Sunday, December 16, 2007
आधिकारिक आदेशों पर तुरंत कार्रवाई करो_______!
आज हमारे प्रकाशन विभाग में एक पत्र आया कि दीपावली मेले में दो दिन की प्रदर्शनी लगने वाली है, उसमें अपने प्रकाशन का स्टॉल लगाना है और किताबें प्रदर्शित करनी है। पत्र इंचार्ज के नाम आया और उन्होंने आवश्यक कार्रवाई के लिए मेरे पास भेज दिया। किसी प्रदर्शनी में अपना स्टॉल लगाने का मतलब है पूरा सिरदर्द।
इसमें क्या कम काम होता है? किताबों के संदूक लिए वहाँ जाना, सारा कुछ खुद ही ढोना। दिन भर की ड्यूटी और किताबों का हिसाब किताब। चाय पीने, पेशाब करने का भी समय नहीं मिल पाता। पता नहीं रूकने और खाने की व्यवस्था है या सब अपने जेब से ही करनी पड़ेगी। पैसा देकर किताबें कोई खरीदना नहीं चाहेगा और फ्री का सैकड़ों कैटलॉग खराब हो जाएंगे।
पहले मैं अपना परिचय दे देता हूँ। मेरा नाम सूबेदार सिंह है, परंतु मेरे पूरे नाम से बहुत कम लोग जानते हैं। जबकि आप एस.डी. सिंह जी को पूछें तो यहाँ हर कोई बता देगा। मैं यहाँ इंदौर कृषि विश्वविद्यालय के सूचना और प्रकाशन विभाग में काम करता हूँ। हमारे विभाग का मुख्य काम रिपोर्टों, पत्र-पत्रिकाओं, कृषि संबंधी बुलेटिनों का प्रकाशन करना है। प्रकाशन के काम में जो लोग प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं वही लोग इस काम की गंभीरता, इसकी मुश्किलों को समझ सकते हैं, वरना आम लोगों को यह बड़े आराम का काम लगता है।
अभी पिछले माह ही कुलपति महोदय ने आदेश जारी किया कि हमारा विश्वविद्यालय अपने प्रकाशन विभाग को सार्वजनिक मेलों तथा समारोहों में भी भेजेगा। इससे लोगों को हमारी गतिविधियों की जानकारी होगी, साहित्य की बिक्री होगी, संस्थान का प्रचार-प्रसार होगा, कृषकों का कल्याण होगा, राजस्व आएगा, विजिबिलिटी बढ़ेगी.....। मतलब यह कि हम अपना संदूक उठा-उठाकर जगह जगह घूमें और तंबू लगाएँ। बस ठेला लेकर गली-गली फेरी लगाने की कसर रह गई है।
अब पत्र आया था तो आवश्यक कार्रवाई करनी ही थी। मैं दीवाली मेले के संयोजक यादव जी के पास मिलने गया।
"मैं इंदौर कृषि विश्वविद्यालय से आया हूँ। आपने पत्र दिया था स्टॉल लगाने के लिए। हाँ वही, बहुत शुक्रिया कि आपने मेले में बुलाया। इसी बारे में कुछ जानकारी चाहिए। बस पाँच मिनट आपका लूँगा।" मैं उनसे बड़ी गर्मजोशी से मिला।
"ज़रूर जी। धन्यवाद तो आपका है, जो आप हमारे पास आए। बताइए क्या सेवा करें?" यादव जी भी विनम्र हो गए।
"स्टॉल लगाने का चार्ज भी कुछ लेते हैं?" मैंने पूछा।
"चार्ज तो है। पर आप कृषि यूनिवर्सिटी वालों से कुछ नहीं लेंगे। आप लोग वैसे ही आ जाइए। हम चार्ज प्राइवेट कंपनियों से लेंगे।"
"हमारे तीन आदमी होंगे। उनके रूकने की व्यवस्था क्या होगी?"
"अजी रूकना क्या है, सुबह मेला शुरू है, शाम को बंद। दिन भर मेले में रहिए और शाम को अपने घर में लौट जाइए।"
"आप कह तो ठीक रहे हैं, पर मेला बंद होते होते रात के आठ-नौ बज जाएंगे और सामान लेकर हमारे आदमी कहाँ परेशान होंगे। तो उनके रूकने की व्यवस्था तो होनी ही चाहिए।"
"हाँ आपकी बात भी सही है।" यादव जी थोड़ा नीचे उतरे।
"भोजन की व्यवस्था आपकी ओर से कुछ है?" मैं कुछ आगे बढ़ा।
"वहाँ फूड स्टॉल होंगे, वहाँ आपके आदमी भोजन कर सकते हैं।
"उसके पैसे तो देने पड़ेंगे ना।"
"जी हाँ, वो तो है। हमारी ओर से कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है।" यादव जी कुछ और नीचे उतर गए।
"हमारे पास किताबों के संदूक होंगे तो उसके लिए कोई गाड़ी चाहिए। कुछ इंतज़ाम हो सकता है कि सुबह ले आएँ और शाम को छोड़ आएँ?"
"नहीं गाड़ी तो नहीं हो पाएगी?" अब यादव और उतरे।
"तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी यादव जी। और मेले में दर्शक कैसे होंगे?"
"यही शहर के लोग होंगे। सभी फैमिली वाले घूमने फिरने आएंगे। झूला झूलेंगे, कुछ ख़रीददारी करेंगे।"
"तो उनमें हमारे विश्वविद्यालय की किताबें पढ़ने में किसको दिलचस्पी होगी। इसमें तो रिपोर्टें, मोटी-मोटी किताबें और कृषि पत्रिकाएँ होती हैं। आपको क्या लगता है? कितनी किताबें बिक पाएंगी?" मैंने बॉल यादव जी के कोर्ट में डाल दी।
"अब मैं क्या बता सकता हूँ। आप ठीक कहते हैं। इन किताबों की बिक्री में मुश्किल ही होगी। लोग घूमने फिरने आएंगे, किताबें कौन ख़रीदेगा।" यादव जी पूरी तरह उतर गए।
"तो ठीक है। बहुत-बहुत धन्यवाद। आपसे सारी बातें क्लीयर हो गईं। आपके हिसाब से इस मेले कें किताबें तो बिकेंगी नहीं, फिर स्टॉल लगाने का क्या फ़ायदा?" मैं उठने लगा।
"जी बिलकुल। ऐसे तो स्टॉल लगाने का कोई मतलब नहीं है।" यादव जी उठने लगे।
मैंने वह पत्र निकाला, उस पर मेरी आवश्यक कार्रवाई पूरी हो चुकी थी। मैंने मेले के संयोजक से मुलाक़ात की। उन्हें लगता है कि स्टॉल लगाना बेमानी होगा। इसलिए स्टॉल लगाने का विचार छोड़ देना चाहिए।
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Monday, December 3, 2007
बायोडाटा ऐसा बनाओ कि नौकरी देने वाला विवश हो जाए _____!
आपने गौर किया होगा कि जब से प्राइवेट तथा मल्टीनेशनल कंपनियों का ज़ोर बढ़ा है, हमारे यहाँ नौकरियों में भर्ती की प्रणाली में काफ़ी बदलाव आ गया है। पहले इम्तहान के नंबरों के आधार पर सीधे फैसला ले लिया जाता था। इंटरव्यू होते भी थे, तो नाम-मात्र के। अब सरकारी कंपनियों में भी लोग इंटरव्यू और स्मार्टनेस को बहुत महत्व देने लगे हैं।
मेरा नाम जे.पी. देशपांडे है। यहाँ ग्वालियर में बैंक में काम करता हूँ। मैंने भी नौकरी पाने के लिए बहुत पापड़ बेले हैं। हमारे समय में गाइड करने वाला कोई नहीं था। इसलिए काफ़ी भटकना पड़ा। अब कोई बेरोज़गार युवक मुझसे सलाह माँगता है तो मैं उसका पूरा सहयोग करता हूँ।
पड़ोस का एक लड़का नौकरी की तलाश में था। एक दिन वह मेरे पास सलाह लेने आया। मैंने सबसे पहले उसका बायोडाटा देखा। सबसे पहले उसमें सुधार की ज़रूरत थी। मैंने उसे सलाह दी -
"बायोडाटा पुराने स्टाइल का है, आजकल के हिसाब से ठीक नहीं है। बायोडाटा ऐसा होना चाहिए कि देखने वाला इंप्रेस हो जाए।"
"तो इसे कैसा बनाएँ?"
"सबसे पहले तो इसे उलटा कर दो। मतलब कि जो कुछ इसमें नीचे है, वह ऊपर लिखो और जो ऊपर लिखा है उसे नीचे करो, जैसे इसमें तुमने अपने नाम, पिता का नाम से शुरू किया है। यह सब पढ़ने का टाइम किसके पास है? इसे सबसे लास्ट में लिखो।"
"अच्छा!"
"इम्तहान में कितने नंबर हैं, इसे भी बाद में ले जाओ।"
"तो शुरूआत में क्या लिखूँ?"
"शुरूआत में अपनी विशेषताएँ बताओ। तुम्हारी विशेषताएँ क्या हैं?" मैंने उससे पूछा।
"मैं पढ़ाई में तेज हूँ।"
"नहीं। यह सब नहीं चलता। इसके बदले कोई दूसरी विशेषता सोचो।"
"दूसरा.... मैं खेलकूद में अव्वल हूँ।"
"अरे यार। इनसे काम नहीं चलता। विशेषताएँ ऐसी लिखो कि तुम्हारी पर्सनैलिटी का पता चले जैसे कि तुम फ्रेंडशिप जल्दी करते हो, तुम्हारे अंदर लीडरशिप की क्वालिटी है, तुम हँसमुख हो, मुसीबत में भी हँसते रहते हो, वगैरह.." मैने उसे समझाया।
"पर भैया यह सब तो नहीं हैं। मैं फ्रेंडशिप जल्दी नहीं कर पाता।"
"जो भी हो, पर लिखना यही। समझे! "
"जी समझ गया।" वह मेरे सुझाव से उत्साहित था।
"और तुम्हारी हॉबी क्या है? मतलब तुम्हें क्या करना पसंद है?"
"हॉबी.... फिल्में देखना, सोना, टीवी देखना...."
"यह सब तो रहने दो। इसके बदले लिखो कि तुम्हें माउंटैनिंग, ट्रैकिंग, घूमना-फिरना, लोगों का कल्चर स्टडी करना वगैरह पसंद है।"
"नहीं, सब तो बिलकुल पसंद नहीं, यह ट्रैकिंग क्या होती है?"
"यह जो भी हो, लिखना यही चाहिए।"
"जी समझ गया।"
"और यह भी लिखना पड़ता है कि तुम्हारा लक्ष्य क्या है। तुम अपनी जिंदगी में क्या करना चाहते हो?" मैंने उससे पूछा।
"मैं अच्छी नौकरी करना चाहता हूँ। गाड़ी और घर खरीदना चाहता हूँ।"
"धत् तेरे की। यह कभी मत कहना। हमेशा कहना कि मैं अपने फ़ील्ड में टॉप पर पहुँचना चाहता हूँ। समझे?" मैंने पूछा।
"समझ गया।" वह सिर हिलाया।
"और सबसे अंत में अपना नाम, पता, और अपने पिता का नाम लिखना चाहिए। समझे?"
"जी समझ गया। पिता का नाम क्या लिखना ठीक रहेगा। इसे असली लिख दूँ?" वह पूछा।
मैं सोच में पड़ गया। इस पर तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था।
Wednesday, November 28, 2007
यहाँ अंदर आना एलाऊड नहीं है_____!
मुझे बहुत ख़ुशी हुई जब मेरी नौकरी लगी थी। पैसा तो कम है, महीने भर का 3000 रूपया यानि कि रोज़ाना के 100 रूपए। मालिक कहता है कि ईमानदारी से काम करो तो आगे पैसा बढ़ा देगा।
मैं भरतकुमार थपलियाल, गढ़चिरौली का रहने वाला हूँ। दोस्तों के पास दिल्ली घूमने आया था और फिर ऐसा मन लगा कि यहीं रह गया। यहाँ दिल्ली में हमारे आसपास के गाँवों के बहुत सारे लोग हैं जो फैक्टरियों में नौकरी करते है। मैं हिंदुस्तान सिक्योरिटी में लग गया। आजकल मेरी ड्यूटी सेंट थॉमस स्कूल में है। सिक्योरिटी वाले ने स्कूल पर सिक्योरिटी गार्ड सप्लाई का ठेका साल भर के लिए ले रखा है। पहले बड़ा ताज्जुब होता था हमें तनख़्वाह कोई और देता है, हुक्म किसी और का बजाना पड़ता है।
मुझे वर्दी पहनकर काम करने में बड़ा मज़ा आता है। इसमें पैसा तो कम है पर पॉवर बहुत है। हम किसी को भी आने वाले को रोककर पूछताछ कर सकते हैं। बड़े-बड़े लोग अंदर जाने के लिए रिक्वेस्ट करते हैं।
अभी पिछले हफ़्ते की बात है, मेरा मूड कुछ ख़राब था। तभी स्कूल में एक आदमी आया, वह शायद किसी बच्चे का बाप था।
"क्या काम है?" मैंने उससे पूछा।
"अंदर ऑफिस में जाना है।"
"ऑफिस में क्या काम है?"
"अरे भाई, प्रिंसिपल से मिलकर कुछ बात करनी है।" उस आदमी ने कुछ रूखे स्वर में कहा।
"सर, अंदर जाना एलाऊड नहीं है।"
"अरे, कुछ ज़रूरी बात करनी है। कैसे एलाऊड नहीं है?" उसका स्वर और तेज़ हो गया।
"जब तक अंदर से हमें आदेश नहीं होगा, हम अंदर नहीं जाने नहीं दे सकते। आपको कोई बात करनी है तो फोन से करिए।"
"ज़रूरी बात है, फोन से नहीं हो सकती, मुझे खुद मिलना है, आप मेरा कार्ड प्रिंसिपल को भिजवाइए।" वह मुझसे झगड़ा करने लगे।
"मेरा ड्यूटी कार्ड देने का नहीं है। यहाँ कार्ड देना एलाऊड नहीं है।" मैं भी अड़ गया। साला, मुझसे अकड़ कर बात करता है।
"तू कैसे रोक सकता है? प्रिसिपल कहाँ है? अच्छा तमाशा बना रखा है।" वह अपना मोबाइल फ़ोन निकालकर नंबर मिलाने लगा।
"सर, रास्ते से हट जाइए, रास्ते में खड़ा होना एलाऊड नहीं है।" मेरी इच्छा भी है कि प्रिंसिपल मुझे खुद यहाँ से हटा दे। ऐसी वाहियात नौकरी छूट जाए तो ही ठीक है।
अगले दिन ठेकेदार ने बुलवाया। ठेकेदार ने बताया कि प्रिंसिपल मेरी तारीफ़ कर रहा था। "ऐसे ही मन लगाकर काम करो, खूब तरक्की करोगे।" मेरी तनख़्वाह में पाँच सौ रूपए की बढ़ोत्तरी हो गई थी। मेरी तीन दिन की छुट्टी भी मंजूर हो गई थी।
इस शहर का हिसाब-किताब अब मेरी समझ में आने लगा था। मैंने अपने चचेरे भाई को भी गाँव से बुला कर सिक्योरिटी गार्ड में लगा दिया है। उसे अच्छे से समझा दिया है कि चाहे कहीं भी ड्यूटी हो, किसी को भी अंदर घुसने मत दो। याद रखो "हमेशा यही कहो कि यहाँ एलाऊड नहीं है। आने वाला जितना ज़्यादा परेशान होगा मालिक उतने ही अधिक खुश होंगे।"
वह पूछता है, "क्यों? अपने मिलने वाले को परेशान करने से मालिक क्यों खुश होता है?"
"इससे उसकी औक़ात कुछ और बढ़ी महसूस होती है, उसे लगता है "एलाऊड नहीं है" सुनकर आने वाले के मन में रौब पड़ता होगा ...।"
Thursday, November 22, 2007
तारीफ़ करो लेकिन संभलकर______ !
