Tuesday, October 9, 2007

वह इस क़ाबिल नहीं, कि अपनी ज़िंदगी ठीक से गुज़ार पाए___


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


काले कोट का अपना अलग महात्‍म्‍य होता है। वक़ील काला चोगा पहनते हैं, और हम टी.सी. लोग काला कोट। टी.सी., यानि कि ट्रेन के टिकट चेकर, आप टी.टी.ई. भी कह सकते हैं। आपके लिए बात एक ही है।

"देखिए सर, कोई बर्थ खाली हो तो...", उस व्‍यक्ति ने बड़ी आशा भरी नज़रों से देखा। यह बात दूसरे दर्जे के स्‍लीपर डिब्‍बों की है। उसके पास वेटिंग टिकट था।

"कोई चांस नहीं, पूरी गाड़ी फुल है।" मैंने उसकी ओर बिना देखे ही जवाब दिया।

लोगों को अकसर यह ग़लतफ़हमी होती है कि हम उनकी तरफ़ गौर नहीं करते हैं। यूँ तो हमारी नज़र चार्ट पर रहती है, परंतु हम सामने वाले की औक़ात का अंदाज़ा बख़ूबी लगा लेते हैं। लोग आशा भरी नज़रों से हमें घेरकर खड़े होते हैं मानों प्रसाद पाने में वे कहीं वह पीछे न रह जाएँ।

वह व्‍यक्ति एक महिला के साथ यात्रा कर रहा था। ज़रूरतमंद तो था ही, पर उसकी ज़रूरत दूसरों से ज़्यादा है, मुझे इसका कोई संकेत नहीं मिल पाया। जो यात्री अनुपस्थित होते हैं, उनकी खाली सीटों को हम नियमानुसार आबंटित कर देते हैं।

मैं कुछ देर बाद उसके पास गया और बोला - "अपनी टिकट दिखाइए", उसने टिकट सामने कर दी।

"एक सीट महिला कोटे की है, दे रहा हूँ", और मैंने उसके टिकट पर सीट नंबर लिख दिया।

"थैंक्‍यू सर!" वह खुश हो गया।

"बस। खाली थैंक्‍यू? कुछ दक्षिणा नहीं देंगे?" मुझे आखिरकार खीझ आ गई। लोग एक बर्थ के लिए दो-तीन सौ रूपए तो वैसे ही दे देते हैं।

"ज़रूर सर।" और उसने दस रूपए का नोट निकाल लिया।

"बस! दस रूपए!"

"जी। बस इतना ही।" वह बोला। मैं एक मिनट तक उस दस रूपए को उलट पलट कर देखता रहा, शायद और कुछ निकाले। पर उसने उल्‍टे ऐसी नज़रों से देखना शुरू किया जिसका मतलब साफ था कि यदि आपको दस रूपए मंज़ूर नहीं, तो लौटा दीजिए।

"मैं हाथ आई लक्ष्‍मी को नहीं ठुकराता", मैंने वह नोट जेब में रख लिया।

वह इस क़ाबिल नहीं था कि मैं उससे कुछ बहस करूँ। वह इस क़ाबिल भी नहीं था पूरी ज़िंदगी में कभी भी कनफ़र्म बर्थ हासिल कर पाता। मैं यही सोचता हूँ कि वह अपनी लाइफ़ कैसे गुज़ारेगा...। आपको क्‍या लगता है?

3 comments:

Satyendra Prasad Srivastava said...

यही लक्ष्य है तो शुरुआत बुरी नहीं है। वक्त ढीठ और बेशर्म बना देगा

Udan Tashtari said...

वो तो खैर जैसे तैसे गुजार लेगा..मगर १० -१० रुपये बस मिलते रहे तो आपकी कटना तो मुश्किल ही समझो. क्या खाओगे, क्या बांटोगे. थोड़े दिन में मालगाड़ी पर ड्यूटी लगना शुरु हो जायेगी. :)

आनंद said...

वहाँ (मालगाड़ी में) भी हम कोई न कोई गुंजाइश निकाल ही लेंगे । ;) - आनंद