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Sunday, November 4, 2007
उल्टे का उल्टा सीधा होता है____!
मेरा नाम शिवशंकर झा है। मैं प्रयोगशालाओं में काम आने वाले उपकरणों को बनाने वाली विश्वविख्यात कंपनी "ट्राइसन" की भारतीय इकाई में एरिया असिस्टेंट मैनेजर हूँ। आप कभी गुड़गाँव स्थित हमारे ऑफिस आइए। आपको एक पूरा कारपोरेट वर्ल्ड दिखाई देगा। अव्वल दर्जे की फ़र्निशिंग, अव्वल दर्जे के सोफ़े-कालीन और अव्वल दर्जे का स्टाफ। हम अपने फ़ील्ड एग्ज़ीक्यूटिव्स काम करने में पूरी आज़ादी देते हैं। अनेक प्रकार की आर्थिक सहूलियतें भी देते हैं कि छोटा-मोटा खर्चा करना ज़रूरी हो तो वह भी अपने स्तर पर कर लें, पर टारगेट से समझौता न करें।
मेरे अधिकारी एरिया मैनेजर श्री डांगर जी बिज़नेस में डिग्री धारक हैं, और बहुत तेज़ तर्रार किस्म के अफ़सर हैं। इन बिज़नेस के डिग्री धारकों की सबसे बड़ी समस्या होती है कि यह व्यावहारिक नहीं होते। कई बार इनके फ़ैसले इतने अव्यावहारिक होते हैं कि लाभ के बजाए नुक़सान अधिक होता है। जैसे किसी भी भले चंगे फ़ील्ड स्टाफ़ पर अकारण दबाव बनाना। एक और परेशानी है कि यह अपनी क़ाबिलियत साबित करने के लिए अधीनस्थों की उम्मीदों से बिलकुल उलटा निर्णय लेते हैं।
मुझे जब से डांगर साहब के इन उलटे निर्णयों का पता चला तो मैंने उनके मुताबिक अपनी रणनीति बदली।
पिछले माह मेरे मित्र ग्रेवाल साहब अपनी पत्रिका के लिए विज्ञापन मांगने आए। बड़े सज्जन व्यक्ति हैं और उनके जरिए हमें कई क्लाइंट मिले हैं। उनसे मेरा याराना है और पब्लिसिटी के फंड से मैं उन्हें विज्ञापन देना भी चाहता था।
मैंने ग्रेवाल जी से कहा, "इसमें मेरा पहल करना ठीक नहीं है। आप एरिया मैनेजर डांगर जी से सीधे बात करिए। उनसे यह बात जिक्र ज़रूर करिए कि आप मेरे पास आए थे और मैं इस पर राजी नहीं हूँ।"
"पर ऐसा करने की क्या ज़रूरत है? आप स्वयं ही विज्ञापन देना स्वीकार कर क्यों नहीं कर रहे हैं। कान को घुमाकर क्यों पकड़ते हैं?" ग्रेवाल साहब दुविधा में पड़ गए।
"मेरा भरोसा करिए ग्रेवाल साहब। विज्ञापन आपको ज़रूर मिलेगा पर जैसा मैं कहता हूँ करिए। ध्यान रहे कि डांगर साहब के सामने आपको ऐसा जाहिर करना है कि मैं इसके लिए राजी नहीं हूँ।"
वह तैयार हो गए।
दूसरे दिन डांगर साहब ने मुझे बुलाया। उनके सामने ग्रेवाल साहब का पत्र रखा था। मैं समझ गया कि ग्रेवाल जी की मुलाकात डांगर से हो चुकी है।
"मि.शिवशंकर, इस पत्र को देखिए। आपकी क्या ओपीनियन है?"
"सर! ग्रेवाल साहब के मैगजीन की सर्कुलेशन इतनी अधिक नहीं है, इसलिए मैंने उन्हें हामी नहीं भरी थी। वैसे भी इस साल विज्ञापन का बजट पिछली बार से कम है।"
"परंतु ग्रेवाल साहब से हमारी कंपनी के पुराने रिलेशन हैं। इनके मैगजीन की रेपुटेशन बड़ी अच्छी है। हमें ज़रूर इन्हें ही विज्ञापन देना चाहिए। मैं इसी लेटर पर ही अपने कमेंट लिख देता हूँ। आप बैक फुल पेज का कलर एड दे दीजिए।" और उन्होंने उस पत्र पर एक नोट लिखकर मुझे दे दिया।
"ठीक है सर। आप कहते हैं तो मैं इसे प्रोसेस करता हूँ।" और मैं बाहर आ गया।
इसी उलटबंसी का एक अनुभव और याद आता है। यहाँ के एक समाजसेवी पत्रकार श्रीवास्तव जी आए। उनकी ब्लैकमेलिंग के किस्से जगजाहिर थे। उनका मक़सद भी विज्ञापन हासिल करना था। उन्होंने अपना रूतबा दर्शाने के लिए अपने ऊँची पहुँच और मीडिया की ताक़त की बातें बतानी शुरू कर दी। वह ऐसा जाहिर कर रहे थे मानों वह हमसे विज्ञापन मांगकर हमारा कल्याण करना चाहते हों। ठीक है बेटा, मैं भी देखता हूँ, तुम्हें विज्ञापन कैसे मिलता है।
"आप बैठिए तो सही, अभी हाथों-हाथ प्रोपोजल भेजता हूँ। आप आराम से चाय पीजिए।" मैंने चपरासी को चाय लाने का आदेश दिया।
"थोड़ा जल्दी कीजिएगा। मुझे कई क्षेत्रों को एक साथ संभालना पड़ता है। क्या करें? जर्नलिज़्म का काम ही बड़ा जोखिम भरा होता है।"
"यह बन गया प्रोपोजल मैं अपने बॉस के पास भेजता हूँ, बल्कि खुद लेकर जाता हूँ।"
वह खुशी-खुशी चाय पीकर विदा हुए।
मैं स्वयं अपने हाथों से प्रोपोजल लेकर गया। मैंने तो अपनी ओर से पूरी क़ोशिश की, पर मेरे चाहने से क्या होता है?
एक हफ़्ते बाद श्रीवास्तव जी को हमारा खेद पत्र मिल गया। हमारे पब्लिसिटी बज़ट में पैसा ही नहीं था, इसलिए हम उन्हें विज्ञापन नहीं दे सके। अगले वर्ष अवश्य प्रयास करेंगे___!
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