मैं कैलाश वर्मा, डिग्री कॉलेज यमुनानगर में अर्थशास्त्र का लेक्चरर हूँ। आज अर्थशास्त्र विषय की बहुत पूछ है। पहले ऐसा नहीं था। पहले जो लड़का पढ़ाई में कमज़ोर होता था किसी तरह डिग्री पूरी करने के लिए अर्थशास्त्र विषय ले लिया करता था। परंतु मैं ऐसे लोगों में शामिल नहीं था। मैं चाहता तो आसानी से साइंस या कोई अन्य विषय मिल सकता था, परंतु मैंने अपनी रुचि से अर्थशास्त्र चुना, और देखिए, एक से एक होशियार बच्चे अर्थशास्त्र पढ़ रहे हैं।
यहाँ हमारे विभाग के लोग मेरी दूरंदेशी और समझ का लोहा मानते हैं। किसी भी बात में मैं अपनी राय सबसे अंत में देता हूँ क्योंकि मेरी राय ज़रा हटकर होती हैं। मैं ऐसे पहलुओं पर विचार करता हूँ जिन पर किसी और की नज़र नहीं जा पाती। लोग मेरी बात सुनकर चकित रह जाते हैं, "यार! यह तो हमने सोचा ही नहीं था।"
पिछले हफ़्ते रीडर आरती सिन्हा ने विभागाध्यक्ष का चार्ज सम्हाला। अपना पुराना कमरा छोड़कर विभागाध्यक्ष के कमरे में शिफ़्ट कर लिया। जैसी कि परंपरा है, सारे लोग बधाई देने पहुँचे। मैं सबसे अंत में बधाई देने पहुँचा।
"मैडम, कांग्रेच्यूलेशंस! आपमें तो बिलकुल चेंज आ गया।" आज मैडम खूब सज-धज कर आई थीं। और विभागाध्यक्ष के पद का रौब तो देखते ही बनता था।
"अच्छा ! क्या चेंज आया है?" मैडम की आँखें चमक रही थीं। वह शायद अपनी तारीफ़ सुनना चाहती थीं।
"आप पहले से ज़्यादा कर्मठ दिखाई दे रही हैं। काम में जुटी हुईं।" मैं जानता था कि पहले बधाई देने वाले लोग नए कमरे की, उनके चमक-दमक की खूब तारीफ़ कर चुके होंगे।
"मतलब, क्या मैं पहले काम नहीं करती थी?" मैंडम ने दूसरा अर्थ लगा लिया।
"नहीं, मेरा मतलब था कि पहले आप पुराने कमरे में अपने दूसरे कामों में व्यस्त रहती थीं...." लगता है मैंने कुछ ग़लत बोल दिया।
"दूसरे कामों में ? यहां ऑफिस के इतने काम होते हैं, क्लास, सेमीनार, स्टुडेंट्स को गाइड करना क्या काम नहीं होते?" उन्होंने उखड़े लहज़े में कहा।
"मैं तो इसलिए कह रहा था कि पहले आपके काम एकेडेमिक होते थे, आपके एकेडमिक काम तो लोगों को दिखाई नहीं पड़ते न! अब जब एडमिनिस्ट्रेटिव होंगे, तब सबको पता चलेगा।" मैंने बात को संभालने की कोशिश की।
"हाँ, सच है। जब तक दूसरों को तंग न करो, काम की गिनती ही नहीं होती।" मैडम ने कहा। दरअसल पहले भी उनके काम पर कई सवाल उठे होंगे। शायद इसीलिए उन्होंने यह बात पकड़ ली।
मैं खिसिया कर रह गया। मन में आया कि कह दूँ, "हाँ, तुमने अपनी पूरी जिंदगी लिपस्टिक पोत कर दूसरों की चुगली की है। आज तक कोई काम नहीं किया है। और अब भी नहीं करोगी। तुम्हारे बस का कोई काम है भी नहीं।" पर चुपचाप लौट आया। मैं टीका-टिप्पणी नहीं बल्कि तारीफ़ कर रहा था, पर मेरी राय को मैडम ने ग़लत तरीक़े से ले लिया था। कहते हैं न, कि "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।"
मैंने एक बात और अनुभव की है, औरतों की तारीफ़ करो तो बहुत संभल-संभलकर। आपकी अच्छी भली बात से वह क्या मतलब निकाल ले, आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते।
अभी कल की ही बात है। मैंने बातचीत के दौरान हल्के-फुल्के मूड में अपनी पत्नी से कहा कि उसे वक़ालत पढ़ना चाहिए। उसमें ऐसा गुण है कि वह वक़ालत में बहुत क़ामयाब हो सकती है। इस पर वह नाराज़ हो गई, और लड़ने लगी। अब आप ही बताइए, इसमें नाराज़ होने वाली क्या बात है ? वक़ील होना कोई गाली तो नहीं है! और क्या किसी को कैरियर एडवाइस देना भी ग़लत है?
Wednesday, November 14, 2007
हनुमान जी क्षमा करें, पापी पेट का सवाल है____!
मेरा नाम रामशरण है। फिलहाल मैं मंत्रालय के डिप्टी सेक्रेटरी साहब का ड्राइवर हूँ। फिलहाल इसलिए कह रहा हूँ हम ड्राइवरों का तबादला होता रहता है। कभी एक सेक्रेटरी के पास कभी दूसरे डिप्टी सेक्रेटरी के पास। मंत्रालय में सेक्रेटरियों की कमी नहीं है, अलबत्ता ड्राइवरों की कमी ज़रूर है।
हम हैं तो ड्राइवर, पर साहब लोग उम्मीद करते हैं कि हम चपरासियों का काम भी करें। कभी कभार तो ठीक है, पर रोज़-रोज़ हमें यह पसंद नहीं है। कई बार साहब अच्छे मिल जाते हैं, हमारी भावनाओं का ख्याल रखते हैं। कोई बेवजह डाँट-डपट करता है तो हम भी कह देते हैं, "कर दो ट्रांसफ़र।" बस इतना सुनकर अधिकांश साहब शांत हो जाते हैं। ट्रांस़फ़र कर तो दें, पर नया ड्राइवर मिलता इतना आसान नहीं होता।
मैं अपने काम से मतलब रखता हूँ। अपना काम करो और राम का नाम लो। अंडर सेक्रेटरी साहब ऑफिस की गाड़ी का इस्तेमाल घरेलू कामों में करते हैं। कहते हैं, "घर चले जाओ, तुम्हारी आंटी को थोड़ी मार्केटिंग करनी है।" इसमें कौन सी नई बात है, सभी ऐसा करते हैं। जो साहब का आदेश है वही हमारे लिए हुक्म है और वही क़ानून। पर साहब की फैमिली (पत्नी), बाप रे बाप, फैमिली को राजी रखना बड़ा मुश्किल काम होता है। साहब की फैमिली घड़ी-घड़ी डांटती हैं, "मेरा थैला पकड़ो", "यहाँ खड़ा करो" "तुम्हें मैनर्स नहीं है", "मैं साहब से तुम्हारी शिकायत कर दूँगी"। अब लेडिस से बहस कौन करे? मैं तो साहब का बहुत लिहाज करता हूँ वरना जी करता है बीच रास्ते गाड़ी से उतार दूँ।
पिछले हफ़्ते मैं आंटी जी (साहब की फैमिली) को ब्यूटी पार्लर ले जा रहा था। जाने क्या हुआ आंटी ने आज बड़े अच्छे से बात की, "रामशरण तुम कौन से भगवान को मानते हो?"
"मैं सभी भगवान को मानता हूँ, राम, कृष्ण, शंकर....।" मैं डरते डरते कहने लगा। मेरी समझ में कुछ नहीं आया था। लग रहा था कि यदि एक किसी भगवान का नाम लूँगा तो नाराज़ हो जाएंगी।
"अरे नहीं, सब नहीं एक बताओ, किसकी पूजा अधिक करते हो?" आंटी ने पूछा।
"मैं हनुमान का भक्त हूँ। उन्हीं की पूज़ा रोज़ करता हूँ।" मैंने कह दिया। अब क्या करूँ, जो होता है सो हो।
"एक बात सच-सच बताओगे? तुम्हें हनुमान जी की क़सम है, क्या साहब इस गाड़ी से किसी मैडम को गेस्ट हाउस ले जाते हैं?"
"आंटी मैं आपसे झूठ क्यों बालूँगा?" मैं हकबका गया।
"देखो तुम्हें तुम्हारे हनुमान जी की क़सम है, सच-सच बताना।"
मैडम ने बड़ा बुरा फँसा दिया। इधर कुआँ तो उधर खाई। साहब ऑफिस के काम से या किसी मीटिंग के सिलसिले में गेस्ट हाउस तो जाते रहते थे। कई बार पी.आर. ऑफ़ीसर मिसेज जोशी भी साथ जाती हैं। यह सरकारी गाड़ी है, इसमें तो कोई भी बैठ सकता है। पर मैंडम को कौन समझाए? कुछ पूछना है तो सीधे साहब से पूछो, मुझ गरीब को क्यों फँसा रही हो। यदि मेरे मुँह से एक भी शब्द ग़लत निकल गया तो मेरी नौकरी खतरे में पड़ सकती है।
"मैडम आज चाहे जिसकी क़सम दे दें, मैं आपसे बिलकुल झूठ नहीं बोलूँगा। अपनी ड्यूटी में, मैंने अपनी जानकारी में मैंने किसी मैडम को नहीं बिठाया है।"
"देखो, रामशरण तुम झूठ बोल रहे हो, सच बताओ। मुझे सब पता है।"
"हनुमान जी की कसम आंटी जी, मैंने आपके अलावा किसी मैडम को नहीं बिठाया।"
आंटी मुझ पर गुस्सा करने लगी। अब वह अपने पुराने रूप में लौट आई, "तुम्हें मैनर्स नहीं है", "मैं साहब से तुम्हारी शिकायत कर दूँगी"।
मैं मन ही मन भगवान से माफ़ी मांग रहा था। हे हनुमान जी, मुझे माफ़ कर दो। नौकरी की सवाल है। मुझे इस मुसीबत से बचाओ और जल्दी से जल्दी मेरा ट्रांसफ़र कहीं और कर दो।
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Monday, November 12, 2007
धन्यवाद धोनी, आपने अपने बाल कटा लिए _____!
चित्र साभार:
मेरा नाम श्यामनारायण शिवहरे है। मध्यप्रदेश में उज्जैन का रहने वाला हूँ और यहाँ के डिग्री कॉलेज में रसायन विज्ञान का प्रोफ़ेसर हूँ। छोटा परिवार सुखी परिवार है और ईश्वर की कृपा से तनख्वाह भी अच्छी ख़ासी है, मज़े से गुज़ारा हो जाता है।
मेरा एक बेटा है जो इस समय दसवीं बोर्ड की परीक्षा में बैठ रहा है। कद-काठी तंदुरूस्त है और मेरी शर्ट अभी से उस पर फिट आती है। भगवान ने उसे दिमाग़ भी अच्छा दिया है। मैं स्वयं पढ़ा लिखा हूँ और पढ़ाई का महत्व समझता हूँ। जानता हूँ कि इस उम्र में पढ़ाई कितनी ज़रूरी है। मैंने तय कर लिया है कि उसके कैरियर के बारे में अपनी कोई राय नहीं थोपूँगा। जो चुनना चाहे, चुने।
परंतु इस उम्र में सही मार्गदर्शन की अत्यंत आवश्यकता होती है। एक पिता से अच्छा मार्गदर्शक कोई और नहीं हो सकता। उसकी ड्राइंग बचपन से ही अच्छी थी इसलिए मैंने तय किया है कि उसके लिए बायोलोजी विषय अच्छा रहेगा। बायोलोजी, जूलॉजी आदि विषयों में प्रेक्टिकल में अच्छी ड्राइंग वालों को अच्छे नंबर मिलते हैं।
बच्चे का मन कच्चे घड़े की तरह होता है। इसलिए मैंने उसे सिखा दिया था, घर में कोई भी आता और पूछता "बेटे बड़े होकर क्या बनोगे? तो वह तपाक से कहता "डॉक्टर"। "शाबास ! वाह शिवहरे जी, बड़ा होनहार बेटा है आपका !" उसके खिलौनों में डॉक्टर की छोटी किट ख़रीद कर ले आया। खेलते समय डॉक्टर-डॉक्टर खेलता, ताकि उसके अवचेतन मन में डॉक्टर बनना अच्छे से जम जाए।
अब वह बड़ा हो गया है। इस समय वह अपना समय पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों में अधिक बिताने लगा है। यह भी ठीक ही है, इससे बच्चे का समग्र विकास होता है। आजकल बिलकुल किताबी होना भी ठीक नहीं है। बच्चे में पढ़ाई के साथ-साथ पर्सनैलिटी भी होनी चाहिए।
दो माह वह मेरे पास आया।
"पापा। पचास रूपए चाहिए। बाल कटवाना है।"
"यह लो। पर बाल कटवाने के पचास रूपए?" मैं समझ नहीं पाया। यहाँ तो बाल पंदरह से बीस रूपए मैं कट जाते हैं।
"धोनी स्टाइल के पचास रूपए लगते हैं।"
"क्या?" मैं कुछ समझ नहीं पाया। धोनी जैसी स्टाइल के पचास रूपए। इसके सिर पर धोनी का भूत कब चढ़ गया? अरे! धोनी कभी बाल कटाता भी है? और फिर इसे तो डॉक्टर बनना है। मैंने किसी डॉक्टर का बाल धोनी स्टाइल का नहीं देखा था।
मेरा सपना बिखरता हुआ नज़र आया। मैंने उसे समझाने की कोशिश की "भले ही यह पचास रूपए ले जाओ, किसी दूसरे काम में खर्च कर लो, पर धोनी जैसे बाल मत रखो।"
पर उसने मेरी बात नहीं मानी, तभी भगवान ने मेरा साथ दिया। मैं धोनी को धन्यवाद देता हूँ कि उसने अपने बाल छोटे करा लिए हैं।
Wednesday, November 7, 2007
भागचंद मारवाड़ी को बिज़नेस का नया नुस्ख़ा मालूम नहीं है ___!
मेरा नाम साजन कुमार सिंधी है। पढ़ाई 10वीं से अधिक नहीं चल पाई, पढ़ने में मन नहीं लगता था, और कुछ घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए सीधे बिज़नेस में लग गया। मेरा गुपचुप (पानी-पुरी) और चाट का छोटा सा बिज़नेस है। शाम-शाम में ही अच्छी कमाई हो जाती है। मेरी साथ के पढ़े लिखे लड़के बी.ए., एम.ए. कर अभी भी घूम रहे हैं, उनकी नौकरी का ठिकाना नहीं है। अच्छा हुआ मैं पढ़ने-लिखने के चक्कर में नहीं पड़ा, सीधे बिज़नेस में लग गया।
माँ बाप ने मेरा नाम बहुत अच्छा रखा है। साथ पढ़ने वाली लड़कियाँ मेरा नाम लेते हुए शरमा जाया करती थीं, कुछ तो मेरा नाम ही नहीं लेती थीं, सिर्फ एस.के. कह कर बुलाती थीं। ख़ैर यह सब तो पुरानी यादें हैं, अब तो बिज़नेस में इतने व्यस्त हैं कि यह सब याद करने की फुरसत ही नहीं मिलती। हमारे बिज़नेस का एक उसूल है लोगों से बोल-चाल में विनम्रता होना चाहिए। कोई कभी गुस्से में कड़ा भी बोल जाए, तो उसका बुरा न मानो क्योंकि कोई भी आदमी दिल से बुरा नहीं होता है। सबसे बड़ी बात यह कि हर आदमी एक ग्राहक होता है, और ग्राहक भगवान का रूप होता है।
मैंने कहीं पढ़ा है बिज़नेस बढ़ाने का एक नुस्ख़ा और है - पहले लोगों से उनका हाल-चाल, घर-परिवार की ख़ैरियत पूछना चाहिए और फिर काम की बात करनी चाहिए। इससे अपनापन बढ़ता है जो लांग टर्म रिलेशन बनाने के लिए अच्छा होता है। जिसने भी यह बात कही है बिलकुल ठीक है। सचमुच, हम कहाँ जा रहे हैं ! न दुआ न सलाम, सीधे-सीधे काम पर आ जाते हैं, आजकल किसी को एक दूसरे का हाल जानने की फुरसत ही नहीं है!
