Friday, September 28, 2007

पुष्‍पा देवी से क्‍या काम है? हमसे कहिए___

पुष्‍पा देवी हमारी पत्‍नी का नाम है। हाँ वही सरपंच पुष्‍पा देवी। घर पर ही हैं, परंतु आपको उनसे क्‍या काम है? हमसे कहिए!

इस देश के सरकार की इच्‍छा थी कि यहाँ से सरपंच कोई महिला बने, सो हमने यह अपनी धर्मपत्‍नी पुष्‍पादेवी को बना दिया है। सरकार ने अपना काम कर लिया, पर हमें तो अपना काम अपने हिसाब से ही करना है। सभ्‍य परिवारों की महिलाएँ पंचायत पर जाकर नहीं बैठतीं। यह काम हम ही देखते हैं। जिसका काम उसी को साजै। उनका काम है रोटी बनाना और बच्‍चे पैदा करना। और इस काम में वह माहिर है।

क्‍या? आपको उनसे मिलना है? ठीक है। यह रहीं श्रीम‍ती पुष्‍पा देवी। घूँघट में ही ठीक हैं। मुँह देखकर क्‍या कीजिएगा। अच्‍छा ! उनसे दस्‍तखत करवाना है? लीजिए यहाँ हमारे पास लाइए, हम करे देते हैं।

दस्‍तखत में कोई गड़बड़ी नहीं है। आप बेफ़ि‍क्र और बेधड़क होकर जाइए, सारे रिकॉर्ड में ऐसे ही दस्‍तखत हैं।

Wednesday, September 26, 2007

हाँ! मैं तुम्‍हारा किसान भाई हूँ, मुझे अपने घर ले चलो।


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मेरा नाम मंगत राम है। पढ़ा लिखा नहीं हूँ। खेती बहुत कम है इसलिए कभी मज़दूरी तो कभी खेती कर अपना गुज़ारा करता हूँ। जिस गाँव में मैं रहता हूँ वह शहर के पास ही है। कभी कभार वहाँ के अफ़सर झुंड बनाकर गाँवों का दौरा करते हैं। गाँवों का दुख देखकर दुखी होते हैं, हमारे फ़ायदे की बातें बताते हैं, फ़ोटो वगैरह खिंचवाते हैं और चले जाते हैं।

पढ़े लिखे लोग, सूट बूट पहनकर हमारे लिए इतनी चिंता करते हैं, जानकर बहुत अच्‍छा लगता है। चाहें तो वह अपने-अपने घरों में भी बैठकर अपनी रिपोर्टें बना सकते हैं, उनसे कौन पूछने वाला है? पर नहीं, ये गाँवों की धूल खाते हैं, हमारी समस्‍याएँ सुनते हैं, हमारे साथ इतने आदर से बात करते हैं, यहाँ के शुद्ध हवा पानी की तारीफ़ करते हैं, और हमारा कलेजा गर्व से फूल जाता है।

हम ही इनका सत्‍कार ठीक से नहीं कर पाते। भाषण देने के लिए माइक का इंतज़ाम तो कर दिया पर बिजली नहीं रहती इसलिए माइक चलता नहीं। इन्‍हें बिना माइक के बोलना पड़ता है। इनमें से कई लोगों का गला बैठ जाता है।

सभी भाषण की शुरूआत करते हैं - "किसान भाइयों!" और उसके बाद कोई ग़रीबों के लिए कल्‍याण की बात करता है, कोई ग्रामीणों और कोई किसानों की बात करता है। सभी लगभग एक जैसी बात करते हैं। बस कभी उनके मुँह से किसान, कभी ग़रीब और कभी ग्रामीण निकलता है। उन्‍हें "किसान", "ग़रीब" और "ग्रामीण" तीनों समानार्थी लगते हैं। सचमुच, कितनी महत्‍वपूर्ण बात है। जो गाँवों में रहता है, उसकी आजीविका के लिए खेती ही बची है इसलिए वह किसान हुआ, और जो किसान है उसका ग़रीब होना स्‍वाभाविक है। इसलिए बात एक ही है। शब्‍द कुछ भी हो, बात हमारी ही होती है।

पता नहीं क्‍यों मुझे आजकल "किसान भाइयों!" सुनना अच्‍छा नहीं लगता। मन करता है कि भाषण रोक कर कहूँ, "ठीक है, मैं तुम्‍हारा किसान भाई हूँ मुझे अपने घर ले चलो। अपने घर-द्वार का आधा हिस्‍सा मुझे दे दो।"

Tuesday, September 25, 2007

मशीनें हमें सिखाती हैं!

