Wednesday, November 28, 2007
यहाँ अंदर आना एलाऊड नहीं है_____!
मुझे बहुत ख़ुशी हुई जब मेरी नौकरी लगी थी। पैसा तो कम है, महीने भर का 3000 रूपया यानि कि रोज़ाना के 100 रूपए। मालिक कहता है कि ईमानदारी से काम करो तो आगे पैसा बढ़ा देगा।
मैं भरतकुमार थपलियाल, गढ़चिरौली का रहने वाला हूँ। दोस्तों के पास दिल्ली घूमने आया था और फिर ऐसा मन लगा कि यहीं रह गया। यहाँ दिल्ली में हमारे आसपास के गाँवों के बहुत सारे लोग हैं जो फैक्टरियों में नौकरी करते है। मैं हिंदुस्तान सिक्योरिटी में लग गया। आजकल मेरी ड्यूटी सेंट थॉमस स्कूल में है। सिक्योरिटी वाले ने स्कूल पर सिक्योरिटी गार्ड सप्लाई का ठेका साल भर के लिए ले रखा है। पहले बड़ा ताज्जुब होता था हमें तनख़्वाह कोई और देता है, हुक्म किसी और का बजाना पड़ता है।
मुझे वर्दी पहनकर काम करने में बड़ा मज़ा आता है। इसमें पैसा तो कम है पर पॉवर बहुत है। हम किसी को भी आने वाले को रोककर पूछताछ कर सकते हैं। बड़े-बड़े लोग अंदर जाने के लिए रिक्वेस्ट करते हैं।
अभी पिछले हफ़्ते की बात है, मेरा मूड कुछ ख़राब था। तभी स्कूल में एक आदमी आया, वह शायद किसी बच्चे का बाप था।
"क्या काम है?" मैंने उससे पूछा।
"अंदर ऑफिस में जाना है।"
"ऑफिस में क्या काम है?"
"अरे भाई, प्रिंसिपल से मिलकर कुछ बात करनी है।" उस आदमी ने कुछ रूखे स्वर में कहा।
"सर, अंदर जाना एलाऊड नहीं है।"
"अरे, कुछ ज़रूरी बात करनी है। कैसे एलाऊड नहीं है?" उसका स्वर और तेज़ हो गया।
"जब तक अंदर से हमें आदेश नहीं होगा, हम अंदर नहीं जाने नहीं दे सकते। आपको कोई बात करनी है तो फोन से करिए।"
"ज़रूरी बात है, फोन से नहीं हो सकती, मुझे खुद मिलना है, आप मेरा कार्ड प्रिंसिपल को भिजवाइए।" वह मुझसे झगड़ा करने लगे।
"मेरा ड्यूटी कार्ड देने का नहीं है। यहाँ कार्ड देना एलाऊड नहीं है।" मैं भी अड़ गया। साला, मुझसे अकड़ कर बात करता है।
"तू कैसे रोक सकता है? प्रिसिपल कहाँ है? अच्छा तमाशा बना रखा है।" वह अपना मोबाइल फ़ोन निकालकर नंबर मिलाने लगा।
"सर, रास्ते से हट जाइए, रास्ते में खड़ा होना एलाऊड नहीं है।" मेरी इच्छा भी है कि प्रिंसिपल मुझे खुद यहाँ से हटा दे। ऐसी वाहियात नौकरी छूट जाए तो ही ठीक है।
अगले दिन ठेकेदार ने बुलवाया। ठेकेदार ने बताया कि प्रिंसिपल मेरी तारीफ़ कर रहा था। "ऐसे ही मन लगाकर काम करो, खूब तरक्की करोगे।" मेरी तनख़्वाह में पाँच सौ रूपए की बढ़ोत्तरी हो गई थी। मेरी तीन दिन की छुट्टी भी मंजूर हो गई थी।
इस शहर का हिसाब-किताब अब मेरी समझ में आने लगा था। मैंने अपने चचेरे भाई को भी गाँव से बुला कर सिक्योरिटी गार्ड में लगा दिया है। उसे अच्छे से समझा दिया है कि चाहे कहीं भी ड्यूटी हो, किसी को भी अंदर घुसने मत दो। याद रखो "हमेशा यही कहो कि यहाँ एलाऊड नहीं है। आने वाला जितना ज़्यादा परेशान होगा मालिक उतने ही अधिक खुश होंगे।"
वह पूछता है, "क्यों? अपने मिलने वाले को परेशान करने से मालिक क्यों खुश होता है?"