एक मिनट, मुझे एक काम याद आया। मुझे भागचंद मारवाड़ी से बात करनी है, उनकी दुकान में आलू आया या नहीं, पूछना है। इस इलाके में आलू किराने की दुकान में मिलता है। यह तो भला कि आजकल मोबाइल आ गया है, क्या ग़ज़ब चीज़ बनाई है, कितनी सुविधा हो जाती है इससे।
"हैलो कौन बोल रहा है? भागचंद से बात कराइए!" मैने भागचंद की दुकान में नंबर मिलाया। मैं भागचंद से आलू थोक में ख़रीदता हूँ।
"मैं भागचंद ही बोल रहा हूँ भाया।"
"नमस्कार सेठ जी, मैं चटखारा से साजन कुमार बोल रहा हूँ। कैसे हैं आप?"
"ऊपर वाले की दुआ से खैरियत है।" मैं भी ऐसे ही नहीं छोड़ने वाला। लगता है भागचंद मारवाड़ी जी को यह नुस्ख़ा नहीं मालूम है।
"और परिवार में सब कैसे हैं, बाल बच्चे?"
"ठीक ही हैं, तुम्हारी भाभी इस समय बीमार चल रही है। वही गठिया की शिकायत.. आजकल चल-फिर नहीं पाती, इसलिए एक नौकरानी रख छोड़ी है। बड़ा तो मेरे साथ दुकान में ही बैठता है, उसके रिश्तेवाले आए थे... मैंने तो उनसे साफ कह दिया कि भई, काम धाम वाला घर है। अभी तो वापस चले गए हैं। जैसा भी होगा फोन से बताएंगे। दूसरे नंबर वाले का दो सब्जेक्ट में ट्यूशन लगा दिया है फिर भी कहता है और ट्यूशन पढ़ेगा.. सब कमबख़्त खाली करके छोड़ेंगे। सबसे छोटी वाली ...."
"अरे बाल बच्चों की चिंता छोड़िए, सब ठीक हो जाएगा। बताइए काम-धाम कैसा चल रहा है?" ये तो रामायण ही खोलकर बैठ गया, मैंने इसे मोबाइल से फोन क्यों किया?
"बाज़ार में आजकल बड़ी मंदी है। शादी का सीजन आने में तीन महीने हैं। ट्रांसपोर्ट वाले अपना रेट बढ़ाने वाले हैं। सोचता हूँ रेलवे से माल मंगाना शुरू कर दूँ, पर खर्चा फिर भी डबल का डबल ही पड़ेगा। गोदाम यहाँ से दूर पड़ता है इसलिए यहीं कहीं आसपास एक और गोदाम ढूँढ रहा हूँ, तेरी नज़र में है क्या कोई जगह भाया?"
"फ़िलहाल तो नहीं है, ठीक हैं अभी रखता हूँ।"
"अरे भाया, यह तो बता कि फोन क्यों किया था?"
"मैं पूछना चाहता हूँ कि नए माल में आलू आया कि नहीं।"
"तो सीधे-सीधे पूछ न, टाइम क्यों बर्बाद करता है? आलू वाला ट्रक कल पहुँचेगा। और कुछ?"
"नहीं, इतना बहुत है।" और मैंने जल्दी से फ़ोन काट दिया। ओह, फिर गलती हो गई, मैंने फोन काटने से पहले धन्यवाद या गुडबाई तो कहा ही नहीं___!
Sunday, November 4, 2007
उल्टे का उल्टा सीधा होता है____!
मेरा नाम शिवशंकर झा है। मैं प्रयोगशालाओं में काम आने वाले उपकरणों को बनाने वाली विश्वविख्यात कंपनी "ट्राइसन" की भारतीय इकाई में एरिया असिस्टेंट मैनेजर हूँ। आप कभी गुड़गाँव स्थित हमारे ऑफिस आइए। आपको एक पूरा कारपोरेट वर्ल्ड दिखाई देगा। अव्वल दर्जे की फ़र्निशिंग, अव्वल दर्जे के सोफ़े-कालीन और अव्वल दर्जे का स्टाफ। हम अपने फ़ील्ड एग्ज़ीक्यूटिव्स काम करने में पूरी आज़ादी देते हैं। अनेक प्रकार की आर्थिक सहूलियतें भी देते हैं कि छोटा-मोटा खर्चा करना ज़रूरी हो तो वह भी अपने स्तर पर कर लें, पर टारगेट से समझौता न करें।
मेरे अधिकारी एरिया मैनेजर श्री डांगर जी बिज़नेस में डिग्री धारक हैं, और बहुत तेज़ तर्रार किस्म के अफ़सर हैं। इन बिज़नेस के डिग्री धारकों की सबसे बड़ी समस्या होती है कि यह व्यावहारिक नहीं होते। कई बार इनके फ़ैसले इतने अव्यावहारिक होते हैं कि लाभ के बजाए नुक़सान अधिक होता है। जैसे किसी भी भले चंगे फ़ील्ड स्टाफ़ पर अकारण दबाव बनाना। एक और परेशानी है कि यह अपनी क़ाबिलियत साबित करने के लिए अधीनस्थों की उम्मीदों से बिलकुल उलटा निर्णय लेते हैं।
मुझे जब से डांगर साहब के इन उलटे निर्णयों का पता चला तो मैंने उनके मुताबिक अपनी रणनीति बदली।
पिछले माह मेरे मित्र ग्रेवाल साहब अपनी पत्रिका के लिए विज्ञापन मांगने आए। बड़े सज्जन व्यक्ति हैं और उनके जरिए हमें कई क्लाइंट मिले हैं। उनसे मेरा याराना है और पब्लिसिटी के फंड से मैं उन्हें विज्ञापन देना भी चाहता था।
मैंने ग्रेवाल जी से कहा, "इसमें मेरा पहल करना ठीक नहीं है। आप एरिया मैनेजर डांगर जी से सीधे बात करिए। उनसे यह बात जिक्र ज़रूर करिए कि आप मेरे पास आए थे और मैं इस पर राजी नहीं हूँ।"
"पर ऐसा करने की क्या ज़रूरत है? आप स्वयं ही विज्ञापन देना स्वीकार कर क्यों नहीं कर रहे हैं। कान को घुमाकर क्यों पकड़ते हैं?" ग्रेवाल साहब दुविधा में पड़ गए।
"मेरा भरोसा करिए ग्रेवाल साहब। विज्ञापन आपको ज़रूर मिलेगा पर जैसा मैं कहता हूँ करिए। ध्यान रहे कि डांगर साहब के सामने आपको ऐसा जाहिर करना है कि मैं इसके लिए राजी नहीं हूँ।"
वह तैयार हो गए।
दूसरे दिन डांगर साहब ने मुझे बुलाया। उनके सामने ग्रेवाल साहब का पत्र रखा था। मैं समझ गया कि ग्रेवाल जी की मुलाकात डांगर से हो चुकी है।
"मि.शिवशंकर, इस पत्र को देखिए। आपकी क्या ओपीनियन है?"
"सर! ग्रेवाल साहब के मैगजीन की सर्कुलेशन इतनी अधिक नहीं है, इसलिए मैंने उन्हें हामी नहीं भरी थी। वैसे भी इस साल विज्ञापन का बजट पिछली बार से कम है।"
"परंतु ग्रेवाल साहब से हमारी कंपनी के पुराने रिलेशन हैं। इनके मैगजीन की रेपुटेशन बड़ी अच्छी है। हमें ज़रूर इन्हें ही विज्ञापन देना चाहिए। मैं इसी लेटर पर ही अपने कमेंट लिख देता हूँ। आप बैक फुल पेज का कलर एड दे दीजिए।" और उन्होंने उस पत्र पर एक नोट लिखकर मुझे दे दिया।
"ठीक है सर। आप कहते हैं तो मैं इसे प्रोसेस करता हूँ।" और मैं बाहर आ गया।
इसी उलटबंसी का एक अनुभव और याद आता है। यहाँ के एक समाजसेवी पत्रकार श्रीवास्तव जी आए। उनकी ब्लैकमेलिंग के किस्से जगजाहिर थे। उनका मक़सद भी विज्ञापन हासिल करना था। उन्होंने अपना रूतबा दर्शाने के लिए अपने ऊँची पहुँच और मीडिया की ताक़त की बातें बतानी शुरू कर दी। वह ऐसा जाहिर कर रहे थे मानों वह हमसे विज्ञापन मांगकर हमारा कल्याण करना चाहते हों। ठीक है बेटा, मैं भी देखता हूँ, तुम्हें विज्ञापन कैसे मिलता है।
"आप बैठिए तो सही, अभी हाथों-हाथ प्रोपोजल भेजता हूँ। आप आराम से चाय पीजिए।" मैंने चपरासी को चाय लाने का आदेश दिया।
"थोड़ा जल्दी कीजिएगा। मुझे कई क्षेत्रों को एक साथ संभालना पड़ता है। क्या करें? जर्नलिज़्म का काम ही बड़ा जोखिम भरा होता है।"
"यह बन गया प्रोपोजल मैं अपने बॉस के पास भेजता हूँ, बल्कि खुद लेकर जाता हूँ।"
वह खुशी-खुशी चाय पीकर विदा हुए।
मैं स्वयं अपने हाथों से प्रोपोजल लेकर गया। मैंने तो अपनी ओर से पूरी क़ोशिश की, पर मेरे चाहने से क्या होता है?
एक हफ़्ते बाद श्रीवास्तव जी को हमारा खेद पत्र मिल गया। हमारे पब्लिसिटी बज़ट में पैसा ही नहीं था, इसलिए हम उन्हें विज्ञापन नहीं दे सके। अगले वर्ष अवश्य प्रयास करेंगे___!
Thursday, November 1, 2007
एक कलाकार ही दूसरे कलाकार का दर्द समझता है____!
मेरा नाम बजरंगी देवांगन, कलापथक प्रमुख, रायपुर का रहने वाला हूँ। कलापथक ऐसी सरकारी कला मंडली होती है जो सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए सरकार की योजनाओं का प्रचार प्रसार करती है। मुझे तो पता ही नहीं था कि ऐसी भी कोई सरकारी नौकरी होती है जिसमें काम गाने बजाने का हो। मुझे शुरू से ही गाने बजाने का शौक़ था। मेरी तो लाटरी ही लग गई थी।
हमें कलेक्टर के अंडर काम करना पड़ता है। शुरू में तो काम में मज़ा आया, पर बाद में बड़ा बेकार लगने लगा। हमें ग़रीबी हटाओ, परिवार नियोजन, पढ़ो-पढ़ाओ जैसे विषयों पर गीत गाना पड़ता। हमारे गीत भी कहीं और से लिखे आते, कोई रस नहीं, कोई भाव नहीं, बस आदेश होता गीत गाना है। मोटे-मोटे अफ़सर, जिन्हें कला और संगीत के बारे में क ख भी पता नहीं होता, वह हमें बताते कि क्या गाना है और कब गाना है।
समझ लो हम सरकारी भांड हैं। किसी भी कार्यक्रम में जहाँ कलेक्टर या किसी बड़े अधिकारियों का दौरा होता, हमें भेज दिया जाता। हमारा काम भीड़ जुटाना था, जब तक कि कलेक्टर साहब वहाँ पहुँच न जाएँ। पहले बहुत बुरा लगता था कि कोई हमारा गीत बीच में रोककर अपना भाषण शुरू कर दे, पर धीरे-धीरे इसकी आदत हो गई।
मैं अब अपने काम में बिलकुल परफेक्ट हूँ। आप कोई भी कार्यक्रम बताइए, एड्स नियंत्रण या पोलिया टीकाकरण, उसके बारे में आधा पेज लिख कर दीजिए, चुटकी बजाते किसी भी लोकगीत या फिल्मी गीत में फिट कर सकता हूँ। बस गीत तैयार। आपको मज़ा नहीं आ रहा है तो इससे मुझे क्या। मैं आपके मनोरंजन की परवाह करूँ या अपनी नौकरी करूँ? माफ़ कीजिएगा बाबूजी, पर बदलती दुनिया के साथ-साथ मैं भी जीना सीख गया हूँ।
विकासखंड अधिकारी, राजस्व अधिकारी, तहसीलदार, पंचायत प्रमुख और यहाँ तक कि एन.जी.ओ. के लोग भी हमारे चारों ओर डोलते हैं, कहते हैं "बजरंगी भाई, आप जैसे कलाकार की हमारे कार्यक्रम में उपस्थिति ज़रूरी है।" उनका मतलब होता कि
कि "बजरंगी भाई, हमारे कार्यक्रम में आकर मुफ़्त में गाना-बजाना कर दो।" अव्वल तो हम हर किसी कार्यक्रम में जाते नहीं, यदि गए भी तो ऐसा गाते-बजाते हैं कि किसी को सुनाई ही न दे। लोगों को ढोलक, हारमोनियम की आवाज़ बस सुनाई देती है पर समझ में कुछ नहीं आता। जब तक आयोजक लोग माइक सेट करते हैं हम दो गीत गाकर ब्रेक ले लेते हैं।
लोग आखिरी में हमारे मन की बात कह देते हैं-"इससे अच्छा तो नाचा या भजन मंडली बुलवा लेते।" यही तो हम भी चाहते हैं कि अगली बार नाचा बुलवा लें तो हमारी बला टले। हमें संतोष है कि हमारी नौकरी पक्की है हमारा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा। अब थोड़ा गाली खा लेने से, या थोड़े घटिया साबित होने से हमारी कलाकार बिरादरी के किसी भाई को रोज़गार मिले तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है___!
Tuesday, October 30, 2007
सरफ़रोशी की तमन्ना दिल में ही रह गई ____!
मेरा नाम विनायक अहिरवार है, पेशा राजनीति, रीवा मध्यप्रदेश कर रहने वाला हूँ। सभी भाई बहन अपने अपने ठिकाने लग गए हैं। ठिकाने लगने का मतलब है कि भाई अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं, बड़े की नौकरी तो पहले से ही थी, छोटा कपड़ों का बिज़नेस करता है। दोनों बहनों की शादी हो चुकी है। यहाँ हमारी रिश्तेदारी बहुत बड़ी है। मेरा मानना है कि हर परिवार में कोई-न-सदस्य राजनीति में होना चाहिए। दूसरों का न सही, अपने घर में ही इतने काम रहते हैं एडमिशन से लेकर तबादले तक, बिजली-पानी के कनेक्शन से लेकर कोर्ट कचहरी तक, कि राजनैतिक जान-पहचान की ज़रूरत पड़ती रहती है।
मैंने एम.ए कर लिया, एल.एल.बी भी कर लिया पर नौकरी नहीं मिली। इसलिए मैंने पढ़ लिखकर राजनीति को अपना कैरियर बनाने का निश्चय किया है। राजनीति में पढ़े लिखे नेताओं की हमेशा ज़रूरत रही है और मैं तो शुरू से ही बोलने-चालने में अच्छा रहा हूँ। काफी विचार विमर्श कर काँग्रेस पार्टी का कार्यकर्ता बन गया हूँ। हमारे क्षेत्र के युवा विधायक हैं श्री ईश्वर सिंह जी, वह मेरी बहुत इज्जत करते हैं। मैं उनका बहुत ही ख़ास चेला बन गया हूँ।
राजनीति में निष्ठावान तथा जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं की बहुत ज़रूरत पड़ती है। शुरूआती स्तर पर छिछोरापन ठीक नहीं है। पहले विचारधारा के स्तर पर तो परिपक्व हो लें, फिर यदि ईमानदारी से काम किया जाए तो सत्ता भी मिल जाएगी। जनता का काम नि:स्वार्थ भाव से करना चाहिए। फिलहाल आप सबों की दुआ से अपना जेबखर्च निकल ही जाता है। मेरी दृष्टि स्थानीय राजनीति, छोटी मोटी उठापकट से काफी आगे है। मैं राष्ट्रीय राजनीति में अपना दखल बनाना चाहता हूँ। राजनीति में छात्रों का नेतृत्व करना आसान लगता है, पर इसमें बहुत जटिलताएँ भी शामिल होती हैं।
उस समय हम पाकिस्तान के राष्ट्रपति मुशर्रफ़ के भारत आगमन के विरोध में जनमत तैयार कर रहे थे। छात्र शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है। हमारी नीति रही है कि छात्र नेताओं से संपर्क कर उन्हें अपने आंदोलन में शामिल करते हैं। छात्रों में नया जोश, नई ऊर्जा होती है। हम अपने कुछ पदाधिकारियों के साथ यहाँ के मेडिकल कॉलेज में जनआंदोलन के लिए छात्रों से मिले जुले तो वातावरण काफ़ी अनुकूल लगा। जहाँ एक ओर मुशर्रफ़ कारगिल लड़ाई का जिम्मेदार था, हमारे देश में अव्यवस्था फैलाने के लिए आतंकवादियों को शह देने की बात किसी से छिपी नहीं है। उसी खलनायक का स्वागत आज केंद्र सरकारी राज सम्मान के साथ कर रही है। इस सरकार को हमारे देश के आत्मसम्मान की ज़रा भी परवाह नहीं है! धिक्कार है!
