Sunday, December 16, 2007

आधिकारिक आदेशों पर तुरंत कार्रवाई करो_______!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


आज हमारे प्रकाशन विभाग में एक पत्र आया कि दीपावली मेले में दो दिन की प्रदर्शनी लगने वाली है, उसमें अपने प्रकाशन का स्‍टॉल लगाना है और किताबें प्रदर्शित करनी है। पत्र इंचार्ज के नाम आया और उन्‍होंने आवश्‍यक कार्रवाई के लिए मेरे पास भेज दिया। किसी प्रदर्शनी में अपना स्‍टॉल लगाने का मतलब है पूरा सिरदर्द।

इसमें क्‍या कम काम होता है? किताबों के संदूक लिए वहाँ जाना, सारा कुछ खुद ही ढोना। दिन भर की ड्यूटी और किताबों का हिसाब किताब। चाय पीने, पेशाब करने का भी समय नहीं मिल पाता। पता नहीं रूकने और खाने की व्‍यवस्‍था है या सब अपने जेब से ही करनी पड़ेगी। पैसा देकर किताबें कोई खरीदना नहीं चाहेगा और फ्री का सैकड़ों कैटलॉग खराब हो जाएंगे।

पहले मैं अपना परिचय दे देता हूँ। मेरा नाम सूबेदार सिंह है, परंतु मेरे पूरे नाम से बहुत कम लोग जानते हैं। जबकि आप एस.डी. सिंह जी को पूछें तो यहाँ हर कोई बता देगा। मैं यहाँ इंदौर कृषि विश्‍वविद्यालय के सूचना और प्रकाशन विभाग में काम करता हूँ। हमारे विभाग का मुख्‍य काम रिपोर्टों, पत्र-प‍त्रिकाओं, कृषि संबंधी बुलेटिनों का प्रकाशन करना है। प्रकाशन के काम में जो लोग प्रत्‍यक्ष रूप से जुड़े हैं वही लोग इस काम की गंभीरता, इसकी मुश्किलों को समझ सकते हैं, वरना आम लोगों को यह बड़े आराम का काम लगता है।

अभी पिछले माह ही कुलपति महोदय ने आदेश जारी किया कि हमारा विश्‍वविद्यालय अपने प्रकाशन विभाग को सार्वजनिक मेलों तथा समारोहों में भी भेजेगा। इससे लोगों को हमारी गतिविधियों की जानकारी होगी, साहित्‍य की बिक्री होगी, संस्‍थान का प्रचार-प्रसार होगा, कृ‍षकों का कल्‍याण होगा, राजस्‍व आएगा, विजिबिलिटी बढ़ेगी.....। मतलब यह कि हम अपना संदूक उठा-उठाकर जगह जगह घूमें और तंबू लगाएँ। बस ठेला लेकर गली-गली फेरी लगाने की कसर रह गई है।

अब पत्र आया था तो आवश्‍यक कार्रवाई करनी ही थी। मैं दीवाली मेले के संयोजक यादव जी के पास मिलने गया।

"मैं इंदौर कृषि विश्‍वविद्यालय से आया हूँ। आपने पत्र दिया था स्‍टॉल लगाने के लिए। हाँ वही, बहुत शुक्रिया कि आपने मेले में बुलाया। इसी बारे में कुछ जानकारी चाहिए। बस पाँच मिनट आपका लूँगा।" मैं उनसे बड़ी गर्मजोशी से मिला।

"ज़रूर जी। धन्‍यवाद तो आपका है, जो आप हमारे पास आए। बताइए क्‍या सेवा करें?" यादव जी भी विनम्र हो गए।

"स्‍टॉल लगाने का चार्ज भी कुछ लेते हैं?" मैंने पूछा।

"चार्ज तो है। पर आप कृषि यूनिवर्सिटी वालों से कुछ नहीं लेंगे। आप लोग वैसे ही आ जाइए। हम चार्ज प्राइवेट कंपनियों से लेंगे।"

"हमारे तीन आदमी होंगे। उनके रूकने की व्‍यवस्‍था क्‍या होगी?"