"इससे उसकी औक़ात कुछ और बढ़ी महसूस होती है, उसे लगता है "एलाऊड नहीं है" सुनकर आने वाले के मन में रौब पड़ता होगा ...।"
Thursday, November 22, 2007
तारीफ़ करो लेकिन संभलकर______ !
मैं कैलाश वर्मा, डिग्री कॉलेज यमुनानगर में अर्थशास्त्र का लेक्चरर हूँ। आज अर्थशास्त्र विषय की बहुत पूछ है। पहले ऐसा नहीं था। पहले जो लड़का पढ़ाई में कमज़ोर होता था किसी तरह डिग्री पूरी करने के लिए अर्थशास्त्र विषय ले लिया करता था। परंतु मैं ऐसे लोगों में शामिल नहीं था। मैं चाहता तो आसानी से साइंस या कोई अन्य विषय मिल सकता था, परंतु मैंने अपनी रुचि से अर्थशास्त्र चुना, और देखिए, एक से एक होशियार बच्चे अर्थशास्त्र पढ़ रहे हैं।
यहाँ हमारे विभाग के लोग मेरी दूरंदेशी और समझ का लोहा मानते हैं। किसी भी बात में मैं अपनी राय सबसे अंत में देता हूँ क्योंकि मेरी राय ज़रा हटकर होती हैं। मैं ऐसे पहलुओं पर विचार करता हूँ जिन पर किसी और की नज़र नहीं जा पाती। लोग मेरी बात सुनकर चकित रह जाते हैं, "यार! यह तो हमने सोचा ही नहीं था।"
पिछले हफ़्ते रीडर आरती सिन्हा ने विभागाध्यक्ष का चार्ज सम्हाला। अपना पुराना कमरा छोड़कर विभागाध्यक्ष के कमरे में शिफ़्ट कर लिया। जैसी कि परंपरा है, सारे लोग बधाई देने पहुँचे। मैं सबसे अंत में बधाई देने पहुँचा।
"मैडम, कांग्रेच्यूलेशंस! आपमें तो बिलकुल चेंज आ गया।" आज मैडम खूब सज-धज कर आई थीं। और विभागाध्यक्ष के पद का रौब तो देखते ही बनता था।
"अच्छा ! क्या चेंज आया है?" मैडम की आँखें चमक रही थीं। वह शायद अपनी तारीफ़ सुनना चाहती थीं।
"आप पहले से ज़्यादा कर्मठ दिखाई दे रही हैं। काम में जुटी हुईं।" मैं जानता था कि पहले बधाई देने वाले लोग नए कमरे की, उनके चमक-दमक की खूब तारीफ़ कर चुके होंगे।
"मतलब, क्या मैं पहले काम नहीं करती थी?" मैंडम ने दूसरा अर्थ लगा लिया।
"नहीं, मेरा मतलब था कि पहले आप पुराने कमरे में अपने दूसरे कामों में व्यस्त रहती थीं...." लगता है मैंने कुछ ग़लत बोल दिया।
"दूसरे कामों में ? यहां ऑफिस के इतने काम होते हैं, क्लास, सेमीनार, स्टुडेंट्स को गाइड करना क्या काम नहीं होते?" उन्होंने उखड़े लहज़े में कहा।
"मैं तो इसलिए कह रहा था कि पहले आपके काम एकेडेमिक होते थे, आपके एकेडमिक काम तो लोगों को दिखाई नहीं पड़ते न! अब जब एडमिनिस्ट्रेटिव होंगे, तब सबको पता चलेगा।" मैंने बात को संभालने की कोशिश की।
"हाँ, सच है। जब तक दूसरों को तंग न करो, काम की गिनती ही नहीं होती।" मैडम ने कहा। दरअसल पहले भी उनके काम पर कई सवाल उठे होंगे। शायद इसीलिए उन्होंने यह बात पकड़ ली।
मैं खिसिया कर रह गया। मन में आया कि कह दूँ, "हाँ, तुमने अपनी पूरी जिंदगी लिपस्टिक पोत कर दूसरों की चुगली की है। आज तक कोई काम नहीं किया है। और अब भी नहीं करोगी। तुम्हारे बस का कोई काम है भी नहीं।" पर चुपचाप लौट आया। मैं टीका-टिप्पणी नहीं बल्कि तारीफ़ कर रहा था, पर मेरी राय को मैडम ने ग़लत तरीक़े से ले लिया था। कहते हैं न, कि "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।"
मैंने एक बात और अनुभव की है, औरतों की तारीफ़ करो तो बहुत संभल-संभलकर। आपकी अच्छी भली बात से वह क्या मतलब निकाल ले, आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते।
अभी कल की ही बात है। मैंने बातचीत के दौरान हल्के-फुल्के मूड में अपनी पत्नी से कहा कि उसे वक़ालत पढ़ना चाहिए। उसमें ऐसा गुण है कि वह वक़ालत में बहुत क़ामयाब हो सकती है। इस पर वह नाराज़ हो गई, और लड़ने लगी। अब आप ही बताइए, इसमें नाराज़ होने वाली क्या बात है ? वक़ील होना कोई गाली तो नहीं है! और क्या किसी को कैरियर एडवाइस देना भी ग़लत है?