यहाँ के छात्र नेताओं में काफी उत्साह था, इसलिए युवा विधायक श्री ईश्वरचंद ने स्वयं वहाँ एक मीटिंग ली।
"साथियों! कोई बात आप सब से छिपी नहीं है। इसलिए समय बरबाद न करते हुए मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ। हमारे हिंदुस्तान के टुकड़े करने का सपना देखने वाले मुशर्रफ का स्वागत हम नहीं होने देंगे। इसने ही हमारे कश्मीर पर, हमारी माँ बहनों पर अत्याचार कराया है। इसे तो गोलियों से भून देना चाहिए। और यह सरकार, अमेरिका की गुलामी कर रही है...।" ईश्वर जी ने वहाँ उपस्थित सभी छात्रों की अंतरात्मा को हिला कर रख दिया।
इसके बाद आंदोलन की रूपरेखा तय हुई।
"तो हमने इसके लिए भोपाल में 11 तारीख को एक रैली का आह्वान किया है। यहाँ से पूरी ट्रेन भरकर जाएगी। वैसे तो आप लोगों के रूकने, खाने पीने की व्यवस्था सब है, पर यदि कुछ गड़बड़ी हो तो आप अपना खर्च खुद करना पड़ सकता है। क्या हम अपने देश के लिए इतना भी नहीं कर सकते?" सभी छात्रों जाने के लिए तैयार थे।
"आप लोगों को अपनी कुछ कक्षाएँ छोड़नी पड़ेंगी, तो क्या आप सब तैयार हैं?"
"हाँ, बिलकुल तैयार हैं।"
"शाबास! यदि यहाँ के प्रिंसिपल ने कोई टांग अड़ाने की क़ोशिश की, तो क्या उनका विरोध करने के लिए?"
"हाँ, बिलकुल तैयार हैं।"
"यदि हम एकजुट रहे तो कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यह हमारे अपने देश के स्वाभिमान की लड़ाई है। मैं आप लोगों को बता दूँ कि यदि प्रिंसिपल कल आप लोगों में किसी को रेस्टिकेट भी कर सकता है। क्या देश के लिए लड़ाई लड़ने को तैयार है। आप में से कितने लोग अपनी कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं? अपने हाथ उठाएँ!"
सारे हाथ खडे हो गए।
"और कितने लोग कुर्बानी नहीं दे सकते? हाथ उठाएँ। किसी के साथ कोई जबरदस्ती नहीं है।"
एक भी हाथ नहीं उठा। सभी छात्र देश के लिए अपनी कुर्बानी देने को तैयार थे। सबके मन में सरफ़रोशी की तमन्ना जोर मार रही थी। यह मेरे देश, भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद के देश के युवा हैं...!
ईश्वर जी प्रसन्न होकर कॉलेज से विदा हुए। उन्होंने विशेष तौर पर मेरी पीठ ठोंकी।
हमने अपने कार्यकर्ताओं के साथ भोपाल में रैली की, रैली बहुत अच्छी रही। पर उस मेडिकल कॉलेज से कोई नहीं आया। सुना है उनके परीक्षा की डेट एनाउंस गई थी और सब अपनी पढ़ाई में जुट गए थे।
आजकल छात्र राजनीति भी आसान नहीं रह गई। और इन मेडिकल कॉलेज के भगतसिंहों के सरफ़रोशी की तमन्ना का कोई भरोसा नहीं _____!
Thursday, October 25, 2007
छोटे शहर की छोटी मानसिकता_____
मेरा नाम डी.पी. यादव है, एम.ए., एम.एस-सी., बी.एड. हूँ और सिहोरा के शासकीय हाई स्कूल में शिक्षक हूँ। सिहोरा शहर काफ़ी तेज़ी से विकास कर रहा है। अब तो यहाँ एम.एस-सी. तक का कॉलेज, दो हाई स्कूल, तथा एक गर्ल्स हाई स्कूल, दो प्राइवेट नर्सिंग होम, एक स्टेडियम, एक आई.ए.एस. कोचिंग सेंटर भी खुल गया है। यहाँ से पढ़े बच्चे देश भर में अपने सिहोरा गाँव का नाम रोशन कर रहे हैं। अब यह गाँव कहाँ रहा, अच्छा खासा शहर हो गया है।
यहाँ बायोलॉजी की कक्षा में अध्यापन कार्य कर रहा हूँ। पिछले 15 वर्ष से बायोलॉजी अध्यापन के क्षेत्र में मेरा नाम है। आसपास के शहरों से विद्यार्थी ट्यूशन पढ़ने मेरे पास आते हैं। पर मैं हर किसी को नहीं पढ़ाता। मेरे स्कूल से भी अनेक बच्चे मेरे पास आते हैं। ट्यूशन पढ़ना या न पढ़ना छात्रों की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है। मैं किसी पर कोई दबाव नहीं डालता, किसी को मैं बाध्य नहीं करता। जिसे पढ़ना है पढ़े, जिसे नही पढ़ना वह स्वाध्याय कर परीक्षा देने के लिए स्वतंत्र है। अपने नंबरों के लिए वह स्वयं जिम्मेदार होगा। मेरा आशीर्वाद उसके साथ है।
यहाँ के लोगों की मानसिकता अभी भी पिछड़ी हुई है। एक लड़का है सुंदर लाल। बारहवीं का छात्र है। पढ़ने में तेज़ है। ईश्वर ने उसे बुद्धि अच्छी दी है पर उसे इसका घमंड हो गया है। मेरे पास ट्यूशन नहीं पढ़ता और कहता है कि स्वयं ही क्लास में फ़र्स्ट आकर दिखाएगा। वह एक दिन प्रिंसिपल के पास शिकायत लेकर पहुँच गया कि यादव सर लड़कों को प्रेक्टिकल नंबर कम देते हैं और लड़कियों को नंबर ज़्यादा देते हैं।
आप तो जानते हैं कि छोटे शहर के लोग और उनकी वैसी ही ओछी मानसिकता। लड़कों को पूरे समय नेतागिरी करने, क्रिकेट वगैरह से फुरसत नहीं मिलती। लड़कियाँ मन लगाकर प्रेक्टिकल में भाग लेती हैं। उनकी हैंडराइटिंग सुंदर होती है। उनका मौखिक साक्षात्कार अच्छा होता है इसलिए उनके नंबर अधिक आते हैं। एक शिक्षक के नाते हमें अपने छात्रों का संपूर्ण व्यक्तित्व जाँचना होता है। प्रेक्टिकल नंबर और किसलिए होता है?
अभी परसों तो हद हो गई। वह प्रिंसिपल के पास पहुँच गया और कहने लगा कि यादव सर नीता के सिर पर हाथ फेर रहे थे। नीता उसी की सहपाठी है, और बहुत अच्छी लड़की है। मेरा लेक्चर बड़े ध्यान से सुनती है। क्या एक शिक्षक स्नेह से अपने विद्यार्थियों के सिर पर हाथ नहीं फेर सकता? मैंने प्रिंसिपल साहब से कह दिया कि चाहे जिसकी कसम खवा लो, मैं नीता के सिर पर ममत्व युक्त स्नेह से हाथ फेर रहा था। सुंदरलाल कहने लगा कि हम भी तो आपके छात्र हैं, हमारे सर पर भी ममत्व वाले स्नेह से हाथ फेरो। ठहर साले! इसी ममत्व वाले हाथ से तेरा टेंटुआ न दबा दूँ_____!
Tuesday, October 23, 2007
राम! बस दस मिनट और रूको _____
मैं संजयनगर दशहरा समिति का अध्यक्ष मनोहरलाल बोल रहा हूँ। जितने भी दर्शक आए हैं शांति बनाए रखें और वह आतिशबाजी का आनंद लें। भगवान राम भी अपनी वानर सेना के साथ मैदान में पधार चुके हैं। रावण दहन शीघ्र ही किया जाएगा। मंच पर हमारे मुख्य अतिथि श्री राजेश पटेल और उनके छोटे भाई विवेक पटेल, दोनों आ चुके हैं। श्री राजेश पटेल मेरे बड़े भाई जैसे हैं और यहाँ के जाने माने समाजसेवक हैं, और जनता के प्रेम में मज़बूर होकर उन्हें राजनीति ज्वाइन करना पड़ा और पिछले 10 वर्ष से राजनीति में सक्रिय हैं। श्री राजेश पटेल ने इस दशहरा उत्सव के आयोजन में अपना भरपूर योगदान दिया है और हमेशा देते रहेंगे। मैं बहुजन समाज पार्टी के युवा नेता भाई कस्तूरी लाल से अनुरोध करता हूँ कि वह मंच पर आकर राजेश पटेल जी का स्वागत करें।
अब मैं कपूर ज्वेलर्स के श्री नेकचंद जैन जी से अनुरोध करता हूँ कि वह भाई राजेश पटेल जी का स्वागत करें। श्री नेकचंद ने तन-मन-धन से इस दशहरा समिति के आयोजन में सहयोग दिया है।
भारतीय युवा मोर्चा के श्री गुमान भाई भी राजेश पटेल जी का स्वागत करें। यह विशाल कुंभकर्ण श्री गुमान भाई के सौजन्य से बना है। कृपया जल्दी-जल्दी मंच पर आएं। गुमान भाई ! और साथ में कमल त्यागी भी आ जाएँ।
एल.आई.जी. कल्याण समिति के सचिव श्री गौतम मंडल हमारे नेता श्री राजेश पटेल जी का स्वागत करेंगे। कृपया ताली बजाते जाएँ। दर्शकों से मेरा निवेदन है कि घेरे के अंदर न घुसें। सिक्योरिटी गार्ड और वालंटियर उधर देखिए क्या हो रहा है?
श्री सखाराम सेठ श्री राजेश पटेल का स्वागत करें।
श्री विद्याधर, सेठ गजानन, सेठ कर्मचंद श्री राजेश पटेल का स्वागत करें। तीनों एक साथ आ जाएँ। श्री राम जी, अपनी वानर सेना को सम्हालिए, बस थोड़ी देर और है, फिर पुतला दहन करते हैं। दर्शक कृपया जल्दबाजी न करें।
अखंड जागरण समिति, कल्याणगंज के मुखिया श्री सुखबीर जी हमारे मुख्य अतिथि श्री राजेश पटेल का स्वागत करेंगे।
सुप्रसिद्ध समाजसेवक यासीन भाई, श्री राजेश पटेल का स्वागत करेंगे। दिगंबर कुर्मी, प्रहलाद सोलंकी, गणेशचंद माँझी श्री राजेश पटेल का स्वागत करेंगे।
संजयनगर के प्रधान श्री कालूराम पासवान मुख्य अतिथि राजेश पटेल का स्वागत करेंगे। श्री नरेंद्र उप प्रधान भी साथ आ जाएँ। श्री रामखिलावन, श्री तेजेंदर खन्ना, श्री .... अरे, राम जी एक मिनट और रूकिए। भगवान राम मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ बस दस मिनट और फिर पुतला...। हे भगवान, बाक़ी का स्वागत बाद में करेंगे... मैं राजेश पटेल जी और श्री विवेक पटेल जी से अनुरोध करता हूँ कि भगवान राम के साथ जाएँ और पुतला दहन में सहयोग करें। पटेल साहब दौड़कर जाइए, अबे राम ! रूक ! पटेल साहब को साथ लेता जा...
Saturday, October 20, 2007
"ट्रांसफ़र का काम है" कहना पर्याप्त नहीं है ____
मेरा नाम सेवाराम है। शिक्षा विभाग में नौकरी करता हूँ। नहीं जी, मास्टर (शिक्षक) नहीं हूँ। ऐसी किस्मत कहाँ। मैं तो मामूली सा क्लर्क हूँ। पोस्टिंग जिला शिक्षा विभाग मुख्यालय, होशंगाबाद में जिला शिक्षा अधिकारी के साथ है। मेरे नाम की तरह ही मेरा काम भी सेवा करने का है।
मुझे शिकायत है कि आजकल लोग अपने कामों को लेकर काफ़ी लापरवाह हो गए हैं। कोई भी लेन-देन या हिसाब-किताब जुबानी रखना ठीक नहीं होता, कभी भी धोखा हो सकता है। अभी पिछले माह की बात है। मेरे पास रामायण प्रसाद आया।
"यह लीजिए दस हज़ार रूपए, ट्रांसफ़र का केस है।" रामायण प्रसाद का काम 'लोगों का काम करवाना' है। नेताओं के आगे पीछे भी फिरता रहता है। लड़का तेज़ है, आगे जाएगा।
"किसका ट्रांसफ़र?" मैंने पूछा।
"तिवरा के रमेश शर्मा, प्राइमरी टीचर का।"
साल में एक बार ट्रांसफ़र का सीजन आता है। इस समय हर सरकारी नौकरी धारी शिक्षक सतर्क हो जाता है। जिसे कोई भूल-सुधार करनी होती है, पूरा मौक़ा मिलता है। कोई पर्दा नहीं है, हर आदमी जानता है कि काम कराना है तो किससे संपर्क करना पड़ेगा।
"दरख़्वास्त कहाँ है?" हर काम के लिए आवेदन पत्र देना आवश्यक होता है।
'वो तो नहीं है। अरे आप लोगों भी कहाँ दरख़्वास्त वगैरह के चक्कर में पड़े हैं। पैसा पूरा एडवांस में दिया है, फिर क्या दिक्कत है।"
"क्या काम है, यह तो पता चले।"
"अभी बताया न, ट्रांसफ़र का काम है।"
"अरे भैया, ट्रांसफ़र रोकना है कि ट्रांसफ़र करवाना है?"
"ट्रांसफ़र रोकने का काम होगा...शायद। कोई ट्रांसफ़र करवाने के पैसे थोड़े ही देता है?" वह हड़बड़ाया।
"ऐसे शायद से काम नहीं चलता भैया, पूरा पक्का करो।
"मैं पक्का कह रहा हूँ ट्रांसफ़र रोकने का ही काम है। आप तो बड़े शक्की आदमी हैं।"
"इसमें मज़ाक नहीं है, ज़िंदगी का सवाल है। आप लोग काम को सीरियसली लिया करो।" मैंने उसे समझाया। "हमें हज़ारों ट्रांसफ़रों का हिसाब रखना पड़ता है। ऐसा करो, पैसा यहीं छोड़ दो। जाकर दरख़्वास्त बना लो, ट्रांसफ़र करना है, कहाँ करना है या रोकना है सब कुछ लिखा होना चाहिए?"