मशीनों ने अपने काम से लोगों को कई प्रकार की सीख प्रदान की है। कोई यह सीखता है कि अनुशासन क्‍या है और कोई यह कि बिना रुके कैसे लगातार काम करते हैं। मैं यहाँ उन रिकॉर्डिंग मशीनों की बात कर रहा हूँ जो टेलीफ़ोन के साथ जोड़ी जाती हैं, तथा मधुर आवाज़ में कॉल करने वालों का मार्गदर्शन करती हैं।

थोड़ा फ़्लैश बैक... दो साल की बात है। मैं बिजली के दफ़्तर (हेल्‍पलाइन पर) फोन करता था, मेरा फ़ोन उठाने के लिए वहाँ कोई मौजूद नहीं होता। घंटी बजती जाती। मैं फिर फोन करता, फिर घंटी बजती जाती। ऐसा प्रतीत होता कि वहाँ बैठा व्‍यक्ति अत्‍यंत व्‍यस्‍त है और उसे फ़ोन उठाने का वक़्त नहीं मिल पा रहा है। कभी-कभी तो फ़ोन के इंगेज होने की टोन सुनाई पड़ती। यह टोन घंटों तक क़ायम रहती। ऐसा जान पड़ता कि उस फ़ोन पर बैठा व्‍यक्ति किसी अज्ञात ज़रूरतमंद से बात कर रहा है और उसकी समस्‍या हेल्‍पलाइन पर ही हल कर रहा है। कभी भूले-भटके कोई उठा लेता तो उसके बात करने का अंदाज़ अत्‍यंत रूखा होता। लगता कि समस्‍या का समाधान भले न हो पर बात तो ठीक से होनी चाहिए।

शायद उन्‍हें यह बात जँच गई, कि समस्‍या का समाधान हो न हो, पर बात तो मीठी होनी चाहिए। उन्‍होंने वहाँ कोई मशीन लगाई। अब एक घंटी बजने के बाद संगीतमय मीठी आवाज़ में उत्तर मिलता – "यहाँ (दफ़्तर का नाम) में आपका स्‍वागत है। आपकी कॉल हमारे लिए महत्‍वपूर्ण है।" और बाक़ी की घंटी उसके बाद बजती रहती। इधर फ़ोन करने वाले की कॉल का मीटर चल पड़ता। शिकायत तो दर्ज नहीं जो पाती पर अब मेरी हिम्‍मत नहीं कि मैं बार-बार फ़ोन करता। उन्‍होंने ग्राहकों को मीठी आवाज़ सुनाने वाली समस्‍या का समाधान जो कर दिया था।

अभी पिछले दिनों की बात है। मैंने इंटरनेट ख़राब होने की शिकायत दर्ज करने के लिए अपने इंटरनेट प्रदाता (महानगरों की जीवनरेखा) के हेल्‍पलाइन नंबर पर फ़ोन किया। हेल्‍पलाइन नंबरों की विशेष बात यह है वह बेहद आसान होते हैं ताकि उन्‍हें डायल करने में कोई कठिनाई न हो, मैं गदगद हो गया, उन्‍हें हमारा कितना ख्‍याल है। अब नंबर डायल करने पर मीठी आवाज ने अहसास दिलाया कि मेरी कॉल उनके लिए कितनी महत्‍वपूर्ण है और एक-एक कर मुझसे कई नंबर दबवाए। ताज्‍जुब की बात है कि वह आवाज़ एक स्‍वचलित मशीन से आ रही थी। इसी मशीन ने मेरा प्रतीक्षा काल 100 सेकंड बताया जिसे मैंने सब्र से बिताया। अभी तक किसी जीवित व्‍यक्ति से कोई बात नहीं हो पाई थी। 100 सेकंड बीत गए, मशीन बताती रही कि मेरी अहमियत उनकी नज़रों में कितनी ज़्यादा है, मैं अपनी बारी का इंतज़ार करता रहा, 200, 300, 400 सेकंड भी बीत गए पर मेरा प्रतीक्षाकाल समाप्‍त नहीं हुआ।