Wednesday, November 14, 2007
हनुमान जी क्षमा करें, पापी पेट का सवाल है____!
मेरा नाम रामशरण है। फिलहाल मैं मंत्रालय के डिप्टी सेक्रेटरी साहब का ड्राइवर हूँ। फिलहाल इसलिए कह रहा हूँ हम ड्राइवरों का तबादला होता रहता है। कभी एक सेक्रेटरी के पास कभी दूसरे डिप्टी सेक्रेटरी के पास। मंत्रालय में सेक्रेटरियों की कमी नहीं है, अलबत्ता ड्राइवरों की कमी ज़रूर है।
हम हैं तो ड्राइवर, पर साहब लोग उम्मीद करते हैं कि हम चपरासियों का काम भी करें। कभी कभार तो ठीक है, पर रोज़-रोज़ हमें यह पसंद नहीं है। कई बार साहब अच्छे मिल जाते हैं, हमारी भावनाओं का ख्याल रखते हैं। कोई बेवजह डाँट-डपट करता है तो हम भी कह देते हैं, "कर दो ट्रांसफ़र।" बस इतना सुनकर अधिकांश साहब शांत हो जाते हैं। ट्रांस़फ़र कर तो दें, पर नया ड्राइवर मिलता इतना आसान नहीं होता।
मैं अपने काम से मतलब रखता हूँ। अपना काम करो और राम का नाम लो। अंडर सेक्रेटरी साहब ऑफिस की गाड़ी का इस्तेमाल घरेलू कामों में करते हैं। कहते हैं, "घर चले जाओ, तुम्हारी आंटी को थोड़ी मार्केटिंग करनी है।" इसमें कौन सी नई बात है, सभी ऐसा करते हैं। जो साहब का आदेश है वही हमारे लिए हुक्म है और वही क़ानून। पर साहब की फैमिली (पत्नी), बाप रे बाप, फैमिली को राजी रखना बड़ा मुश्किल काम होता है। साहब की फैमिली घड़ी-घड़ी डांटती हैं, "मेरा थैला पकड़ो", "यहाँ खड़ा करो" "तुम्हें मैनर्स नहीं है", "मैं साहब से तुम्हारी शिकायत कर दूँगी"। अब लेडिस से बहस कौन करे? मैं तो साहब का बहुत लिहाज करता हूँ वरना जी करता है बीच रास्ते गाड़ी से उतार दूँ।
पिछले हफ़्ते मैं आंटी जी (साहब की फैमिली) को ब्यूटी पार्लर ले जा रहा था। जाने क्या हुआ आंटी ने आज बड़े अच्छे से बात की, "रामशरण तुम कौन से भगवान को मानते हो?"
"मैं सभी भगवान को मानता हूँ, राम, कृष्ण, शंकर....।" मैं डरते डरते कहने लगा। मेरी समझ में कुछ नहीं आया था। लग रहा था कि यदि एक किसी भगवान का नाम लूँगा तो नाराज़ हो जाएंगी।
"अरे नहीं, सब नहीं एक बताओ, किसकी पूजा अधिक करते हो?" आंटी ने पूछा।
"मैं हनुमान का भक्त हूँ। उन्हीं की पूज़ा रोज़ करता हूँ।" मैंने कह दिया। अब क्या करूँ, जो होता है सो हो।
"एक बात सच-सच बताओगे? तुम्हें हनुमान जी की क़सम है, क्या साहब इस गाड़ी से किसी मैडम को गेस्ट हाउस ले जाते हैं?"