"अजी रूकना क्‍या है, सुबह मेला शुरू है, शाम को बंद। दिन भर मेले में रहिए और शाम को अपने घर में लौट जाइए।"

"आप कह तो ठीक रहे हैं, पर मेला बंद होते होते रात के आठ-नौ बज जाएंगे और सामान लेकर हमारे आदमी कहाँ परेशान होंगे। तो उनके रूकने की व्‍यवस्‍था तो होनी ही चाहिए।"

"हाँ आपकी बात भी सही है।" यादव जी थोड़ा नीचे उतरे।

"भोजन की व्‍यवस्‍था आपकी ओर से कुछ है?" मैं कुछ आगे बढ़ा।

"वहाँ फूड स्‍टॉल होंगे, वहाँ आपके आदमी भोजन कर सकते हैं।

"उसके पैसे तो देने पड़ेंगे ना।"

"जी हाँ, वो तो है। हमारी ओर से कोई ऐसी व्‍यवस्‍था नहीं है।" यादव जी कुछ और नीचे उतर गए।

"हमारे पास किताबों के संदूक होंगे तो उसके लिए कोई गाड़ी चाहिए। कुछ इंतज़ाम हो सकता है कि सुबह ले आएँ और शाम को छोड़ आएँ?"

"नहीं गाड़ी तो नहीं हो पाएगी?" अब यादव और उतरे।

"तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी यादव जी। और मेले में दर्शक कैसे होंगे?"

"यही शहर के लोग होंगे। सभी फैमिली वाले घूमने फिरने आएंगे। झूला झूलेंगे, कुछ ख़रीददारी करेंगे।"

"तो उनमें हमारे विश्‍वविद्यालय की किताबें पढ़ने में किसको दिलचस्‍पी होगी। इसमें तो रिपोर्टें, मोटी-मोटी किताबें और कृषि पत्रिकाएँ होती हैं। आपको क्‍या लगता है? कितनी किताबें बिक पाएंगी?" मैंने बॉल यादव जी के कोर्ट में डाल दी।

"अब मैं क्‍या बता सकता हूँ। आप ठीक कहते हैं। इन किताबों की बिक्री में मुश्किल ही होगी। लोग घूमने फिरने आएंगे, किताबें कौन ख़रीदेगा।" यादव जी पूरी तरह उतर गए।

"तो ठीक है। बहुत-बहुत धन्‍यवाद। आपसे सारी बातें क्‍लीयर हो गईं। आपके हिसाब से इस मेले कें किताबें तो बिकेंगी नहीं, फिर स्‍टॉल लगाने का क्‍या फ़ायदा?" मैं उठने लगा।

"जी बिलकुल। ऐसे तो स्‍टॉल लगाने का कोई मतलब नहीं है।" यादव जी उठने लगे।

मैंने वह पत्र निकाला, उस पर मेरी आवश्‍यक कार्रवाई पूरी हो चुकी थी। मैंने मेले के संयोजक से मुलाक़ात की। उन्‍हें लगता है कि स्‍टॉल लगाना बेमानी होगा। इसलिए स्‍टॉल लगाने का विचार छोड़ देना चाहिए।

Monday, December 3, 2007

बायोडाटा ऐसा बनाओ कि नौकरी देने वाला विवश हो जाए _____!


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


आपने गौर किया होगा कि जब से प्राइवेट तथा मल्‍टीनेशनल कंपनियों का ज़ोर बढ़ा है, हमारे यहाँ नौकरियों में भर्ती की प्रणाली में काफ़ी बदलाव आ गया है। पहले इम्‍तहान के नंबरों के आधार पर सीधे फैसला ले लिया जाता था। इंटरव्‍यू होते भी थे, तो नाम-मात्र के। अब सरकारी कंपनियों में भी लोग इंटरव्‍यू और स्‍मार्टनेस को बहुत महत्‍व देने लगे हैं।