वह भुनभुनाता हुआ चला गया।
पहले एक बार इसी तरह गड़बड़ हो गई थी। किसी सज्जन ने अपने दुश्मन का ट्रांसफ़र रिमोट एरिया में करने के लिए पैसे दिए थे, पर गलती से उनका ही ट्रांसफ़र हो गया। लिया गया पैसा वापस तो हो नहीं सकता था क्योंकि उसमें अधिकारी से लेकर चपरासी तक का हिस्सा रहता है, तो अगले साल दो ट्रांसफ़र फोकट में करने पड़े, बेइज्जती हुई सो अलग।
आप ही बताइए "ट्रांसफ़र का काम है" कहने से क्या क्लीयर होता है? अब यह बात इन झोला छाप नेताओं को कौन समझाए___।
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Thursday, October 18, 2007
मैं सच्चे दिल से ठाकुर साहब की मदद करना चाहता हूँ___
मैं पड़ोसियों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ। बाल-बच्चेदार आदमी हूँ। सुख-दुख तो लगा रहता है। जब हम किसी के काम आएंगे तभी तो कोई हमारे भी काम आएगा। यदि कोई हमारे काम न भी आए तो क्या हुआ, इंसानियत के नाते हमारा जो भी फ़र्ज बनता है, उसे पूरा करना चाहिए।
मैंने एक उसूल बना लिया है। जहाँ भी मौका मिले मदद करने के लिए आगे बढ़ना चाहिए। पड़ोस में ठाकुर साहब के घर शादी है। मैं जानता हूँ कि शादी का घर है, इसमें हज़ारों काम होते हैं। ऐसे में सच्चे पड़ोसी का धर्म निभाने चला गया।
"और ठाकुर साहब, क्या-क्या काम बचा है?"
"अजी, आपके आशीर्वाद सब काम ठीक ही चल रहा है। सारा काम कांट्रैक्टर को दे दिया है। कैटरर, टेंट वगैरह सब वह ठेकेदार देखेगा।"
"फिर भी आप नज़र रखिएगा। इन ठेकेदारों का कोई भरोसा नहीं।"
"वो तो है जी, उससे रोज-रोज मिलकर पूरे काम की रिपोर्ट लेता हूँ। वैसे, बताते हैं कि ये ठेकेदार बढ़िया आदमी है।"
"और मेरे लायक कोई सेवा?" मैंने पूछा। हमारे जमाने में...मुझे याद आता है कि गाँवों में हम लड़के मिल जुलकर सारा काम करते थे। यह ठेकेदार वगैरह तो आज आए हैं। गाँवों में आप अभी भी जा कर देखिए, खाना परोसने से लेकर बारात की पूरी खातिरदारी तक का काम गाँव वाले मिल जुल कर ही करते हैं।
"अभी तो नहीं, जब लगेगी तो बिलकुल याद करेंगे जी। आपको नहीं कहेंगे तो किसको कहेंगे।"
"बिलकुल ठाकुर साहब, कोई भी काम हो, कोई भी ज़रूरत हो तो आधी रात को आवाज़ दीजिएगा.....।"
"एक छोटी सी समस्या है.... हमारे घर बहुत से मेहमान आ गए हैं। काफ़ी भीड़ हो गई है। यदि आपके घर में एक कमरा मिल जाए तो कुछ लोगों को उसमें रूकवा सकते हैं।"
"हाँ क्यों नहीं...पर..." मैं कुछ बोलता रूक गया। मुझे याद आया कि मेरे सास-ससुर भी तो आने वाले हैं।
"अब क्या बताएँ ठाकुर साहब, मेरे सास-ससुर भी कल ही आने वाले हैं। वो ठहरे बूढ़े लोग। ऐसे में कमरा देना तो संभव नहीं हो पाएगा। यदि आप चाहें तो कहीं किराए से लेने के लिए तलाश करूँ?"
"नहीं। फिलहाल तो नहीं। जब लगेगी तब देखेंगे। अरे हाँ, आपके घर पानी का बड़ा ड्रम है। वह एकाध हफ़्ते के लिए मिल जाता तो...? दरअसल पानी की खपत बहुत बढ़ गई है, इसलिए...।"
"ज़रूर, क्यों नहीं।" मैंने कहा। तभी मुझे ध्यान आया कि आजकल पानी की कटौती चल रही है। कई बार नल एक ही टाइम आता है, ऐसे में ड्रम देने से गड़बड़ हो जाएगी। "ओह, ठाकुर साहब, आपको तो पता ही है, मेरे सास-ससुर आ रहे हैं, बूढ़े लोग हैं, तो पानी की खपत बढ़ जाती है। मैं माफ़ी चाहता हूँ, यदि आप कहें तो मैं किसी टेंट वाले से बात करूँ, उनके पास एक्स्ट्रा ड्रम होता है।"
"नहीं कोई बात नहीं, फिलहाल तो काम चल ही रहा है। जब ऐसी नौबत आएगी तो मैं खुद ही टेंट वाले से बात कर लूँगा।"
"कोई और काम हो तो अवश्य बताइएगा।"
"ज़रूर। अरे हाँ, आपके यहाँ एक सिलेंडर एक्स्ट्रा है क्या? हमारा गैस वाला आज शाम तक डिलीवरी करेगा।"
"गैस... " मुझे याद आया कि एक बार हमने इसी तरह एक दिन के लिए सिलेंडर पड़ोस के खान साहब को दिया था। एक हफ़्ते तक उन्होंने सिलेंडर नहीं लौटाया और इसी बीच हमारी गैस ख़त्म हो गई थी।
"हमारा सिलेंडर भी खाली पड़ा है। हमने तो दो तीन दिन पहले बुक कराया था, पर पता नहीं क्यों.. अभी तक आया नहीं, मैं आज पता करता हूँ।"
"कोई बात नहीं जी, मैं कहीं और देख लेता हूँ।"
"और कोई बात हो तो आप निस्संकोच...."
"यह भी कोई कहने की बात है?"
मैं बहुत शर्मिंदा हूँ, और किसी न किसी तरह ठाकुर साहब की कोई मदद करना चाहता हूँ। मेरी अपनी विवशताएँ है, इसी कारण... पर यक़ीन करें। मैं सच्चे दिल से उनकी मदद करना चाहता हूँ।
Tuesday, October 16, 2007
मेरे घर में जो कलेश होगा, उसका कौन जिम्मेदार है___?
आज मैं कैशियर की पोस्ट से रिटायर हो रहा हूँ। मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है, कि अब मैं अपना पूरा समय बच्चों के साथ बिता सकता हूँ। इस विदाई पार्टी में मेरी पत्नी नहीं आ सकीं, परंतु मेरे दोनों बेटे तथा दामाद आए हुए हैं। वह जो कैमरे से फोटो खींच रहा है, मेरा बड़ा लड़का है। मैं बहुत आभारी हूँ कि आप लोगों ने कोई ऐसा-वैसा चुटकुला नहीं सुनाया है।
मन बड़ा इमोशनल हो रहा है। मैं दरअसल देहात का हूँ इसलिए बात-बात पर मेरे मुँह से गाली निकल जाती है। इस नौकरी के दौरान कई लोगों से मेरी गाली-गलौच हुई। सैक्शन हैड से एक बार जूता-चप्पल भी हो चुका है, क्योंकि उन्होंने मेरी छुट्टी स्वीकार नहीं की थी। परंतु मुझे यह जानकर बहुत अच्छा लग रहा है कि आप लोगों में किसी ने भी मेरी बातों का बुरा नहीं माना है। जैसा कि सैक्शन हैड ने अभी बताया मैं साफ़ दिल का आदमी हूँ, जो कुछ जुबान पर आता है बोल जाता हूँ। कोई बात अपने दिल में नहीं रखता। यह अच्छी क्वालिटी है।
अपना सारा चार्ज मैंने पहले ही दे दिया है, परंतु सैक्शन हैड की सर्विस बुक छिपाकर रखी थी। मुझे ऐसा लग रहा था कि वह रिटायरमेंट के समय का क्लेम देने में कुछ दिक्कत कर सकते हैं। परंतु मेरे क्लेम का चेक आ चुका है। सर, मुझे माफ़ कर दीजिए, आपकी सर्विस बुक दरवाज़े के पास वाली केबिनेट के सबसे निचले खाने में है।
मेरे घर में भी कुछ जलपान की व्यवस्था है। मैंने ढोल बजाने वाला भी बुलवा लिया है, और मेरी इच्छा है कि मैं हार पहनकर ढोल बजवाते हुए जुलूस निकालकर अपने घर जाऊँ। आप सभी जो अपना गला तर करना चाहते हैं, कृपया जुलूस में मेरे साथ घर चलें।
आपने सब ने मिलकर राधा-कृष्ण की यह सुंदर मूर्ति मुझे उपहार दी है। मैंने सुना है कि पहले सरस्वती की मूर्ति पसंद की थी, पर कुछ लोगों को धारणा है कि मुझे राधा-कृष्ण अधिक सूट करते हैं, चलो कोई बात नहीं। यह भी भगवान हैं।
सैक्शन हैड ने मेरा लगभग सारा क्लेम आज ही दिलवा दिया, इसके लिए मैं आभारी हूँ। पर अभी भी इन्हें जरा भी अक्कल नहीं आई है। हार पहनाते और राधा-कृष्ण की मूर्ति देते समय दाँत फाड़कर फोटो खिंचवाया, पर चेक को सबको खोलकर क्यों दिखा रहे हैं___!
इसमें साढ़े सात लाख रूपए लिखे हैं, यह भी ज़ोर से पढ़कर सुना दिया है। आप तो वाहवाही लूट गए। अब मेरे घर में इसके लिए जो कलेश होगा, उसका कौन जिम्मेदार है___?
अगले साल इनका भी रिटायर होने का नंबर है। मैं अपने साथियों से प्रार्थना करता हूँ कि सैक्शन हैड साहब को अपने क्लेम का चेक भेंट करें तो उसमें देरी नहीं होनी चाहिए। कोई काम हो तो बेशक मुझे बुलवा लें। मैं फ्री में इनके क्लेम के लिए भाग-दौड़ करने को तैयार हूँ। इनका चेक, रिटारयरमेंट वाले दिन ही इनके सारे परिवार के सामने दिखाकर, फोटो खिंचवाकर भेंट होना चाहिए।
Sunday, October 14, 2007
इतनी मँहगाई में नया प्यार कहाँ मिलेगा____
मेरा नाम सुरेंदर है। हमारा गाम दसरतपुर हरियाणा में पड़ता है जी। हमारे गाँव में बेकारी बहुत है। मेरा मेन काम तो लोहार का है। मैं अपनी दुकान को वर्कशॉप कहता हूँ। अब आप ही बताओ, जिस दुकान में लोहे का काम होता हो, उसे वर्कशॉप कहना क्या गलत है।
आज मैं आपको अपना दुख बताता हूँ जी। मेरी आधी उमर हो गई पर मेरे माँ बाप ने मेरी शादी ना करी। कहते हैं कि कहीं लड़की नहीं मिलती। उनका भी क्या दोष। हमारे इलाके में बहुत कम लड़कियाँ हैं जी, तो शादी के लिए लड़की नहीं मिलती।
पर मैं हाथ-पे-हाथ धरकर ना बैठा। काफ़ी भागी-दौड़ी की तो जाकर एक नेपाल की छोकरी मिली। पूरे पाँच हजार नक़द देने पड़े। उससे शादी करी। तब जाकर जिंदगी में कुछ रौनक आई। पैसा तो फिर आ जावेगा पर एक बार उमर निकल गई तो ना आने की।
मेरा एक चचेरा भाई था जी, उमर में मेरे से बड़ा था और वह भी छड़ा (अविवाहित) था। उसने बड़ा धोखा किया मेरे साथ। वह मेरे घर आता-जाता रहता था। मैं भी सोचता, मेरी घरवाली से थोड़ा हँस-बोल लेता है तो इसमें मुझे क्या दिक्कत है। यह गाँव तो आप जानते ही हो, यहाँ तो रेगिस्तान है जी। इसमें जनानी के पास घड़ी दो घड़ी बैठने से कोई तसल्ली पावे है तो इससे ज़्यादा पुण्य का काम कोई नहीं होता।
वह मेरी घरवाली को भगा ले गया और वह इसी गाँव में दूसरे घर में रहने लगी है। मैंने उससे बहुत झगड़ा किया पर अब वह यहाँ आने को राजी नहीं है। कहती है उसी के साथ रहूँगी। मैं अपने चचेरे भाई से फौजीदारी तो कर नहीं सकता था। इसमें खून-खराबा भी हो सकता था। सो मैं पंचायत गया।
मैंने पंचों से कहा कि मुझे अपनी घरवाली वापस चाहिए। उसे कभी कोई दुख-तकलीफ दिया हो तो मेरी ग़लती। पर उन्होंने मेरी बात ना सुनी। मेरी घरवाली कहती है कि अब उसे मेरे चचेरे भाई से प्यार हो गया है सो वह उसी के साथ रहेगी। मैंने पंचों से कहा कि मेरी घरवाली लौटा दे, चाहे मेरे से पाँच हज़ार और ले और अपने लिए दूसरी ले आए। पर पंचायत ने फैसला सुना दिया कि इसमें जबरदस्ती नहीं चल सकती। यदि इसकी मर्जी है तो वह मेरे चचेरे भाई के साथ ही रहेगी। पर इसके लिए मैंने जो पाँच हजार खर्च किए थे, उसे मुझे लौटाने का हुक्म सुना दिया।
मेरी समझ में नहीं आता कि मेरे प्यार में क्या खोट थी। मैं भी तो जी-जान लगा के प्यार करता था। पाँच हजार रूपए वापस तो मिल गए हैं पर अब मँहगाई बहुत बढ़ गई है। इतने में ऐसी सुंदर जनानी कहाँ मिलगी।
मेरा अभी भी अपने चचेरे भाई से मेल-जोल बना हुआ है। मैं अब उसके घर आता-जाता हूँ। जब तक कोई दूसरी नहीं मिल जाती, इसी से हँस-बोलकर गुजारा करना है____
Saturday, October 13, 2007
हम कथा कीर्तन करने वाले लोग हैं, हमारा रहन-सहन बिलकुल सादा है....
मेरा नाम हरिशरण शास्त्री है। अब आपसे क्या छिपाना, शास्त्र वगैरह की कोई उपाधि नहीं मिली है। जाति से शर्मा ब्राह्मण हूँ। रामकथा कहता हूँ तो भक्तजनों ने स्वयं ही शास्त्री कहना प्रारंभ कर दिया, तो ठीक है। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। आप हमें प्रेम से जिस नाम से पुकारें, उसी नाम से हम आपकी सेवा में हाजिर हो जाएंगे।
पहले मैं कथा, शादी-ब्याह, हवन इत्यादि करवाता था। पर कहते हैं न कि ज्ञानी वही है जो समय के साथ परिवर्तित हो जाता है। मेरी रूचि भी भगवत्कथा कहने में थी। लोग कथा शैली की प्रशंसा करते थे, तो मैंने भागवत तथा रामकथा कहना प्रारंभ कर दिया। अब ढेर सारे भक्त हो गए हैं।
आजकल लोगों की पसंद काफ़ी बदल गई है। लोग हम साधुओं से न जाने कैसी कैसी आस लगाए रहते हैं। कोई चाहता है कि मैं उन्हें योग की बारीकियाँ बताऊँ, तो कोई जन्मपत्री बनवाना और पढ़वाना चाहता है। बड़ी मुश्किल हो जाती है।
भक्तों का विश्वास तोड़ने का जी नहीं करता। इसलिए हाथ और माथा वगैरह देखकर भविष्य तो बता ही देता हूँ। विपत्तियों का तोड़ पूछते हैं, तो उन्हें हवन इत्यादि के उपाय बता देता हूँ। रत्न पहनने की सलाह मैं नहीं देता क्योंकि डरता हूँ कि कोई किसी पुखराज या मूँगे की अंगूठी लेकर आ जाएगा और सही है या गलत, जानना चाहेगा तो उसे संतुष्ट करना कठिन हो जाएगा।
आध्यात्म के क्षेत्र में माँग और पूर्ति का अध्ययन करने के बाद मैंने रामकथा और भागवत के क्षेत्र में काम करने का निश्चय किया है। गोसांई तुलसीदास भी कहते हैं कि रामकथा सुनने से हज़ारों यज्ञों का फल अनायास ही मिल जाता है।
कथा के समय दो-चार भक्त हारमोनियम तथा मंजीरे में संगत भी देते हैं, जिससे कथा और कीर्तन का मिला जुला संगीतमय आध्यात्मिक वातावरण बन जाता है। ये लोग तो विशुद्ध संगीतकार हैं, हमारी तरह साधू-संत नहीं हैं, इसलिए इनका पारिश्रमिक तो देना होगा। आप तो समझते हैं, कथा में इनका महत्व कितना अधिक होता है।
मेरा अपना तो कोई खर्चा नहीं है। आश्रम के लिए जो उचित लगे दे दीजिएगा। रहने की चिंता बिलकुल न करें। आप जैसे किसी गृहस्थ के घर में रह लूँगा। मैं भोजन भी एक ही टाइम करता हूँ। दो रोटी दूध के साथ, बस और कुछ नहीं। कोई ताम झाम मत करिएगा। दूसरे टाइम बस एक कटोरा काजू, किशमिश और फलाहार करता हूँ। सुबह नाश्ते में सादा हलुआ देसी घी में बनवा दीजिएगा। और पीने के लिए दो गिलास गाय का औटाया हुआ दूध आधी कटोरी शहद के साथ दे दीजिए।
सप्ताह में दो दिन तो उपवास ही रहता हूँ। उपवास के दिन मात्र चिरौंजी और किशमिश का सेवन करता हूँ। इसी तरह कुछ कंद मूल, फल-फूल खाकर, गौ माता का दूध पीकर....... अरे कहाँ चले जजमान.....सुनिए तो...... मेरे साथ मेरे कुछ चेले भी हैं जो जय-जयकार करने के लिए साथ ही चलते हैं..... ये लोग भी शाकाहारी ही हैं.........