"आंटी मैं आपसे झूठ क्यों बालूँगा?" मैं हकबका गया।
"देखो तुम्हें तुम्हारे हनुमान जी की क़सम है, सच-सच बताना।"
मैडम ने बड़ा बुरा फँसा दिया। इधर कुआँ तो उधर खाई। साहब ऑफिस के काम से या किसी मीटिंग के सिलसिले में गेस्ट हाउस तो जाते रहते थे। कई बार पी.आर. ऑफ़ीसर मिसेज जोशी भी साथ जाती हैं। यह सरकारी गाड़ी है, इसमें तो कोई भी बैठ सकता है। पर मैंडम को कौन समझाए? कुछ पूछना है तो सीधे साहब से पूछो, मुझ गरीब को क्यों फँसा रही हो। यदि मेरे मुँह से एक भी शब्द ग़लत निकल गया तो मेरी नौकरी खतरे में पड़ सकती है।
"मैडम आज चाहे जिसकी क़सम दे दें, मैं आपसे बिलकुल झूठ नहीं बोलूँगा। अपनी ड्यूटी में, मैंने अपनी जानकारी में मैंने किसी मैडम को नहीं बिठाया है।"
"देखो, रामशरण तुम झूठ बोल रहे हो, सच बताओ। मुझे सब पता है।"
"हनुमान जी की कसम आंटी जी, मैंने आपके अलावा किसी मैडम को नहीं बिठाया।"
आंटी मुझ पर गुस्सा करने लगी। अब वह अपने पुराने रूप में लौट आई, "तुम्हें मैनर्स नहीं है", "मैं साहब से तुम्हारी शिकायत कर दूँगी"।
मैं मन ही मन भगवान से माफ़ी मांग रहा था। हे हनुमान जी, मुझे माफ़ कर दो। नौकरी की सवाल है। मुझे इस मुसीबत से बचाओ और जल्दी से जल्दी मेरा ट्रांसफ़र कहीं और कर दो।
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Monday, November 12, 2007
धन्यवाद धोनी, आपने अपने बाल कटा लिए _____!
चित्र साभार:
मेरा नाम श्यामनारायण शिवहरे है। मध्यप्रदेश में उज्जैन का रहने वाला हूँ और यहाँ के डिग्री कॉलेज में रसायन विज्ञान का प्रोफ़ेसर हूँ। छोटा परिवार सुखी परिवार है और ईश्वर की कृपा से तनख्वाह भी अच्छी ख़ासी है, मज़े से गुज़ारा हो जाता है।
मेरा एक बेटा है जो इस समय दसवीं बोर्ड की परीक्षा में बैठ रहा है। कद-काठी तंदुरूस्त है और मेरी शर्ट अभी से उस पर फिट आती है। भगवान ने उसे दिमाग़ भी अच्छा दिया है। मैं स्वयं पढ़ा लिखा हूँ और पढ़ाई का महत्व समझता हूँ। जानता हूँ कि इस उम्र में पढ़ाई कितनी ज़रूरी है। मैंने तय कर लिया है कि उसके कैरियर के बारे में अपनी कोई राय नहीं थोपूँगा। जो चुनना चाहे, चुने।
परंतु इस उम्र में सही मार्गदर्शन की अत्यंत आवश्यकता होती है। एक पिता से अच्छा मार्गदर्शक कोई और नहीं हो सकता। उसकी ड्राइंग बचपन से ही अच्छी थी इसलिए मैंने तय किया है कि उसके लिए बायोलोजी विषय अच्छा रहेगा। बायोलोजी, जूलॉजी आदि विषयों में प्रेक्टिकल में अच्छी ड्राइंग वालों को अच्छे नंबर मिलते हैं।
बच्चे का मन कच्चे घड़े की तरह होता है। इसलिए मैंने उसे सिखा दिया था, घर में कोई भी आता और पूछता "बेटे बड़े होकर क्या बनोगे? तो वह तपाक से कहता "डॉक्टर"। "शाबास ! वाह शिवहरे जी, बड़ा होनहार बेटा है आपका !" उसके खिलौनों में डॉक्टर की छोटी किट ख़रीद कर ले आया। खेलते समय डॉक्टर-डॉक्टर खेलता, ताकि उसके अवचेतन मन में डॉक्टर बनना अच्छे से जम जाए।
अब वह बड़ा हो गया है। इस समय वह अपना समय पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों में अधिक बिताने लगा है। यह भी ठीक ही है, इससे बच्चे का समग्र विकास होता है। आजकल बिलकुल किताबी होना भी ठीक नहीं है। बच्चे में पढ़ाई के साथ-साथ पर्सनैलिटी भी होनी चाहिए।
