Sunday, October 7, 2007

काश्‍मीर से कन्‍याकुमारी तक भारत एक है___!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


मैं दिल्‍ली पुलिस का सिपाही हूँ। एक बार रिश्‍तेदारों के साथ वैष्‍णोदेवी के दर्शन करने चल पड़ा। बाहर आना जाना हो तो अपनी खाक़ी वर्दी पहन लेता हूँ, इसका बड़ा रौब पड़ता है। सभी लोग वर्दी की इज़्ज़त करते हैं इस नाते अपनी भी इज़्ज़त हो जाती है।

माता की कृपा से यात्रा बड़ी अच्‍छी रही। माता के दर्शन हो गए। घर लौटते वक़्त थोड़ा पंगा पड़ गया। कोई दस-बारह साल का लड़का जम्‍मू स्‍टेशन में केले बेच रहा था।

"ओए इधर आ" मैंने ट्रेन से उसे हाथ देकर बुलाया। "केले कैसे दिए, इधर दिखा"।

उसके कानों में जूँ न रेंगी।

"ओए इधर आ" मैंने फिर आवाज़ लगाई।

"आप पैसे नहीं दोगे" उसने कहा।

"रूक साले।" मैंने उसका गिरहबान पकड़ना चाहा। पर वह तेजी से छुड़ाकर भाग गया। इसी दौरान मेरी घड़ी गिरकर टूट गई। वह दूर खड़ा दाँत दिखाता रहा।

मुझे ताज्‍जुब हुआ कि वह कमबख़्त कैसे जानता था कि मैं उसे पैसे नहीं देने वाला हूँ। मैं तो उससे पहले कभी मिला ही नहीं। वह मेरी वर्दी देखकर समझ गया था। कमीने ने रिश्‍तेदारों के सामने मेरा पानी उतार दिया।

मैं खड़ा-खड़ा उसका सारा खानदान एक करता रहा। मन किया कि पकड़कर मजा चखाऊँ, वह जानता था मैं उसे दौड़ाकर पकड़ नहीं पाऊँगा।

6 comments:

Anonymous said...

अगली बार बिना वर्दी के ही यात्रा करें :)

आनंद said...

क्‍या कहते हैं संजय जी, बिना वर्दी के नहीं बल्कि बिना खाक़ी वर्दी के कहिए। कोई न कोई वर्दी तो पहननी पड़ेगी। - आनंद

अनिल रघुराज said...

क्या भाई आनंद जी, एक नाम इतने सारे काम। सचमुच आपके लिखने की आत्मीय शैली देखकर मज़ा आ गया। लिखते रहिए। आप जैसे ही दिलचस्प लिखनेवालों की जरूरत है।

आनंद said...

धन्‍यवाद अनिल जी

Srijan Shilpi said...

बंधुवर,
आप तो असली एक्टर लगते हैं। हर रोल इतनी अच्छी तरह निभा लेते हैं और उसमें से लिखने लायक इतना अच्छा मसाला निकाल लाते हैं।

वाह, आपके लेखन-शैली की दाद देनी पड़ेगी।

Anonymous said...

This is great info to know.