Thursday, October 11, 2007
कंप्यूटर चलाना बच्चों का खेल नहीं है___
मैं यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हूँ, रिटायरमेंट के लिए चार साल बचे हैं। अब अपनी बात क्या बताऊँ, यहाँ बड़ी पॉलिटिक्स है। जो टैलेंटेड लोग हैं उन्हें आगे बढ़ने का मौक़ा ही नहीं मिलता। मुझे भी हर क़दम में बड़ी फाइट करनी पड़ी है।
अभी दो माह पहले की बात है। डिपार्टमेंट में कंप्यूटर आया। उसे हेड साहब ने अपने कमरे में लगवा लिया जबकि मेरे कमरे में लगना चाहिए था, क्योंकि मैंने यू.एस. में रिसर्च वर्क के दौरान कंप्यूटर पर बहुत काम किया था। इसलिए मुझे ही मालूम है कि कंप्यूटर कितना सोफेस्टिकेटेड इंस्ट्रूमेंट होता है, और उसे कैसे हैंडल करना है। ख़ैर, जब दूसरा कंप्यूटर आया तो उसके लिए मैंने पूरी फ़ाइट की और अपने कमरे में रखवा लिया।
मुझे कोई परेशानी नहीं है, आप भी आइए, इसमें काम कीजिए और अच्छे से ढक कर चले जाइए। पर मुझे लगता है कि यहाँ इंडिया में लोगों को इसे ठीक से हैंडल करना आता नहीं है। सही गलत-सलत बटन दबाते हैं और ख़राब कर देते हैं।
अभी परसों ही मैंने सुनील को डाँटा। अभी टेंपरेरी है पर जब तब काम करने के बहाने मुँह उठाए कंप्यूटर पर बैठ जाता है।
"सुनिए मिस्टर, आप इस कंप्यूटर चेयर धीरे बैठा करिए। यह बड़ा सोफेस्टिकेटेड होता है। इसमें झूला मत झूलिए।"
"ओके सर। मैं ध्यान रखूँगा।"
"और आप इतनी तेज़ी से कीबोर्ड पर बटन क्यों दबाते हैं। एक-एक अक्षर बारी-बारी से जाने दीजिए। एक साथ कई अक्षर भेजते हैं तभी तो कंप्यूटर हैंग हो जाता है।"
"बट सर, कीबोर्ड पर बटन तो..."
"अब आप मुझे मत समझाइये, कॉपी-पेस्ट करने के लिए आपको एडिट में जाना चाहिए। आप शार्टकट से कर लेते हैं। मैं आपसे बड़ा हूँ इसलिए आपके भले के लिए बताता हूँ कि ज़िंदगी में कभी भी शार्टकट अपनाना ठीक नहीं है।"
"पर इसमें शार्टकट...."
"आप इसमें म्यूज़िक कैसे चलाते हैं। इट इज़ नॉट मेंड फ़ॉर म्यूज़िक। आपको म्यूजिक सुनना है तो अलग साउंड सिस्टम ले आइए...."
"सॉरी सर, मैं...."
"आई वोंट एलाऊ यूज़लेस वर्क हियर! आप बताइए मुझे इसे पासवर्ड लॉक कैसे किया जाता हैं?"
"सर, जहाँ तक मेरी जानकारी है पासवर्ड का प्रोवीज़न नहीं है।"
'अच्छा !! मैं इतना तो जानता हूँ कि पासवर्ड सिस्टम हर कंप्यूटर में होता है। आप मत बताइए, मैं इसके इंजीनियर से पूछ लूँगा। गेट आउट!"
पता नहीं क्या, आज कल के लौंडे आप को फन्ने खाँ समझते हैं। मैं तब से कंप्यूटर चलाता हूँ जब तुम पैदा भी नहीं थे। जब जी चाहा, बिना हाथ पैर वाश किए कंप्यूटर में आ जाते हैं। कहीं इसमें वायरस आ गया तो?
Tuesday, October 9, 2007
वह इस क़ाबिल नहीं, कि अपनी ज़िंदगी ठीक से गुज़ार पाए___
काले कोट का अपना अलग महात्म्य होता है। वक़ील काला चोगा पहनते हैं, और हम टी.सी. लोग काला कोट। टी.सी., यानि कि ट्रेन के टिकट चेकर, आप टी.टी.ई. भी कह सकते हैं। आपके लिए बात एक ही है।
"देखिए सर, कोई बर्थ खाली हो तो...", उस व्यक्ति ने बड़ी आशा भरी नज़रों से देखा। यह बात दूसरे दर्जे के स्लीपर डिब्बों की है। उसके पास वेटिंग टिकट था।
"कोई चांस नहीं, पूरी गाड़ी फुल है।" मैंने उसकी ओर बिना देखे ही जवाब दिया।
लोगों को अकसर यह ग़लतफ़हमी होती है कि हम उनकी तरफ़ गौर नहीं करते हैं। यूँ तो हमारी नज़र चार्ट पर रहती है, परंतु हम सामने वाले की औक़ात का अंदाज़ा बख़ूबी लगा लेते हैं। लोग आशा भरी नज़रों से हमें घेरकर खड़े होते हैं मानों प्रसाद पाने में वे कहीं वह पीछे न रह जाएँ।
वह व्यक्ति एक महिला के साथ यात्रा कर रहा था। ज़रूरतमंद तो था ही, पर उसकी ज़रूरत दूसरों से ज़्यादा है, मुझे इसका कोई संकेत नहीं मिल पाया। जो यात्री अनुपस्थित होते हैं, उनकी खाली सीटों को हम नियमानुसार आबंटित कर देते हैं।
मैं कुछ देर बाद उसके पास गया और बोला - "अपनी टिकट दिखाइए", उसने टिकट सामने कर दी।
"एक सीट महिला कोटे की है, दे रहा हूँ", और मैंने उसके टिकट पर सीट नंबर लिख दिया।
"थैंक्यू सर!" वह खुश हो गया।
"बस। खाली थैंक्यू? कुछ दक्षिणा नहीं देंगे?" मुझे आखिरकार खीझ आ गई। लोग एक बर्थ के लिए दो-तीन सौ रूपए तो वैसे ही दे देते हैं।
"ज़रूर सर।" और उसने दस रूपए का नोट निकाल लिया।
"बस! दस रूपए!"
"जी। बस इतना ही।" वह बोला। मैं एक मिनट तक उस दस रूपए को उलट पलट कर देखता रहा, शायद और कुछ निकाले। पर उसने उल्टे ऐसी नज़रों से देखना शुरू किया जिसका मतलब साफ था कि यदि आपको दस रूपए मंज़ूर नहीं, तो लौटा दीजिए।
"मैं हाथ आई लक्ष्मी को नहीं ठुकराता", मैंने वह नोट जेब में रख लिया।
वह इस क़ाबिल नहीं था कि मैं उससे कुछ बहस करूँ। वह इस क़ाबिल भी नहीं था पूरी ज़िंदगी में कभी भी कनफ़र्म बर्थ हासिल कर पाता। मैं यही सोचता हूँ कि वह अपनी लाइफ़ कैसे गुज़ारेगा...। आपको क्या लगता है?
Sunday, October 7, 2007
काश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है___!
मैं दिल्ली पुलिस का सिपाही हूँ। एक बार रिश्तेदारों के साथ वैष्णोदेवी के दर्शन करने चल पड़ा। बाहर आना जाना हो तो अपनी खाक़ी वर्दी पहन लेता हूँ, इसका बड़ा रौब पड़ता है। सभी लोग वर्दी की इज़्ज़त करते हैं इस नाते अपनी भी इज़्ज़त हो जाती है।
माता की कृपा से यात्रा बड़ी अच्छी रही। माता के दर्शन हो गए। घर लौटते वक़्त थोड़ा पंगा पड़ गया। कोई दस-बारह साल का लड़का जम्मू स्टेशन में केले बेच रहा था।
"ओए इधर आ" मैंने ट्रेन से उसे हाथ देकर बुलाया। "केले कैसे दिए, इधर दिखा"।
उसके कानों में जूँ न रेंगी।
"ओए इधर आ" मैंने फिर आवाज़ लगाई।
"आप पैसे नहीं दोगे" उसने कहा।
"रूक साले।" मैंने उसका गिरहबान पकड़ना चाहा। पर वह तेजी से छुड़ाकर भाग गया। इसी दौरान मेरी घड़ी गिरकर टूट गई। वह दूर खड़ा दाँत दिखाता रहा।
मुझे ताज्जुब हुआ कि वह कमबख़्त कैसे जानता था कि मैं उसे पैसे नहीं देने वाला हूँ। मैं तो उससे पहले कभी मिला ही नहीं। वह मेरी वर्दी देखकर समझ गया था। कमीने ने रिश्तेदारों के सामने मेरा पानी उतार दिया।
मैं खड़ा-खड़ा उसका सारा खानदान एक करता रहा। मन किया कि पकड़कर मजा चखाऊँ, वह जानता था मैं उसे दौड़ाकर पकड़ नहीं पाऊँगा।
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Wednesday, October 3, 2007
सिस्टम से काम करो, तो कस्टमर को सैटिस्फैक्शन होगा।
मेरा छोटा सा गैराज है बल्कि यूँ कहो कि स्कूटर और मोटरसाइकिल रिपेयरिंग की दुकान है। स्कूटर रिपेयरिंग में इस गैराज का अच्छा खासा नाम है। आस-पास के इलाके का हर कस्टमर इस गैराज पर आता है। मैं खुद भी काम करता हूँ, तथा चार-पाँच और लड़के रखे हैं। इनमें 3 को तनख्वाह देता हूँ और दो अभी छोटे हैं, काम सीख रहे हैं।
गैराज चलाना बड़ा मुश्किल है। दो मिनट के लिए किसी काम से इधर-उधर जाओ, तो कामचोरी चालू हो जाती है। एक-एक लड़के को अपने हाथों से काम सिखाता हूँ।
ऐसे भी कस्टमर आते हैं, छोटे बच्चों को काम करता देखकर उनका जी पसीज जाता है, कभी कभी वह पढ़ने की सलाह भी देते हैं। मैंने अपने लड़कों से साफ़ कह रखा है, सिर्फ़ काम पर ध्यान देना है, कस्टमर की बात पर ध्यान नहीं देना है। यह सब बड़े लोगों के टाइम पास की बातें हैं। एक-दो लड़के छोटे हैं, इन्हें दुनियादारी की समझ नहीं है, धीरे-धीरे सारी बातें समझ जाएंगे।
अभी कल की ही बात है, एक लड़के को डाँटना पड़ा। एक स्कूटर का क्लच ढीला था, उसने अपनी उंगलियों से उसका नट टाइट कर दिया। काम हो गया, कस्टमर थैंक्यू बोलकर चलता बना।
मैंने हज़ार बार समझाया है "बेटे, चोट लग सकती है। ऐसे कभी अपने हाथों से कोई नट-बोल्ट टाइट मत करो, रिंच और पेंचकस लेकर जाओ। कोई नट ढीला हो तो उसे निकालकर दुकान से दूसरा नट लगा दो।"
नहीं जनाब, पैसे की बात नहीं है, सिस्टम की बात है। मैं एकाध नट का पैसा यूँ भी नहीं लेता। सिस्टम से काम करो तो कस्टमर को भी सैटिस्फैक्शन होगा। बच्चे अभी नादान हैं, इस बात को समझने में इन्हें टाइम लगेगा।
Tuesday, October 2, 2007
अब वह क़ानून तोड़ने की जुर्रत कभी नहीं करेगा!
आज हमारे पुलिस थाने में मकानदार और किराएदार का झगड़ा आया। मकानदार ने दो लड़कों को किराए पर कमरा दिया था। दोनों साल भर रहे, और अब छोड़ते समय दो महीने का किराया देने में अनाकानी करने लगे, मांगने पर गाली-गलौच करने लगे। दोनों पक्षों में हाथापाई की नौबत आ गई।
इस शहर में डकैती, क़त्ल के इतने सारे अपराध हो रहे हैं, उन पर ध्यान दें कि इनका झगड़ा निपटाएँ। पर क़ानून दोनों पक्षों ने तोड़ा है। साफ पुलिस केस है। कार्रवाई तो करनी पड़ेगी।
दोनों किराएदार लड़कों को दो-दो थप्पड़ लगाए और दोनों ने बड़ी आसानी से बक़ाया किराया दे दिया। मकानदार ने भी क़ानून तोड़ा था। किसी भी व्यक्ति को अपने घर किराए पर रखने से पहले उसने पुलिस को सूचित नहीं किया था। उसे भी बिठा लिया। उसकी यह ग़लती बड़ी गंभीर थी, इससे कोई आतंकवादी वारदात भी हो सकती थी।
उसे अच्छी तरह से समझाया कि उसका अपराध कितना गंभीर है। घबराइये नहीं, उसे थप्पड़ नहीं लगाया। वह खुद ही आकर 10 हज़ार रूपए दे गया। अब वह क़ानून तोड़ने की जुर्रत कभी नहीं करेगा।
Monday, October 1, 2007
खाता खुलवाने के लिए यही बैंक मिला है!
इतनी देर से मेरे काउंटर के सामने खड़ा है और बैंक के खाता खोलने का फ़ॉर्म मांग रहा है। मैं उसे अनदेखा कर अपने दूसरे कामों में व्यस्त होने का दिखावा कर रहा हूँ। मुझे दिखावा करने की क्या ज़रूरत है? मेरे पास वैसे ही बहुत काम है।
"अभी फार्म खत्म हो गए हैं कल आना!"
वह फिर भी नहीं टलता। मैं उठकर अंदर टेलीफ़ोन करने चला जाता हूँ। उसे लगता है कि मैं उसकी जिद से हार मानकर फ़ॉर्म लाने कहीं अंदर गया हूँ। इन लोगों ने तंग कर रखा है। यहाँ वैसे ही बहुत भीड़ रहती है। इतने सारे दूसरे बैंक हैं, उनकी अच्छी-अच्छी सुविधाएँ है, तो वहाँ जाकर अपना खाता क्यों नहीं खुलवाते।
वह अभी भी डटा है।
"क्या एक बार में सुनाई नहीं देता!" मैं झल्ला उठा। हमें भी इनसे नाराजगी से बात करना अच्छा नहीं लगता, पर क्या करें मज़बूरी है। इतनी डांट-डपट न करें तो यह हमारा जीना मुश्किल कर देंगे।
वह वापस जा रहा है। पर मैं जानता हूँ कि वह कल वह फिर आएगा। कमबख़्त ने परेशान कर दिया। पब्लिक डीलिंग का काम सचमुच कितना टेंशन वाला है।
Friday, September 28, 2007
पुष्पा देवी से क्या काम है? हमसे कहिए___
पुष्पा देवी हमारी पत्नी का नाम है। हाँ वही सरपंच पुष्पा देवी। घर पर ही हैं, परंतु आपको उनसे क्या काम है? हमसे कहिए!
