Saturday, October 20, 2007

"ट्रांसफ़र का काम है" कहना पर्याप्‍त नहीं है ____


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


मेरा नाम सेवाराम है। शिक्षा विभाग में नौकरी करता हूँ। नहीं जी, मास्‍टर (शिक्षक) नहीं हूँ। ऐसी किस्‍मत कहाँ। मैं तो मामूली सा क्‍लर्क हूँ। पोस्टिंग जिला शिक्षा विभाग मुख्‍यालय, होशंगाबाद में जिला शिक्षा अधिकारी के साथ है। मेरे नाम की तरह ही मेरा काम भी सेवा करने का है।

मुझे शिकायत है कि आजकल लोग अपने कामों को लेकर काफ़ी लापरवाह हो गए हैं। कोई भी लेन-देन या हिसाब-किताब जुबानी रखना ठीक नहीं होता, कभी भी धोखा हो सकता है। अभी पिछले माह की बात है। मेरे पास रामायण प्रसाद आया।

"यह लीजिए दस हज़ार रूपए, ट्रांसफ़र का केस है।" रामायण प्रसाद का काम 'लोगों का काम करवाना' है। नेताओं के आगे पीछे भी फिरता रहता है। लड़का तेज़ है, आगे जाएगा।

"किसका ट्रांसफ़र?" मैंने पूछा।

"तिवरा के रमेश शर्मा, प्राइमरी टीचर का।"

साल में एक बार ट्रांसफ़र का सीजन आता है। इस समय हर सरकारी नौकरी धारी शिक्षक सतर्क हो जाता है। जिसे कोई भूल-सुधार करनी होती है, पूरा मौक़ा मिलता है। कोई पर्दा नहीं है, हर आदमी जानता है कि काम कराना है तो किससे संपर्क करना पड़ेगा।

"दरख़्वास्‍त कहाँ है?" हर काम के लिए आवेदन पत्र देना आवश्‍यक होता है।

'वो तो नहीं है। अरे आप लोगों भी कहाँ दरख़्वास्‍त वगैरह के चक्‍कर में पड़े हैं। पैसा पूरा एडवांस में दिया है, फिर क्‍या दिक्‍कत है।"

"क्‍या काम है, यह तो पता चले।"

"अभी बताया न, ट्रांसफ़र का काम है।"

"अरे भैया, ट्रांसफ़र रोकना है कि ट्रांसफ़र करवाना है?"

"ट्रांसफ़र रोकने का काम होगा...शायद। कोई ट्रांसफ़र करवाने के पैसे थोड़े ही देता है?" वह हड़बड़ाया।

"ऐसे शायद से काम नहीं चलता भैया, पूरा पक्‍का करो।

"मैं पक्‍का कह रहा हूँ ट्रांसफ़र रोकने का ही काम है। आप तो बड़े शक्‍की आदमी हैं।"

"इसमें मज़ाक नहीं है, ज़िंदगी का सवाल है। आप लोग काम को सीरियसली लिया करो।" मैंने उसे समझाया। "हमें हज़ारों ट्रांसफ़रों का हिसाब रखना पड़ता है। ऐसा करो, पैसा यहीं छोड़ दो। जाकर दरख़्वास्‍त बना लो, ट्रांसफ़र करना है, कहाँ करना है या रोकना है सब कुछ लिखा होना चाहिए?"

वह भुनभुनाता हुआ चला गया।

पहले एक बार इसी तरह गड़बड़ हो गई थी। किसी सज्‍जन ने अपने दुश्‍मन का ट्रांसफ़र रिमोट एरिया में करने के लिए पैसे दिए थे, पर गलती से उनका ही ट्रांसफ़र हो गया। लिया गया पैसा वापस तो हो नहीं सकता था क्‍योंकि उसमें अधिकारी से लेकर चपरासी तक का हिस्‍सा रहता है, तो अगले साल दो ट्रांसफ़र फोकट में करने पड़े, बेइज्‍जती हुई सो अलग।

आप ही बताइए "ट्रांसफ़र का काम है" कहने से क्‍या क्‍लीयर होता है? अब यह बात इन झोला छाप नेताओं को कौन समझाए___।

5 comments:

Anonymous said...

Sevaram ji "jhola chaap doctor" to suna tha ..... ye "jhola chhap Neta" pahli baar suna ..... :)

Udan Tashtari said...

सेवाराम जी

सही कह रहे हैं कि यह झोला छाप नेता समझते नहीं हैं. आप जैसे कर्मठ कर्मचारी के कंधों पर सीज़न में ट्रांसफर का कितना बोझ रहता है, कौन समझाये. वो तो १०००० देकर समझ रहा है जैसे एहसान कर दिया हो.

अगली बार पूछ ही लेना कि वो फोकट वालों के तुम भरोगे क्या अगर गल्ती हो गई तो. आप तो मन लगा कर ट्रांसफर करिये.

रवि रतलामी said...

मजेदार, एकदम सरकारी कहानी है.

ePandit said...

हा हा सही है।

अजित वडनेरकर said...

आनंदम् मंगलम्