दो माह वह मेरे पास आया।
"पापा। पचास रूपए चाहिए। बाल कटवाना है।"
"यह लो। पर बाल कटवाने के पचास रूपए?" मैं समझ नहीं पाया। यहाँ तो बाल पंदरह से बीस रूपए मैं कट जाते हैं।
"धोनी स्टाइल के पचास रूपए लगते हैं।"
"क्या?" मैं कुछ समझ नहीं पाया। धोनी जैसी स्टाइल के पचास रूपए। इसके सिर पर धोनी का भूत कब चढ़ गया? अरे! धोनी कभी बाल कटाता भी है? और फिर इसे तो डॉक्टर बनना है। मैंने किसी डॉक्टर का बाल धोनी स्टाइल का नहीं देखा था।
मेरा सपना बिखरता हुआ नज़र आया। मैंने उसे समझाने की कोशिश की "भले ही यह पचास रूपए ले जाओ, किसी दूसरे काम में खर्च कर लो, पर धोनी जैसे बाल मत रखो।"
पर उसने मेरी बात नहीं मानी, तभी भगवान ने मेरा साथ दिया। मैं धोनी को धन्यवाद देता हूँ कि उसने अपने बाल छोटे करा लिए हैं।
Wednesday, November 7, 2007
भागचंद मारवाड़ी को बिज़नेस का नया नुस्ख़ा मालूम नहीं है ___!
मेरा नाम साजन कुमार सिंधी है। पढ़ाई 10वीं से अधिक नहीं चल पाई, पढ़ने में मन नहीं लगता था, और कुछ घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए सीधे बिज़नेस में लग गया। मेरा गुपचुप (पानी-पुरी) और चाट का छोटा सा बिज़नेस है। शाम-शाम में ही अच्छी कमाई हो जाती है। मेरी साथ के पढ़े लिखे लड़के बी.ए., एम.ए. कर अभी भी घूम रहे हैं, उनकी नौकरी का ठिकाना नहीं है। अच्छा हुआ मैं पढ़ने-लिखने के चक्कर में नहीं पड़ा, सीधे बिज़नेस में लग गया।
माँ बाप ने मेरा नाम बहुत अच्छा रखा है। साथ पढ़ने वाली लड़कियाँ मेरा नाम लेते हुए शरमा जाया करती थीं, कुछ तो मेरा नाम ही नहीं लेती थीं, सिर्फ एस.के. कह कर बुलाती थीं। ख़ैर यह सब तो पुरानी यादें हैं, अब तो बिज़नेस में इतने व्यस्त हैं कि यह सब याद करने की फुरसत ही नहीं मिलती। हमारे बिज़नेस का एक उसूल है लोगों से बोल-चाल में विनम्रता होना चाहिए। कोई कभी गुस्से में कड़ा भी बोल जाए, तो उसका बुरा न मानो क्योंकि कोई भी आदमी दिल से बुरा नहीं होता है। सबसे बड़ी बात यह कि हर आदमी एक ग्राहक होता है, और ग्राहक भगवान का रूप होता है।
मैंने कहीं पढ़ा है बिज़नेस बढ़ाने का एक नुस्ख़ा और है - पहले लोगों से उनका हाल-चाल, घर-परिवार की ख़ैरियत पूछना चाहिए और फिर काम की बात करनी चाहिए। इससे अपनापन बढ़ता है जो लांग टर्म रिलेशन बनाने के लिए अच्छा होता है। जिसने भी यह बात कही है बिलकुल ठीक है। सचमुच, हम कहाँ जा रहे हैं ! न दुआ न सलाम, सीधे-सीधे काम पर आ जाते हैं, आजकल किसी को एक दूसरे का हाल जानने की फुरसत ही नहीं है!
एक मिनट, मुझे एक काम याद आया। मुझे भागचंद मारवाड़ी से बात करनी है, उनकी दुकान में आलू आया या नहीं, पूछना है। इस इलाके में आलू किराने की दुकान में मिलता है। यह तो भला कि आजकल मोबाइल आ गया है, क्या ग़ज़ब चीज़ बनाई है, कितनी सुविधा हो जाती है इससे।
"हैलो कौन बोल रहा है? भागचंद से बात कराइए!" मैने भागचंद की दुकान में नंबर मिलाया। मैं भागचंद से आलू थोक में ख़रीदता हूँ।
"मैं भागचंद ही बोल रहा हूँ भाया।"
"नमस्कार सेठ जी, मैं चटखारा से साजन कुमार बोल रहा हूँ। कैसे हैं आप?"
