Wednesday, September 26, 2007

हाँ! मैं तुम्‍हारा किसान भाई हूँ, मुझे अपने घर ले चलो।


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मेरा नाम मंगत राम है। पढ़ा लिखा नहीं हूँ। खेती बहुत कम है इसलिए कभी मज़दूरी तो कभी खेती कर अपना गुज़ारा करता हूँ। जिस गाँव में मैं रहता हूँ वह शहर के पास ही है। कभी कभार वहाँ के अफ़सर झुंड बनाकर गाँवों का दौरा करते हैं। गाँवों का दुख देखकर दुखी होते हैं, हमारे फ़ायदे की बातें बताते हैं, फ़ोटो वगैरह खिंचवाते हैं और चले जाते हैं।

पढ़े लिखे लोग, सूट बूट पहनकर हमारे लिए इतनी चिंता करते हैं, जानकर बहुत अच्‍छा लगता है। चाहें तो वह अपने-अपने घरों में भी बैठकर अपनी रिपोर्टें बना सकते हैं, उनसे कौन पूछने वाला है? पर नहीं, ये गाँवों की धूल खाते हैं, हमारी समस्‍याएँ सुनते हैं, हमारे साथ इतने आदर से बात करते हैं, यहाँ के शुद्ध हवा पानी की तारीफ़ करते हैं, और हमारा कलेजा गर्व से फूल जाता है।

हम ही इनका सत्‍कार ठीक से नहीं कर पाते। भाषण देने के लिए माइक का इंतज़ाम तो कर दिया पर बिजली नहीं रहती इसलिए माइक चलता नहीं। इन्‍हें बिना माइक के बोलना पड़ता है। इनमें से कई लोगों का गला बैठ जाता है।

सभी भाषण की शुरूआत करते हैं - "किसान भाइयों!" और उसके बाद कोई ग़रीबों के लिए कल्‍याण की बात करता है, कोई ग्रामीणों और कोई किसानों की बात करता है। सभी लगभग एक जैसी बात करते हैं। बस कभी उनके मुँह से किसान, कभी ग़रीब और कभी ग्रामीण निकलता है। उन्‍हें "किसान", "ग़रीब" और "ग्रामीण" तीनों समानार्थी लगते हैं। सचमुच, कितनी महत्‍वपूर्ण बात है। जो गाँवों में रहता है, उसकी आजीविका के लिए खेती ही बची है इसलिए वह किसान हुआ, और जो किसान है उसका ग़रीब होना स्‍वाभाविक है। इसलिए बात एक ही है। शब्‍द कुछ भी हो, बात हमारी ही होती है।

पता नहीं क्‍यों मुझे आजकल "किसान भाइयों!" सुनना अच्‍छा नहीं लगता। मन करता है कि भाषण रोक कर कहूँ, "ठीक है, मैं तुम्‍हारा किसान भाई हूँ मुझे अपने घर ले चलो। अपने घर-द्वार का आधा हिस्‍सा मुझे दे दो।"

2 comments:

Udan Tashtari said...

उन्‍हें "किसान", "ग़रीब" और "ग्रामीण" तीनों समानार्थी लगते हैं।

--बहुत गहरी बात कह दी आपने. साधुवाद.

आनंद said...

यह बहुत बड़ी विडम्‍बना है हमारे देश में, और सचाई भी यही है। - आनंद