मैंने फिर से नए सिरे से दो-तीन बार प्रयास किया पर हर बार यही हुआ। ऐसा लगा कि काश! यह बोलने वाली मशीन मेरे सामने होती, या इसे लगाने वाला व्‍यक्ति मुझे कहीं मिल जाता ! मैने सब्र से काम लिया। इस मशीन ने सिखाया कि मनुष्‍यों को परेशानी में सब्र से काम लेना चाहिए।

इसी मशीन में एक विकल्‍प था कि मैं अपना नाम तथा फ़ोन नंबर बोलकर दर्ज करा दूँ ताकि मेरी बारी आने पर कस्‍टमर केयर अधिकारी स्‍वयं फ़ोन कर लेगा। मैंने यह भी किया। अपना नाम तथा फ़ोन नंबर पिछले तीन दिनों से 4 बाद दर्ज करा चुका हूँ पर अभी तक किसी का फ़ोन नहीं आया।

इससे भी मुझे एक सीख मिली। वह सीख थी "कर्म किए जा, फल की इच्‍छा मत कर!"

Saturday, September 22, 2007

प्रिंटर खराब है ! Printer is Out of Order !

मैं कोई ऐरा-गैरा प्रिंटर नहीं हूँ, मेरी ड्यूटी सरकारी बैंकों में पासबुक अपडेट करने में लगाई जाती है। हर आम ग्राहक (जिसके लिए पासबुक की नियमित एंट्री मायने रखती है), मेरी सलामती की दुआ मांगता है, क्‍योंकि मैं आए दिन खराब घोषित कर दिया जाता हूँ। बैंकों में खराब होने वाला इकलौता प्रिंटर होता हूँ, जिसके खराब होने से सबसे ज़्यादा ग्राहकों को मायूस होना पड़ता है।

मैं जब भी खराब होता हूँ, पूरे दिन अपनी जगह पर पड़ा रहता हूँ। ग्राहक गवाह हैं कि मुझे मरम्‍मत के लिए कहीं नहीं भेजा जाता, और न ही कोई इंजीनियर मुझे दुरूस्‍त करता दिखाई पड़ता है। फिर भी कुछ ऐसा चमत्‍कार होता है‍ कि अगले दिन (यदि खराब रहने का दिन न हो तो) मैं चल पड़ता हूँ। शायद खराबी मामूली होती है जो बिना किसी मशक्‍कत के ठीक हो जाती है। परंतु अफ़सोस होता है, कि पूरे दिन अनेक ग्राहक मायूस लौट जाते हैं। मेरा कोई भाई बंद नहीं होता। पूरे बैंक में मैं अपने काम के लिए इकलौता होता हूँ।

पहले-पहल मेरे खराबी की सूचना काउंटर पर बैठा व्‍यक्ति बोलकर देता था। फिर सादे काग़ज़ पर लिख कर देने लगा। अब तो बक़ायदा एक सुंदर और टिकाऊ बोर्ड बनाया गया है। जिसमें हिंदी तथा अंग्रेज़ी दोनों में सुंदर, सुपाठ्य शब्‍दों में मेरे खराब होने की बात लिखी गई है, ताकि पढ़ने वाले को भी आराम रहे और जब भी ज़रूरत हो मुझे तुरंत लगाया जा सके।

ऐसा लग रहा है जैसे किसी ऑफ़ि‍स में ''माँ बीमार है, इ‍सलिए ---- दिन से ---- दिन की छुट्टी चाहिए'' वाले आवेदन पत्र को थोक में छपवाकर रख लिया है कि आवेदन देने वालों और पढ़ने वाले, दोनों को कम-से-कम कष्‍ट हो।