"ऊपर वाले की दुआ से खैरियत है।" मैं भी ऐसे ही नहीं छोड़ने वाला। लगता है भागचंद मारवाड़ी जी को यह नुस्ख़ा नहीं मालूम है।
"और परिवार में सब कैसे हैं, बाल बच्चे?"
"ठीक ही हैं, तुम्हारी भाभी इस समय बीमार चल रही है। वही गठिया की शिकायत.. आजकल चल-फिर नहीं पाती, इसलिए एक नौकरानी रख छोड़ी है। बड़ा तो मेरे साथ दुकान में ही बैठता है, उसके रिश्तेवाले आए थे... मैंने तो उनसे साफ कह दिया कि भई, काम धाम वाला घर है। अभी तो वापस चले गए हैं। जैसा भी होगा फोन से बताएंगे। दूसरे नंबर वाले का दो सब्जेक्ट में ट्यूशन लगा दिया है फिर भी कहता है और ट्यूशन पढ़ेगा.. सब कमबख़्त खाली करके छोड़ेंगे। सबसे छोटी वाली ...."
"अरे बाल बच्चों की चिंता छोड़िए, सब ठीक हो जाएगा। बताइए काम-धाम कैसा चल रहा है?" ये तो रामायण ही खोलकर बैठ गया, मैंने इसे मोबाइल से फोन क्यों किया?
"बाज़ार में आजकल बड़ी मंदी है। शादी का सीजन आने में तीन महीने हैं। ट्रांसपोर्ट वाले अपना रेट बढ़ाने वाले हैं। सोचता हूँ रेलवे से माल मंगाना शुरू कर दूँ, पर खर्चा फिर भी डबल का डबल ही पड़ेगा। गोदाम यहाँ से दूर पड़ता है इसलिए यहीं कहीं आसपास एक और गोदाम ढूँढ रहा हूँ, तेरी नज़र में है क्या कोई जगह भाया?"
"फ़िलहाल तो नहीं है, ठीक हैं अभी रखता हूँ।"
"अरे भाया, यह तो बता कि फोन क्यों किया था?"
"मैं पूछना चाहता हूँ कि नए माल में आलू आया कि नहीं।"
"तो सीधे-सीधे पूछ न, टाइम क्यों बर्बाद करता है? आलू वाला ट्रक कल पहुँचेगा। और कुछ?"
"नहीं, इतना बहुत है।" और मैंने जल्दी से फ़ोन काट दिया। ओह, फिर गलती हो गई, मैंने फोन काटने से पहले धन्यवाद या गुडबाई तो कहा ही नहीं___!
Sunday, November 4, 2007
उल्टे का उल्टा सीधा होता है____!
मेरा नाम शिवशंकर झा है। मैं प्रयोगशालाओं में काम आने वाले उपकरणों को बनाने वाली विश्वविख्यात कंपनी "ट्राइसन" की भारतीय इकाई में एरिया असिस्टेंट मैनेजर हूँ। आप कभी गुड़गाँव स्थित हमारे ऑफिस आइए। आपको एक पूरा कारपोरेट वर्ल्ड दिखाई देगा। अव्वल दर्जे की फ़र्निशिंग, अव्वल दर्जे के सोफ़े-कालीन और अव्वल दर्जे का स्टाफ। हम अपने फ़ील्ड एग्ज़ीक्यूटिव्स काम करने में पूरी आज़ादी देते हैं। अनेक प्रकार की आर्थिक सहूलियतें भी देते हैं कि छोटा-मोटा खर्चा करना ज़रूरी हो तो वह भी अपने स्तर पर कर लें, पर टारगेट से समझौता न करें।
मेरे अधिकारी एरिया मैनेजर श्री डांगर जी बिज़नेस में डिग्री धारक हैं, और बहुत तेज़ तर्रार किस्म के अफ़सर हैं। इन बिज़नेस के डिग्री धारकों की सबसे बड़ी समस्या होती है कि यह व्यावहारिक नहीं होते। कई बार इनके फ़ैसले इतने अव्यावहारिक होते हैं कि लाभ के बजाए नुक़सान अधिक होता है। जैसे किसी भी भले चंगे फ़ील्ड स्टाफ़ पर अकारण दबाव बनाना। एक और परेशानी है कि यह अपनी क़ाबिलियत साबित करने के लिए अधीनस्थों की उम्मीदों से बिलकुल उलटा निर्णय लेते हैं।
