ़ गया। आज यह हालत है हमारी, कि अग्रवाल हमारी गाड़ी के रास्‍ते पर रोक लगाएगा। हम फायर ब्रिगेड वाले हैं, ज़रूरत होगी तो तुम्‍हारे घर के अंदर घुस सकते हैं।

मुझे विधायक जी पर भी गुस्‍सा आता है। माना कि गरमी में पानी की तंगी होती है। कभी बिजली गोल तो कभी मोटर खराब हो जाती है। आपके घर की मोटर खराब है तो पानी का टैंकर मंगाइए। नगरनिगम वाले इसी काम के लिए हैं और वो बराबर वी.आई.पी. ड्यूटी में लगे रहते हैं। इतनी समझदारी तो वी.आई.पी. लोगों में होनी ही चाहिए....