Thursday, September 20, 2007

दस्‍तूर ही ऐसा है, इसमें हमारी क्‍या गलती है।

फोटो : साभार BBCHindi.com

क्‍या मायावती जी, आपने तो हमारी नौकरी भी छीन ली है। एक तो अपना घर-द्वार बेचकर घूस दिया, हाथ पैर जोड़कर नौकरी मिली, वह भी छिन गई। अब आप कहेंगी कि घूस देना ग़लत है। अरे भाई, बिना घूस लिए आजकल नौकरी कोई देता है? वह भी पुलिस की? हाँ आप लोगों की नहीं दिया उन्‍हें दे दिया, यह ग़लती हो गई। हमारे लिए तो जैसे आप वैसे वो। हमारे जेब से कहीं तो जाना था, सो चला गया। हमने नौकरी की खुशी में पार्टी भी दे डाली थी। उसका बीस हज़ार का खर्चा अलग हुआ। बापू को हमारे जैसा होनहार बेटा पैदा करने पर नाते-रिश्‍तेदार और गाँववाले बधाई दे चुके है। हम भी गाँव के बच्‍चों को खूब पढ़-लिख कर कुछ बनने की तैयारी का लेक्‍चर दे चुके हैं। अब इन सब को क्‍या मुँह दिखाएंगे?

इतना ही नहीं, बहन के लिए अपने जैसा ही एक कमाऊ और होनहार लड़का देखकर रिश्‍ता पक्‍का किए थे। अभी शादी नहीं हो पाई थी कि उसकी नौकरी भी चली गई। नौकरी वाला लड़का ढूँढने में कितनी मेहनत लगती है क्‍या आप जानती हैं? सोचा था होनहार है, दरोगा लग गया है, बहन को कोई तक़लीफ़ नहीं होगी, पर हमारे सारे अरमान मिट्टी में मिल गए। और तो और, दहेज का एक लाख रूपया एडवांस भी दे चुके हैं, वह कैसे वापस मिलेंगे।

अब आप यह मत कहना कि दहेज लेना-देना भी ग़लत है।

Tuesday, September 18, 2007

उस पोस्‍टर में क्‍या लिखा था ?

कल टीवी में एक ख़बर आ रही थी कि जमशेदपुर में एक दंपति ने अपने वक़ील को कई दिनों से बंदी बनाकर रखा था। अरविंद गुहा नाम व्‍यक्ति तथा उसकी पत्‍नी का मानना था कि उसके अपने वक़ील ने मुक़दमे में मिलीभगत कर उन्‍हें जानबूझकर हरा दिया है। इस बंदी वक़ील को छुड़ाने के लिए जब पुलिस पहुँची तब उस दंपति ने वक़ील की हत्‍या कर दी। इससे संबंधित खबर का वीडियो यहाँ देखा जा सकता है -



इसमें एक पोस्‍टर भी दिखलाई दिया।


यह मुझे एक आम हत्‍या से कहीं बढ़कर लगती है क्‍योंकि इसमें दंपति ने कुछ छिपाया नहीं था बल्कि अपनी शिकायत का भरसक ढिंढोरा पीटा था। यहाँ तक कि अपने घर की दीवार में पोस्‍टर में काफी कुछ लिख कर महीनों से टाँग रखा था।



मैं इसकी तहरीर जानना चाहता हूँ। यह जानना चाहता हूँ कि अक्षरश: इस पोस्‍टर में क्‍या लिखा गया था।

Sunday, September 16, 2007

यहाँ पूछताछ करना मना है !

अभी पिछले दिनों यहाँ के एक बड़े अस्‍पताल जाना हुआ। मैं दिल्‍ली में रहता हूँ, और यहाँ का एक बड़ा अस्‍पताल है राममनोहर लोहिया अस्‍पताल। वैसे तो मैं दिल्‍ली के अनेक अस्‍पतालों के चक्‍कर काट चुका हूँ क्‍योंकि घर में कोई न कोई बीमार लगा रहता है। इस बार श्रीमती जी का नंबर था।