मुझे जब से डांगर साहब के इन उलटे निर्णयों का पता चला तो मैंने उनके मुताबिक अपनी रणनीति बदली।
पिछले माह मेरे मित्र ग्रेवाल साहब अपनी पत्रिका के लिए विज्ञापन मांगने आए। बड़े सज्जन व्यक्ति हैं और उनके जरिए हमें कई क्लाइंट मिले हैं। उनसे मेरा याराना है और पब्लिसिटी के फंड से मैं उन्हें विज्ञापन देना भी चाहता था।
मैंने ग्रेवाल जी से कहा, "इसमें मेरा पहल करना ठीक नहीं है। आप एरिया मैनेजर डांगर जी से सीधे बात करिए। उनसे यह बात जिक्र ज़रूर करिए कि आप मेरे पास आए थे और मैं इस पर राजी नहीं हूँ।"
"पर ऐसा करने की क्या ज़रूरत है? आप स्वयं ही विज्ञापन देना स्वीकार कर क्यों नहीं कर रहे हैं। कान को घुमाकर क्यों पकड़ते हैं?" ग्रेवाल साहब दुविधा में पड़ गए।
"मेरा भरोसा करिए ग्रेवाल साहब। विज्ञापन आपको ज़रूर मिलेगा पर जैसा मैं कहता हूँ करिए। ध्यान रहे कि डांगर साहब के सामने आपको ऐसा जाहिर करना है कि मैं इसके लिए राजी नहीं हूँ।"
वह तैयार हो गए।
दूसरे दिन डांगर साहब ने मुझे बुलाया। उनके सामने ग्रेवाल साहब का पत्र रखा था। मैं समझ गया कि ग्रेवाल जी की मुलाकात डांगर से हो चुकी है।
"मि.शिवशंकर, इस पत्र को देखिए। आपकी क्या ओपीनियन है?"
"सर! ग्रेवाल साहब के मैगजीन की सर्कुलेशन इतनी अधिक नहीं है, इसलिए मैंने उन्हें हामी नहीं भरी थी। वैसे भी इस साल विज्ञापन का बजट पिछली बार से कम है।"
"परंतु ग्रेवाल साहब से हमारी कंपनी के पुराने रिलेशन हैं। इनके मैगजीन की रेपुटेशन बड़ी अच्छी है। हमें ज़रूर इन्हें ही विज्ञापन देना चाहिए। मैं इसी लेटर पर ही अपने कमेंट लिख देता हूँ। आप बैक फुल पेज का कलर एड दे दीजिए।" और उन्होंने उस पत्र पर एक नोट लिखकर मुझे दे दिया।
"ठीक है सर। आप कहते हैं तो मैं इसे प्रोसेस करता हूँ।" और मैं बाहर आ गया।
इसी उलटबंसी का एक अनुभव और याद आता है। यहाँ के एक समाजसेवी पत्रकार श्रीवास्तव जी आए। उनकी ब्लैकमेलिंग के किस्से जगजाहिर थे। उनका मक़सद भी विज्ञापन हासिल करना था। उन्होंने अपना रूतबा दर्शाने के लिए अपने ऊँची पहुँच और मीडिया की ताक़त की बातें बतानी शुरू कर दी। वह ऐसा जाहिर कर रहे थे मानों वह हमसे विज्ञापन मांगकर हमारा कल्याण करना चाहते हों। ठीक है बेटा, मैं भी देखता हूँ, तुम्हें विज्ञापन कैसे मिलता है।
"आप बैठिए तो सही, अभी हाथों-हाथ प्रोपोजल भेजता हूँ। आप आराम से चाय पीजिए।" मैंने चपरासी को चाय लाने का आदेश दिया।
"थोड़ा जल्दी कीजिएगा। मुझे कई क्षेत्रों को एक साथ संभालना पड़ता है। क्या करें? जर्नलिज़्म का काम ही बड़ा जोखिम भरा होता है।"
"यह बन गया प्रोपोजल मैं अपने बॉस के पास भेजता हूँ, बल्कि खुद लेकर जाता हूँ।"
वह खुशी-खुशी चाय पीकर विदा हुए।
मैं स्वयं अपने हाथों से प्रोपोजल लेकर गया। मैंने तो अपनी ओर से पूरी क़ोशिश की, पर मेरे चाहने से क्या होता है?