मेरा नाम जे.पी. देशपांडे है। यहाँ ग्‍वालियर में बैंक में काम करता हूँ। मैंने भी नौकरी पाने के लिए बहुत पापड़ बेले हैं। हमारे समय में गाइड करने वाला कोई नहीं था। इसलिए काफ़ी भटकना पड़ा। अब कोई बेरोज़गार युवक मुझसे सलाह माँगता है तो मैं उसका पूरा सहयोग करता हूँ।

पड़ोस का एक लड़का नौकरी की तलाश में था। एक दिन वह मेरे पास सलाह लेने आया। मैंने सबसे पहले उसका बायोडाटा देखा। सबसे पहले उसमें सुधार की ज़रूरत थी। मैंने उसे सलाह दी -

"बायोडाटा पुराने स्‍टाइल का है, आजकल के हिसाब से ठीक नहीं है। बायोडाटा ऐसा होना चाहिए कि देखने वाला इंप्रेस हो जाए।"

"तो इसे कैसा बनाएँ?"

"सबसे पहले तो इसे उलटा कर दो। मतलब कि जो कुछ इसमें नीचे है, वह ऊपर लिखो और जो ऊपर लिखा है उसे नीचे करो, जैसे इसमें तुमने अपने नाम, पिता का नाम से शुरू किया है। यह सब पढ़ने का टाइम किसके पास है? इसे सबसे लास्‍ट में लिखो।"

"अच्‍छा!"

"इम्‍तहान में कितने नंबर हैं, इसे भी बाद में ले जाओ।"

"तो शुरूआत में क्‍या लिखूँ?"

"शुरूआत में अपनी विशेषताएँ बताओ। तुम्‍हारी विशेषताएँ क्‍या हैं?" मैंने उससे पूछा।

"मैं पढ़ाई में तेज हूँ।"

"नहीं। यह सब नहीं चलता। इसके बदले कोई दूसरी विशेषता सोचो।"

"दूसरा.... मैं खेलकूद में अव्‍वल हूँ।"

"अरे यार। इनसे काम नहीं चलता। विशेषताएँ ऐसी लिखो कि तुम्‍हारी पर्सनैलिटी का पता चले जैसे कि तुम फ्रेंडशिप जल्‍दी करते हो, तुम्‍हारे अंदर लीडरशिप की क्‍वालिटी है, तुम हँसमुख हो, मुसीबत में भी हँसते रहते हो, वगैरह.." मैने उसे समझाया।

"पर भैया यह सब तो नहीं हैं। मैं फ्रेंडशिप जल्‍दी नहीं कर पाता।"

"जो भी हो, पर लिखना यही। समझे! "

"जी समझ गया।" वह मेरे सुझाव से उत्‍साहित था।

"और तुम्‍हारी हॉबी क्‍या है? मतलब तुम्‍हें क्‍या करना पसंद है?"

"हॉबी.... फिल्‍में देखना, सोना, टीवी देखना...."

"यह सब तो रहने दो। इसके बदले लिखो कि तुम्‍हें माउंटैनिंग, ट्रैकिंग, घूमना-फिरना, लोगों का कल्‍चर स्‍टडी करना वगैरह पसंद है।"

"नहीं, सब तो बिलकुल पसंद नहीं, यह ट्रैकिंग क्‍या होती है?"

"यह जो भी हो, लिखना यही चाहिए।"

"जी समझ गया।"

"और यह भी लिखना पड़ता है कि तुम्‍हारा लक्ष्‍य क्‍या है। तुम अपनी जिंदगी में क्‍या करना चाहते हो?" मैंने उससे पूछा।

"मैं अच्‍छी नौकरी करना चाहता हूँ। गाड़ी और घर खरीदना चाहता हूँ।"

"धत् तेरे की। यह कभी मत कहना। हमेशा कहना कि मैं अपने फ़ील्‍ड में टॉप पर पहुँचना चाहता हूँ। समझे?" मैंने पूछा।

"समझ गया।" वह सिर हिलाया।

"और सबसे अंत में अपना नाम, पता, और अपने पिता का नाम लिखना चाहिए। समझे?"

"जी समझ गया। पिता का नाम क्‍या लिखना ठीक रहेगा। इसे असली लिख दूँ?" वह पूछा।

मैं सोच में पड़ गया। इस पर तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था।