काफी बड़ा अस्‍पताल है। इसमें लोग अकसर लोग रास्‍ता भटक जाते हैं। एक मरीज को एक ही बीमारी के इलाज लिए कई जगहों पर जाना पड़ता है। पहले परची बनवाने (अलग अलग कैटैगरी की पर्ची अलग-अलग बनती है), फिर डॉक्‍टर के कमरे में, और फिर यदि कोई टेस्‍ट लिख दिया है तो पैसा जमा करवाने, टेस्‍ट की तारीख लेने, तय तारीख पर टेस्‍ट कराने तथा उसकी रिपोर्ट लेने। इन सब के लिए अलग-अलग कमरे निर्धारित हैं। यह कमरे कभी कभी तो अलग-अलग बिल्डिंगों में स्थित होते हैं। यदि नया आदमी हो तो निश्चित रूप से रास्‍ता भटक जाए।

इतनी बार आते-जाते रहने के बावजूद हमें भी किसी एक मुकाम तक जाने के लिए अनेक बार कई जगह और पूछना पड़ता है। यदि किसी कमरे में घुसकर पूछना चाहो कि भैया फलाँ कमरा कहाँ है, तो वह बोर्ड दिखा देता है जिसमें लिखा होता है 'यहाँ पूछताछ करना मना है'। शायद उन्‍होंने यह अपनी सहूलियत के लिए लिख रखा होगा कि यदि सबका जवाब देते रहे तो अपना काम कब करेंगे? वह बेचारे भी इतनी भीड़ को देखकर चिड़चिड़े हो जाते हैं। और इसी कारण वह सवाल पूछने वाले पर खफा हो जाते हैं। उन्‍हें खफा होने का हक है, क्‍योंकि हमारे पूछताछ से उनके कष्‍ट में अनावश्‍यक बढ़ोत्‍तरी हो जाती है। वह तो भला हो कतार में लगे लोगों का, जो आपकी मदद करते हैं। उनमें से अनेक तो ऐसे मिल जाएंगे जिनका रोज का आना-जाना है। वह आपकी पूरी मदद करते हैं, क्‍योंकि वह भी हमारे पाले में होते हैं।

जब भी मैं अस्‍पताल जाता हूँ, मेरा दिल दहल जाता है। मरीजों के रिश्‍तेदार ही उनका स्‍ट्रेचर खींच कर यथास्‍थान पर ले जाकर टेस्‍ट इत्‍यादि का काम करते हैं, क्‍योंकि वहाँ के स्‍टाफ के भरोसे रहे तो यह काम नहीं होगा। पिछली बार अस्‍पताल से बाहर निकलते समय एक वृद्ध जोड़ा दिखा जो एक दूसरे को सहारा देकर धीरे-धीरे अस्‍पताल में जा रहा था। दोनों में कौन स्‍वस्‍थ है, यह पता नहीं चलता था, या शायद दोनों बीमार थे। वह तो सीढ़ी भी नहीं चढ़ सकते हैं। या शायद सहारा लेकर धीरे-धीरे कर चढ़ेंगे। लिफ्ट से भी जा सकते हैं। पर यदि उन्‍हें एक दो अन्‍य कमरों में जाना पड़ा तो कहाँ पूछेंगे? पूछताछ के लिए शायद कोई खिड़की जरूर होगी जहाँ बैठा कोई कर्मचारी बिना किसी रूखे लहजे के उन्‍हें गंतव्‍य कतार तथा कमरे का पता विस्‍तार से समझाएगा। मुझे पूरा विश्‍वास था कि बूढ़े आदमी के लिए तो इस नियम में, कि 'यहाँ पूछताछ करना मना है' कुछ समय के लिए ढील दी जाएगी।

Thursday, September 13, 2007

दो हाथ मेरे भी

पिछले कुछ दिनों से अंतर्जाल पर भटकते हुए अचानक हिंदी वेबसाइटों पर नज़र पड़ी तो जैसे कोई खजाना मिल गया। इतने सारे ब्‍लॉग, इतने विचार विमर्श चल रहे हैं, और मैं उनसे अब तक वंचित था। खैर, देर आए दुरूस्‍त आए। जब इतनी बड़ी कार सेवा चल रही है, तो उसमें मेरा भी योगदान होना चाहिए। जहाँ भी कुछ नया बड़ा काम होता दिखे उसमें फौरन अपने भी दो हाथ लगा देता हूँ। इन हाथों से महायज्ञ का कोई भला हो न हो, पर इनका कल्‍याण ज़रूर हो जाएगा।