एक हफ़्ते बाद श्रीवास्तव जी को हमारा खेद पत्र मिल गया। हमारे पब्लिसिटी बज़ट में पैसा ही नहीं था, इसलिए हम उन्हें विज्ञापन नहीं दे सके। अगले वर्ष अवश्य प्रयास करेंगे___!
Thursday, November 1, 2007
एक कलाकार ही दूसरे कलाकार का दर्द समझता है____!
मेरा नाम बजरंगी देवांगन, कलापथक प्रमुख, रायपुर का रहने वाला हूँ। कलापथक ऐसी सरकारी कला मंडली होती है जो सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए सरकार की योजनाओं का प्रचार प्रसार करती है। मुझे तो पता ही नहीं था कि ऐसी भी कोई सरकारी नौकरी होती है जिसमें काम गाने बजाने का हो। मुझे शुरू से ही गाने बजाने का शौक़ था। मेरी तो लाटरी ही लग गई थी।
हमें कलेक्टर के अंडर काम करना पड़ता है। शुरू में तो काम में मज़ा आया, पर बाद में बड़ा बेकार लगने लगा। हमें ग़रीबी हटाओ, परिवार नियोजन, पढ़ो-पढ़ाओ जैसे विषयों पर गीत गाना पड़ता। हमारे गीत भी कहीं और से लिखे आते, कोई रस नहीं, कोई भाव नहीं, बस आदेश होता गीत गाना है। मोटे-मोटे अफ़सर, जिन्हें कला और संगीत के बारे में क ख भी पता नहीं होता, वह हमें बताते कि क्या गाना है और कब गाना है।
समझ लो हम सरकारी भांड हैं। किसी भी कार्यक्रम में जहाँ कलेक्टर या किसी बड़े अधिकारियों का दौरा होता, हमें भेज दिया जाता। हमारा काम भीड़ जुटाना था, जब तक कि कलेक्टर साहब वहाँ पहुँच न जाएँ। पहले बहुत बुरा लगता था कि कोई हमारा गीत बीच में रोककर अपना भाषण शुरू कर दे, पर धीरे-धीरे इसकी आदत हो गई।
मैं अब अपने काम में बिलकुल परफेक्ट हूँ। आप कोई भी कार्यक्रम बताइए, एड्स नियंत्रण या पोलिया टीकाकरण, उसके बारे में आधा पेज लिख कर दीजिए, चुटकी बजाते किसी भी लोकगीत या फिल्मी गीत में फिट कर सकता हूँ। बस गीत तैयार। आपको मज़ा नहीं आ रहा है तो इससे मुझे क्या। मैं आपके मनोरंजन की परवाह करूँ या अपनी नौकरी करूँ? माफ़ कीजिएगा बाबूजी, पर बदलती दुनिया के साथ-साथ मैं भी जीना सीख गया हूँ।
विकासखंड अधिकारी, राजस्व अधिकारी, तहसीलदार, पंचायत प्रमुख और यहाँ तक कि एन.जी.ओ. के लोग भी हमारे चारों ओर डोलते हैं, कहते हैं "बजरंगी भाई, आप जैसे कलाकार की हमारे कार्यक्रम में उपस्थिति ज़रूरी है।" उनका मतलब होता कि
कि "बजरंगी भाई, हमारे कार्यक्रम में आकर मुफ़्त में गाना-बजाना कर दो।" अव्वल तो हम हर किसी कार्यक्रम में जाते नहीं, यदि गए भी तो ऐसा गाते-बजाते हैं कि किसी को सुनाई ही न दे। लोगों को ढोलक, हारमोनियम की आवाज़ बस सुनाई देती है पर समझ में कुछ नहीं आता। जब तक आयोजक लोग माइक सेट करते हैं हम दो गीत गाकर ब्रेक ले लेते हैं।
लोग आखिरी में हमारे मन की बात कह देते हैं-"इससे अच्छा तो नाचा या भजन मंडली बुलवा लेते।" यही तो हम भी चाहते हैं कि अगली बार नाचा बुलवा लें तो हमारी बला टले। हमें संतोष है कि हमारी नौकरी पक्की है हमारा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा। अब थोड़ा गाली खा लेने से, या थोड़े घटिया साबित होने से हमारी कलाकार बिरादरी के किसी भाई को रोज़गार मिले तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है___!
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