इस देश के सरकार की इच्छा थी कि यहाँ से सरपंच कोई महिला बने, सो हमने यह अपनी धर्मपत्नी पुष्पादेवी को बना दिया है। सरकार ने अपना काम कर लिया, पर हमें तो अपना काम अपने हिसाब से ही करना है। सभ्य परिवारों की महिलाएँ पंचायत पर जाकर नहीं बैठतीं। यह काम हम ही देखते हैं। जिसका काम उसी को साजै। उनका काम है रोटी बनाना और बच्चे पैदा करना। और इस काम में वह माहिर है।
क्या? आपको उनसे मिलना है? ठीक है। यह रहीं श्रीमती पुष्पा देवी। घूँघट में ही ठीक हैं। मुँह देखकर क्या कीजिएगा। अच्छा ! उनसे दस्तखत करवाना है? लीजिए यहाँ हमारे पास लाइए, हम करे देते हैं।
दस्तखत में कोई गड़बड़ी नहीं है। आप बेफ़िक्र और बेधड़क होकर जाइए, सारे रिकॉर्ड में ऐसे ही दस्तखत हैं।
इस देश के सरकार की इच्छा थी कि यहाँ से सरपंच कोई महिला बने, सो हमने यह अपनी धर्मपत्नी पुष्पादेवी को बना दिया है। सरकार ने अपना काम कर लिया, पर हमें तो अपना काम अपने हिसाब से ही करना है। सभ्य परिवारों की महिलाएँ पंचायत पर जाकर नहीं बैठतीं। यह काम हम ही देखते हैं। जिसका काम उसी को साजै। उनका काम है रोटी बनाना और बच्चे पैदा करना। और इस काम में वह माहिर है।
क्या? आपको उनसे मिलना है? ठीक है। यह रहीं श्रीमती पुष्पा देवी। घूँघट में ही ठीक हैं। मुँह देखकर क्या कीजिएगा। अच्छा ! उनसे दस्तखत करवाना है? लीजिए यहाँ हमारे पास लाइए, हम करे देते हैं।
दस्तखत में कोई गड़बड़ी नहीं है। आप बेफ़िक्र और बेधड़क होकर जाइए, सारे रिकॉर्ड में ऐसे ही दस्तखत हैं।
Wednesday, September 26, 2007
हाँ! मैं तुम्हारा किसान भाई हूँ, मुझे अपने घर ले चलो।
मेरा नाम मंगत राम है। पढ़ा लिखा नहीं हूँ। खेती बहुत कम है इसलिए कभी मज़दूरी तो कभी खेती कर अपना गुज़ारा करता हूँ। जिस गाँव में मैं रहता हूँ वह शहर के पास ही है। कभी कभार वहाँ के अफ़सर झुंड बनाकर गाँवों का दौरा करते हैं। गाँवों का दुख देखकर दुखी होते हैं, हमारे फ़ायदे की बातें बताते हैं, फ़ोटो वगैरह खिंचवाते हैं और चले जाते हैं।
पढ़े लिखे लोग, सूट बूट पहनकर हमारे लिए इतनी चिंता करते हैं, जानकर बहुत अच्छा लगता है। चाहें तो वह अपने-अपने घरों में भी बैठकर अपनी रिपोर्टें बना सकते हैं, उनसे कौन पूछने वाला है? पर नहीं, ये गाँवों की धूल खाते हैं, हमारी समस्याएँ सुनते हैं, हमारे साथ इतने आदर से बात करते हैं, यहाँ के शुद्ध हवा पानी की तारीफ़ करते हैं, और हमारा कलेजा गर्व से फूल जाता है।
हम ही इनका सत्कार ठीक से नहीं कर पाते। भाषण देने के लिए माइक का इंतज़ाम तो कर दिया पर बिजली नहीं रहती इसलिए माइक चलता नहीं। इन्हें बिना माइक के बोलना पड़ता है। इनमें से कई लोगों का गला बैठ जाता है।
सभी भाषण की शुरूआत करते हैं - "किसान भाइयों!" और उसके बाद कोई ग़रीबों के लिए कल्याण की बात करता है, कोई ग्रामीणों और कोई किसानों की बात करता है। सभी लगभग एक जैसी बात करते हैं। बस कभी उनके मुँह से किसान, कभी ग़रीब और कभी ग्रामीण निकलता है। उन्हें "किसान", "ग़रीब" और "ग्रामीण" तीनों समानार्थी लगते हैं। सचमुच, कितनी महत्वपूर्ण बात है। जो गाँवों में रहता है, उसकी आजीविका के लिए खेती ही बची है इसलिए वह किसान हुआ, और जो किसान है उसका ग़रीब होना स्वाभाविक है। इसलिए बात एक ही है। शब्द कुछ भी हो, बात हमारी ही होती है।
पता नहीं क्यों मुझे आजकल "किसान भाइयों!" सुनना अच्छा नहीं लगता। मन करता है कि भाषण रोक कर कहूँ, "ठीक है, मैं तुम्हारा किसान भाई हूँ मुझे अपने घर ले चलो। अपने घर-द्वार का आधा हिस्सा मुझे दे दो।"
Tuesday, September 25, 2007
मशीनें हमें सिखाती हैं!
मशीनों ने अपने काम से लोगों को कई प्रकार की सीख प्रदान की है। कोई यह सीखता है कि अनुशासन क्या है और कोई यह कि बिना रुके कैसे लगातार काम करते हैं। मैं यहाँ उन रिकॉर्डिंग मशीनों की बात कर रहा हूँ जो टेलीफ़ोन के साथ जोड़ी जाती हैं, तथा मधुर आवाज़ में कॉल करने वालों का मार्गदर्शन करती हैं।
थोड़ा फ़्लैश बैक... दो साल की बात है। मैं बिजली के दफ़्तर (हेल्पलाइन पर) फोन करता था, मेरा फ़ोन उठाने के लिए वहाँ कोई मौजूद नहीं होता। घंटी बजती जाती। मैं फिर फोन करता, फिर घंटी बजती जाती। ऐसा प्रतीत होता कि वहाँ बैठा व्यक्ति अत्यंत व्यस्त है और उसे फ़ोन उठाने का वक़्त नहीं मिल पा रहा है। कभी-कभी तो फ़ोन के इंगेज होने की टोन सुनाई पड़ती। यह टोन घंटों तक क़ायम रहती। ऐसा जान पड़ता कि उस फ़ोन पर बैठा व्यक्ति किसी अज्ञात ज़रूरतमंद से बात कर रहा है और उसकी समस्या हेल्पलाइन पर ही हल कर रहा है। कभी भूले-भटके कोई उठा लेता तो उसके बात करने का अंदाज़ अत्यंत रूखा होता। लगता कि समस्या का समाधान भले न हो पर बात तो ठीक से होनी चाहिए।
शायद उन्हें यह बात जँच गई, कि समस्या का समाधान हो न हो, पर बात तो मीठी होनी चाहिए। उन्होंने वहाँ कोई मशीन लगाई। अब एक घंटी बजने के बाद संगीतमय मीठी आवाज़ में उत्तर मिलता – "यहाँ (दफ़्तर का नाम) में आपका स्वागत है। आपकी कॉल हमारे लिए महत्वपूर्ण है।" और बाक़ी की घंटी उसके बाद बजती रहती। इधर फ़ोन करने वाले की कॉल का मीटर चल पड़ता। शिकायत तो दर्ज नहीं जो पाती पर अब मेरी हिम्मत नहीं कि मैं बार-बार फ़ोन करता। उन्होंने ग्राहकों को मीठी आवाज़ सुनाने वाली समस्या का समाधान जो कर दिया था।
अभी पिछले दिनों की बात है। मैंने इंटरनेट ख़राब होने की शिकायत दर्ज करने के लिए अपने इंटरनेट प्रदाता (महानगरों की जीवनरेखा) के हेल्पलाइन नंबर पर फ़ोन किया। हेल्पलाइन नंबरों की विशेष बात यह है वह बेहद आसान होते हैं ताकि उन्हें डायल करने में कोई कठिनाई न हो, मैं गदगद हो गया, उन्हें हमारा कितना ख्याल है। अब नंबर डायल करने पर मीठी आवाज ने अहसास दिलाया कि मेरी कॉल उनके लिए कितनी महत्वपूर्ण है और एक-एक कर मुझसे कई नंबर दबवाए। ताज्जुब की बात है कि वह आवाज़ एक स्वचलित मशीन से आ रही थी। इसी मशीन ने मेरा प्रतीक्षा काल 100 सेकंड बताया जिसे मैंने सब्र से बिताया। अभी तक किसी जीवित व्यक्ति से कोई बात नहीं हो पाई थी। 100 सेकंड बीत गए, मशीन बताती रही कि मेरी अहमियत उनकी नज़रों में कितनी ज़्यादा है, मैं अपनी बारी का इंतज़ार करता रहा, 200, 300, 400 सेकंड भी बीत गए पर मेरा प्रतीक्षाकाल समाप्त नहीं हुआ।
मैंने फिर से नए सिरे से दो-तीन बार प्रयास किया पर हर बार यही हुआ। ऐसा लगा कि काश! यह बोलने वाली मशीन मेरे सामने होती, या इसे लगाने वाला व्यक्ति मुझे कहीं मिल जाता ! मैने सब्र से काम लिया। इस मशीन ने सिखाया कि मनुष्यों को परेशानी में सब्र से काम लेना चाहिए।
इसी मशीन में एक विकल्प था कि मैं अपना नाम तथा फ़ोन नंबर बोलकर दर्ज करा दूँ ताकि मेरी बारी आने पर कस्टमर केयर अधिकारी स्वयं फ़ोन कर लेगा। मैंने यह भी किया। अपना नाम तथा फ़ोन नंबर पिछले तीन दिनों से 4 बाद दर्ज करा चुका हूँ पर अभी तक किसी का फ़ोन नहीं आया।
इससे भी मुझे एक सीख मिली। वह सीख थी "कर्म किए जा, फल की इच्छा मत कर!"
थोड़ा फ़्लैश बैक... दो साल की बात है। मैं बिजली के दफ़्तर (हेल्पलाइन पर) फोन करता था, मेरा फ़ोन उठाने के लिए वहाँ कोई मौजूद नहीं होता। घंटी बजती जाती। मैं फिर फोन करता, फिर घंटी बजती जाती। ऐसा प्रतीत होता कि वहाँ बैठा व्यक्ति अत्यंत व्यस्त है और उसे फ़ोन उठाने का वक़्त नहीं मिल पा रहा है। कभी-कभी तो फ़ोन के इंगेज होने की टोन सुनाई पड़ती। यह टोन घंटों तक क़ायम रहती। ऐसा जान पड़ता कि उस फ़ोन पर बैठा व्यक्ति किसी अज्ञात ज़रूरतमंद से बात कर रहा है और उसकी समस्या हेल्पलाइन पर ही हल कर रहा है। कभी भूले-भटके कोई उठा लेता तो उसके बात करने का अंदाज़ अत्यंत रूखा होता। लगता कि समस्या का समाधान भले न हो पर बात तो ठीक से होनी चाहिए।
शायद उन्हें यह बात जँच गई, कि समस्या का समाधान हो न हो, पर बात तो मीठी होनी चाहिए। उन्होंने वहाँ कोई मशीन लगाई। अब एक घंटी बजने के बाद संगीतमय मीठी आवाज़ में उत्तर मिलता – "यहाँ (दफ़्तर का नाम) में आपका स्वागत है। आपकी कॉल हमारे लिए महत्वपूर्ण है।" और बाक़ी की घंटी उसके बाद बजती रहती। इधर फ़ोन करने वाले की कॉल का मीटर चल पड़ता। शिकायत तो दर्ज नहीं जो पाती पर अब मेरी हिम्मत नहीं कि मैं बार-बार फ़ोन करता। उन्होंने ग्राहकों को मीठी आवाज़ सुनाने वाली समस्या का समाधान जो कर दिया था।
अभी पिछले दिनों की बात है। मैंने इंटरनेट ख़राब होने की शिकायत दर्ज करने के लिए अपने इंटरनेट प्रदाता (महानगरों की जीवनरेखा) के हेल्पलाइन नंबर पर फ़ोन किया। हेल्पलाइन नंबरों की विशेष बात यह है वह बेहद आसान होते हैं ताकि उन्हें डायल करने में कोई कठिनाई न हो, मैं गदगद हो गया, उन्हें हमारा कितना ख्याल है। अब नंबर डायल करने पर मीठी आवाज ने अहसास दिलाया कि मेरी कॉल उनके लिए कितनी महत्वपूर्ण है और एक-एक कर मुझसे कई नंबर दबवाए। ताज्जुब की बात है कि वह आवाज़ एक स्वचलित मशीन से आ रही थी। इसी मशीन ने मेरा प्रतीक्षा काल 100 सेकंड बताया जिसे मैंने सब्र से बिताया। अभी तक किसी जीवित व्यक्ति से कोई बात नहीं हो पाई थी। 100 सेकंड बीत गए, मशीन बताती रही कि मेरी अहमियत उनकी नज़रों में कितनी ज़्यादा है, मैं अपनी बारी का इंतज़ार करता रहा, 200, 300, 400 सेकंड भी बीत गए पर मेरा प्रतीक्षाकाल समाप्त नहीं हुआ।
मैंने फिर से नए सिरे से दो-तीन बार प्रयास किया पर हर बार यही हुआ। ऐसा लगा कि काश! यह बोलने वाली मशीन मेरे सामने होती, या इसे लगाने वाला व्यक्ति मुझे कहीं मिल जाता ! मैने सब्र से काम लिया। इस मशीन ने सिखाया कि मनुष्यों को परेशानी में सब्र से काम लेना चाहिए।
इसी मशीन में एक विकल्प था कि मैं अपना नाम तथा फ़ोन नंबर बोलकर दर्ज करा दूँ ताकि मेरी बारी आने पर कस्टमर केयर अधिकारी स्वयं फ़ोन कर लेगा। मैंने यह भी किया। अपना नाम तथा फ़ोन नंबर पिछले तीन दिनों से 4 बाद दर्ज करा चुका हूँ पर अभी तक किसी का फ़ोन नहीं आया।
इससे भी मुझे एक सीख मिली। वह सीख थी "कर्म किए जा, फल की इच्छा मत कर!"
Saturday, September 22, 2007
प्रिंटर खराब है ! Printer is Out of Order !
