Monday, October 1, 2007
खाता खुलवाने के लिए यही बैंक मिला है!
इतनी देर से मेरे काउंटर के सामने खड़ा है और बैंक के खाता खोलने का फ़ॉर्म मांग रहा है। मैं उसे अनदेखा कर अपने दूसरे कामों में व्यस्त होने का दिखावा कर रहा हूँ। मुझे दिखावा करने की क्या ज़रूरत है? मेरे पास वैसे ही बहुत काम है।
"अभी फार्म खत्म हो गए हैं कल आना!"
वह फिर भी नहीं टलता। मैं उठकर अंदर टेलीफ़ोन करने चला जाता हूँ। उसे लगता है कि मैं उसकी जिद से हार मानकर फ़ॉर्म लाने कहीं अंदर गया हूँ। इन लोगों ने तंग कर रखा है। यहाँ वैसे ही बहुत भीड़ रहती है। इतने सारे दूसरे बैंक हैं, उनकी अच्छी-अच्छी सुविधाएँ है, तो वहाँ जाकर अपना खाता क्यों नहीं खुलवाते।
वह अभी भी डटा है।
"क्या एक बार में सुनाई नहीं देता!" मैं झल्ला उठा। हमें भी इनसे नाराजगी से बात करना अच्छा नहीं लगता, पर क्या करें मज़बूरी है। इतनी डांट-डपट न करें तो यह हमारा जीना मुश्किल कर देंगे।
वह वापस जा रहा है। पर मैं जानता हूँ कि वह कल वह फिर आएगा। कमबख़्त ने परेशान कर दिया। पब्लिक डीलिंग का काम सचमुच कितना टेंशन वाला है।
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4 comments:
तो वो आप थे जिसने हम टहला लिया था खाता न खोल के? :)
गजब करते हैं. हा हा!!
हमने तो टहलाने की भरसक कोशिश की थी, पर हार तो आप भी नहीं माने, खाता खोल ही लिया। ;)
आनंद
चलिये आपके चिट्ठे पर तो खाता खुलवा लेते हैं।
उन्मुक्त जी, आपका खाता पहले दिन, पहली पोस्ट http://anand-ka-chittha.blogspot.com/2007/09/blog-post.html से ही इस चिट्ठे में खुला हुआ है। - आनंद
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