मैं कोई ऐरा-गैरा प्रिंटर नहीं हूँ, मेरी ड्यूटी सरकारी बैंकों में पासबुक अपडेट करने में लगाई जाती है। हर आम ग्राहक (जिसके लिए पासबुक की नियमित एंट्री मायने रखती है), मेरी सलामती की दुआ मांगता है, क्योंकि मैं आए दिन खराब घोषित कर दिया जाता हूँ। बैंकों में खराब होने वाला इकलौता प्रिंटर होता हूँ, जिसके खराब होने से सबसे ज़्यादा ग्राहकों को मायूस होना पड़ता है।
मैं जब भी खराब होता हूँ, पूरे दिन अपनी जगह पर पड़ा रहता हूँ। ग्राहक गवाह हैं कि मुझे मरम्मत के लिए कहीं नहीं भेजा जाता, और न ही कोई इंजीनियर मुझे दुरूस्त करता दिखाई पड़ता है। फिर भी कुछ ऐसा चमत्कार होता है कि अगले दिन (यदि खराब रहने का दिन न हो तो) मैं चल पड़ता हूँ। शायद खराबी मामूली होती है जो बिना किसी मशक्कत के ठीक हो जाती है। परंतु अफ़सोस होता है, कि पूरे दिन अनेक ग्राहक मायूस लौट जाते हैं। मेरा कोई भाई बंद नहीं होता। पूरे बैंक में मैं अपने काम के लिए इकलौता होता हूँ।
पहले-पहल मेरे खराबी की सूचना काउंटर पर बैठा व्यक्ति बोलकर देता था। फिर सादे काग़ज़ पर लिख कर देने लगा। अब तो बक़ायदा एक सुंदर और टिकाऊ बोर्ड बनाया गया है। जिसमें हिंदी तथा अंग्रेज़ी दोनों में सुंदर, सुपाठ्य शब्दों में मेरे खराब होने की बात लिखी गई है, ताकि पढ़ने वाले को भी आराम रहे और जब भी ज़रूरत हो मुझे तुरंत लगाया जा सके।
ऐसा लग रहा है जैसे किसी ऑफ़िस में ''माँ बीमार है, इसलिए ---- दिन से ---- दिन की छुट्टी चाहिए'' वाले आवेदन पत्र को थोक में छपवाकर रख लिया है कि आवेदन देने वालों और पढ़ने वाले, दोनों को कम-से-कम कष्ट हो।
मैं जब भी खराब होता हूँ, पूरे दिन अपनी जगह पर पड़ा रहता हूँ। ग्राहक गवाह हैं कि मुझे मरम्मत के लिए कहीं नहीं भेजा जाता, और न ही कोई इंजीनियर मुझे दुरूस्त करता दिखाई पड़ता है। फिर भी कुछ ऐसा चमत्कार होता है कि अगले दिन (यदि खराब रहने का दिन न हो तो) मैं चल पड़ता हूँ। शायद खराबी मामूली होती है जो बिना किसी मशक्कत के ठीक हो जाती है। परंतु अफ़सोस होता है, कि पूरे दिन अनेक ग्राहक मायूस लौट जाते हैं। मेरा कोई भाई बंद नहीं होता। पूरे बैंक में मैं अपने काम के लिए इकलौता होता हूँ।
पहले-पहल मेरे खराबी की सूचना काउंटर पर बैठा व्यक्ति बोलकर देता था। फिर सादे काग़ज़ पर लिख कर देने लगा। अब तो बक़ायदा एक सुंदर और टिकाऊ बोर्ड बनाया गया है। जिसमें हिंदी तथा अंग्रेज़ी दोनों में सुंदर, सुपाठ्य शब्दों में मेरे खराब होने की बात लिखी गई है, ताकि पढ़ने वाले को भी आराम रहे और जब भी ज़रूरत हो मुझे तुरंत लगाया जा सके।
ऐसा लग रहा है जैसे किसी ऑफ़िस में ''माँ बीमार है, इसलिए ---- दिन से ---- दिन की छुट्टी चाहिए'' वाले आवेदन पत्र को थोक में छपवाकर रख लिया है कि आवेदन देने वालों और पढ़ने वाले, दोनों को कम-से-कम कष्ट हो।
Thursday, September 20, 2007
दस्तूर ही ऐसा है, इसमें हमारी क्या गलती है।
फोटो : साभार BBCHindi.com
क्या मायावती जी, आपने तो हमारी नौकरी भी छीन ली है। एक तो अपना घर-द्वार बेचकर घूस दिया, हाथ पैर जोड़कर नौकरी मिली, वह भी छिन गई। अब आप कहेंगी कि घूस देना ग़लत है। अरे भाई, बिना घूस लिए आजकल नौकरी कोई देता है? वह भी पुलिस की? हाँ आप लोगों की नहीं दिया उन्हें दे दिया, यह ग़लती हो गई। हमारे लिए तो जैसे आप वैसे वो। हमारे जेब से कहीं तो जाना था, सो चला गया। हमने नौकरी की खुशी में पार्टी भी दे डाली थी। उसका बीस हज़ार का खर्चा अलग हुआ। बापू को हमारे जैसा होनहार बेटा पैदा करने पर नाते-रिश्तेदार और गाँववाले बधाई दे चुके है। हम भी गाँव के बच्चों को खूब पढ़-लिख कर कुछ बनने की तैयारी का लेक्चर दे चुके हैं। अब इन सब को क्या मुँह दिखाएंगे?
इतना ही नहीं, बहन के लिए अपने जैसा ही एक कमाऊ और होनहार लड़का देखकर रिश्ता पक्का किए थे। अभी शादी नहीं हो पाई थी कि उसकी नौकरी भी चली गई। नौकरी वाला लड़का ढूँढने में कितनी मेहनत लगती है क्या आप जानती हैं? सोचा था होनहार है, दरोगा लग गया है, बहन को कोई तक़लीफ़ नहीं होगी, पर हमारे सारे अरमान मिट्टी में मिल गए। और तो और, दहेज का एक लाख रूपया एडवांस भी दे चुके हैं, वह कैसे वापस मिलेंगे।
अब आप यह मत कहना कि दहेज लेना-देना भी ग़लत है।
क्या मायावती जी, आपने तो हमारी नौकरी भी छीन ली है। एक तो अपना घर-द्वार बेचकर घूस दिया, हाथ पैर जोड़कर नौकरी मिली, वह भी छिन गई। अब आप कहेंगी कि घूस देना ग़लत है। अरे भाई, बिना घूस लिए आजकल नौकरी कोई देता है? वह भी पुलिस की? हाँ आप लोगों की नहीं दिया उन्हें दे दिया, यह ग़लती हो गई। हमारे लिए तो जैसे आप वैसे वो। हमारे जेब से कहीं तो जाना था, सो चला गया। हमने नौकरी की खुशी में पार्टी भी दे डाली थी। उसका बीस हज़ार का खर्चा अलग हुआ। बापू को हमारे जैसा होनहार बेटा पैदा करने पर नाते-रिश्तेदार और गाँववाले बधाई दे चुके है। हम भी गाँव के बच्चों को खूब पढ़-लिख कर कुछ बनने की तैयारी का लेक्चर दे चुके हैं। अब इन सब को क्या मुँह दिखाएंगे?
इतना ही नहीं, बहन के लिए अपने जैसा ही एक कमाऊ और होनहार लड़का देखकर रिश्ता पक्का किए थे। अभी शादी नहीं हो पाई थी कि उसकी नौकरी भी चली गई। नौकरी वाला लड़का ढूँढने में कितनी मेहनत लगती है क्या आप जानती हैं? सोचा था होनहार है, दरोगा लग गया है, बहन को कोई तक़लीफ़ नहीं होगी, पर हमारे सारे अरमान मिट्टी में मिल गए। और तो और, दहेज का एक लाख रूपया एडवांस भी दे चुके हैं, वह कैसे वापस मिलेंगे।
अब आप यह मत कहना कि दहेज लेना-देना भी ग़लत है।
Tuesday, September 18, 2007
उस पोस्टर में क्या लिखा था ?
कल टीवी में एक ख़बर आ रही थी कि जमशेदपुर में एक दंपति ने अपने वक़ील को कई दिनों से बंदी बनाकर रखा था। अरविंद गुहा नाम व्यक्ति तथा उसकी पत्नी का मानना था कि उसके अपने वक़ील ने मुक़दमे में मिलीभगत कर उन्हें जानबूझकर हरा दिया है। इस बंदी वक़ील को छुड़ाने के लिए जब पुलिस पहुँची तब उस दंपति ने वक़ील की हत्या कर दी। इससे संबंधित खबर का वीडियो यहाँ देखा जा सकता है -
इसमें एक पोस्टर भी दिखलाई दिया।
यह मुझे एक आम हत्या से कहीं बढ़कर लगती है क्योंकि इसमें दंपति ने कुछ छिपाया नहीं था बल्कि अपनी शिकायत का भरसक ढिंढोरा पीटा था। यहाँ तक कि अपने घर की दीवार में पोस्टर में काफी कुछ लिख कर महीनों से टाँग रखा था।
मैं इसकी तहरीर जानना चाहता हूँ। यह जानना चाहता हूँ कि अक्षरश: इस पोस्टर में क्या लिखा गया था।
इसमें एक पोस्टर भी दिखलाई दिया।
यह मुझे एक आम हत्या से कहीं बढ़कर लगती है क्योंकि इसमें दंपति ने कुछ छिपाया नहीं था बल्कि अपनी शिकायत का भरसक ढिंढोरा पीटा था। यहाँ तक कि अपने घर की दीवार में पोस्टर में काफी कुछ लिख कर महीनों से टाँग रखा था।
मैं इसकी तहरीर जानना चाहता हूँ। यह जानना चाहता हूँ कि अक्षरश: इस पोस्टर में क्या लिखा गया था।
Sunday, September 16, 2007
यहाँ पूछताछ करना मना है !
अभी पिछले दिनों यहाँ के एक बड़े अस्पताल जाना हुआ। मैं दिल्ली में रहता हूँ, और यहाँ का एक बड़ा अस्पताल है राममनोहर लोहिया अस्पताल। वैसे तो मैं दिल्ली के अनेक अस्पतालों के चक्कर काट चुका हूँ क्योंकि घर में कोई न कोई बीमार लगा रहता है। इस बार श्रीमती जी का नंबर था।
काफी बड़ा अस्पताल है। इसमें लोग अकसर लोग रास्ता भटक जाते हैं। एक मरीज को एक ही बीमारी के इलाज लिए कई जगहों पर जाना पड़ता है। पहले परची बनवाने (अलग अलग कैटैगरी की पर्ची अलग-अलग बनती है), फिर डॉक्टर के कमरे में, और फिर यदि कोई टेस्ट लिख दिया है तो पैसा जमा करवाने, टेस्ट की तारीख लेने, तय तारीख पर टेस्ट कराने तथा उसकी रिपोर्ट लेने। इन सब के लिए अलग-अलग कमरे निर्धारित हैं। यह कमरे कभी कभी तो अलग-अलग बिल्डिंगों में स्थित होते हैं। यदि नया आदमी हो तो निश्चित रूप से रास्ता भटक जाए।
इतनी बार आते-जाते रहने के बावजूद हमें भी किसी एक मुकाम तक जाने के लिए अनेक बार कई जगह और पूछना पड़ता है। यदि किसी कमरे में घुसकर पूछना चाहो कि भैया फलाँ कमरा कहाँ है, तो वह बोर्ड दिखा देता है जिसमें लिखा होता है 'यहाँ पूछताछ करना मना है'। शायद उन्होंने यह अपनी सहूलियत के लिए लिख रखा होगा कि यदि सबका जवाब देते रहे तो अपना काम कब करेंगे? वह बेचारे भी इतनी भीड़ को देखकर चिड़चिड़े हो जाते हैं। और इसी कारण वह सवाल पूछने वाले पर खफा हो जाते हैं। उन्हें खफा होने का हक है, क्योंकि हमारे पूछताछ से उनके कष्ट में अनावश्यक बढ़ोत्तरी हो जाती है। वह तो भला हो कतार में लगे लोगों का, जो आपकी मदद करते हैं। उनमें से अनेक तो ऐसे मिल जाएंगे जिनका रोज का आना-जाना है। वह आपकी पूरी मदद करते हैं, क्योंकि वह भी हमारे पाले में होते हैं।
जब भी मैं अस्पताल जाता हूँ, मेरा दिल दहल जाता है। मरीजों के रिश्तेदार ही उनका स्ट्रेचर खींच कर यथास्थान पर ले जाकर टेस्ट इत्यादि का काम करते हैं, क्योंकि वहाँ के स्टाफ के भरोसे रहे तो यह काम नहीं होगा। पिछली बार अस्पताल से बाहर निकलते समय एक वृद्ध जोड़ा दिखा जो एक दूसरे को सहारा देकर धीरे-धीरे अस्पताल में जा रहा था। दोनों में कौन स्वस्थ है, यह पता नहीं चलता था, या शायद दोनों बीमार थे। वह तो सीढ़ी भी नहीं चढ़ सकते हैं। या शायद सहारा लेकर धीरे-धीरे कर चढ़ेंगे। लिफ्ट से भी जा सकते हैं। पर यदि उन्हें एक दो अन्य कमरों में जाना पड़ा तो कहाँ पूछेंगे? पूछताछ के लिए शायद कोई खिड़की जरूर होगी जहाँ बैठा कोई कर्मचारी बिना किसी रूखे लहजे के उन्हें गंतव्य कतार तथा कमरे का पता विस्तार से समझाएगा। मुझे पूरा विश्वास था कि बूढ़े आदमी के लिए तो इस नियम में, कि 'यहाँ पूछताछ करना मना है' कुछ समय के लिए ढील दी जाएगी।
काफी बड़ा अस्पताल है। इसमें लोग अकसर लोग रास्ता भटक जाते हैं। एक मरीज को एक ही बीमारी के इलाज लिए कई जगहों पर जाना पड़ता है। पहले परची बनवाने (अलग अलग कैटैगरी की पर्ची अलग-अलग बनती है), फिर डॉक्टर के कमरे में, और फिर यदि कोई टेस्ट लिख दिया है तो पैसा जमा करवाने, टेस्ट की तारीख लेने, तय तारीख पर टेस्ट कराने तथा उसकी रिपोर्ट लेने। इन सब के लिए अलग-अलग कमरे निर्धारित हैं। यह कमरे कभी कभी तो अलग-अलग बिल्डिंगों में स्थित होते हैं। यदि नया आदमी हो तो निश्चित रूप से रास्ता भटक जाए।
इतनी बार आते-जाते रहने के बावजूद हमें भी किसी एक मुकाम तक जाने के लिए अनेक बार कई जगह और पूछना पड़ता है। यदि किसी कमरे में घुसकर पूछना चाहो कि भैया फलाँ कमरा कहाँ है, तो वह बोर्ड दिखा देता है जिसमें लिखा होता है 'यहाँ पूछताछ करना मना है'। शायद उन्होंने यह अपनी सहूलियत के लिए लिख रखा होगा कि यदि सबका जवाब देते रहे तो अपना काम कब करेंगे? वह बेचारे भी इतनी भीड़ को देखकर चिड़चिड़े हो जाते हैं। और इसी कारण वह सवाल पूछने वाले पर खफा हो जाते हैं। उन्हें खफा होने का हक है, क्योंकि हमारे पूछताछ से उनके कष्ट में अनावश्यक बढ़ोत्तरी हो जाती है। वह तो भला हो कतार में लगे लोगों का, जो आपकी मदद करते हैं। उनमें से अनेक तो ऐसे मिल जाएंगे जिनका रोज का आना-जाना है। वह आपकी पूरी मदद करते हैं, क्योंकि वह भी हमारे पाले में होते हैं।
जब भी मैं अस्पताल जाता हूँ, मेरा दिल दहल जाता है। मरीजों के रिश्तेदार ही उनका स्ट्रेचर खींच कर यथास्थान पर ले जाकर टेस्ट इत्यादि का काम करते हैं, क्योंकि वहाँ के स्टाफ के भरोसे रहे तो यह काम नहीं होगा। पिछली बार अस्पताल से बाहर निकलते समय एक वृद्ध जोड़ा दिखा जो एक दूसरे को सहारा देकर धीरे-धीरे अस्पताल में जा रहा था। दोनों में कौन स्वस्थ है, यह पता नहीं चलता था, या शायद दोनों बीमार थे। वह तो सीढ़ी भी नहीं चढ़ सकते हैं। या शायद सहारा लेकर धीरे-धीरे कर चढ़ेंगे। लिफ्ट से भी जा सकते हैं। पर यदि उन्हें एक दो अन्य कमरों में जाना पड़ा तो कहाँ पूछेंगे? पूछताछ के लिए शायद कोई खिड़की जरूर होगी जहाँ बैठा कोई कर्मचारी बिना किसी रूखे लहजे के उन्हें गंतव्य कतार तथा कमरे का पता विस्तार से समझाएगा। मुझे पूरा विश्वास था कि बूढ़े आदमी के लिए तो इस नियम में, कि 'यहाँ पूछताछ करना मना है' कुछ समय के लिए ढील दी जाएगी।
Thursday, September 13, 2007
दो हाथ मेरे भी
पिछले कुछ दिनों से अंतर्जाल पर भटकते हुए अचानक हिंदी वेबसाइटों पर नज़र पड़ी तो जैसे कोई खजाना मिल गया। इतने सारे ब्लॉग, इतने विचार विमर्श चल रहे हैं, और मैं उनसे अब तक वंचित था। खैर, देर आए दुरूस्त आए। जब इतनी बड़ी कार सेवा चल रही है, तो उसमें मेरा भी योगदान होना चाहिए। जहाँ भी कुछ नया बड़ा काम होता दिखे उसमें फौरन अपने भी दो हाथ लगा देता हूँ। इन हाथों से महायज्ञ का कोई भला हो न हो, पर इनका कल्याण ज़रूर हो जाएगा।
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