Tuesday, October 30, 2007
सरफ़रोशी की तमन्ना दिल में ही रह गई ____!
मेरा नाम विनायक अहिरवार है, पेशा राजनीति, रीवा मध्यप्रदेश कर रहने वाला हूँ। सभी भाई बहन अपने अपने ठिकाने लग गए हैं। ठिकाने लगने का मतलब है कि भाई अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं, बड़े की नौकरी तो पहले से ही थी, छोटा कपड़ों का बिज़नेस करता है। दोनों बहनों की शादी हो चुकी है। यहाँ हमारी रिश्तेदारी बहुत बड़ी है। मेरा मानना है कि हर परिवार में कोई-न-सदस्य राजनीति में होना चाहिए। दूसरों का न सही, अपने घर में ही इतने काम रहते हैं एडमिशन से लेकर तबादले तक, बिजली-पानी के कनेक्शन से लेकर कोर्ट कचहरी तक, कि राजनैतिक जान-पहचान की ज़रूरत पड़ती रहती है।
मैंने एम.ए कर लिया, एल.एल.बी भी कर लिया पर नौकरी नहीं मिली। इसलिए मैंने पढ़ लिखकर राजनीति को अपना कैरियर बनाने का निश्चय किया है। राजनीति में पढ़े लिखे नेताओं की हमेशा ज़रूरत रही है और मैं तो शुरू से ही बोलने-चालने में अच्छा रहा हूँ। काफी विचार विमर्श कर काँग्रेस पार्टी का कार्यकर्ता बन गया हूँ। हमारे क्षेत्र के युवा विधायक हैं श्री ईश्वर सिंह जी, वह मेरी बहुत इज्जत करते हैं। मैं उनका बहुत ही ख़ास चेला बन गया हूँ।
राजनीति में निष्ठावान तथा जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं की बहुत ज़रूरत पड़ती है। शुरूआती स्तर पर छिछोरापन ठीक नहीं है। पहले विचारधारा के स्तर पर तो परिपक्व हो लें, फिर यदि ईमानदारी से काम किया जाए तो सत्ता भी मिल जाएगी। जनता का काम नि:स्वार्थ भाव से करना चाहिए। फिलहाल आप सबों की दुआ से अपना जेबखर्च निकल ही जाता है। मेरी दृष्टि स्थानीय राजनीति, छोटी मोटी उठापकट से काफी आगे है। मैं राष्ट्रीय राजनीति में अपना दखल बनाना चाहता हूँ। राजनीति में छात्रों का नेतृत्व करना आसान लगता है, पर इसमें बहुत जटिलताएँ भी शामिल होती हैं।
उस समय हम पाकिस्तान के राष्ट्रपति मुशर्रफ़ के भारत आगमन के विरोध में जनमत तैयार कर रहे थे। छात्र शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है। हमारी नीति रही है कि छात्र नेताओं से संपर्क कर उन्हें अपने आंदोलन में शामिल करते हैं। छात्रों में नया जोश, नई ऊर्जा होती है। हम अपने कुछ पदाधिकारियों के साथ यहाँ के मेडिकल कॉलेज में जनआंदोलन के लिए छात्रों से मिले जुले तो वातावरण काफ़ी अनुकूल लगा। जहाँ एक ओर मुशर्रफ़ कारगिल लड़ाई का जिम्मेदार था, हमारे देश में अव्यवस्था फैलाने के लिए आतंकवादियों को शह देने की बात किसी से छिपी नहीं है। उसी खलनायक का स्वागत आज केंद्र सरकारी राज सम्मान के साथ कर रही है। इस सरकार को हमारे देश के आत्मसम्मान की ज़रा भी परवाह नहीं है! धिक्कार है!
यहाँ के छात्र नेताओं में काफी उत्साह था, इसलिए युवा विधायक श्री ईश्वरचंद ने स्वयं वहाँ एक मीटिंग ली।
"साथियों! कोई बात आप सब से छिपी नहीं है। इसलिए समय बरबाद न करते हुए मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ। हमारे हिंदुस्तान के टुकड़े करने का सपना देखने वाले मुशर्रफ का स्वागत हम नहीं होने देंगे। इसने ही हमारे कश्मीर पर, हमारी माँ बहनों पर अत्याचार कराया है। इसे तो गोलियों से भून देना चाहिए। और यह सरकार, अमेरिका की गुलामी कर रही है...।" ईश्वर जी ने वहाँ उपस्थित सभी छात्रों की अंतरात्मा को हिला कर रख दिया।
इसके बाद आंदोलन की रूपरेखा तय हुई।
"तो हमने इसके लिए भोपाल में 11 तारीख को एक रैली का आह्वान किया है। यहाँ से पूरी ट्रेन भरकर जाएगी। वैसे तो आप लोगों के रूकने, खाने पीने की व्यवस्था सब है, पर यदि कुछ गड़बड़ी हो तो आप अपना खर्च खुद करना पड़ सकता है। क्या हम अपने देश के लिए इतना भी नहीं कर सकते?" सभी छात्रों जाने के लिए तैयार थे।
"आप लोगों को अपनी कुछ कक्षाएँ छोड़नी पड़ेंगी, तो क्या आप सब तैयार हैं?"
"हाँ, बिलकुल तैयार हैं।"
"शाबास! यदि यहाँ के प्रिंसिपल ने कोई टांग अड़ाने की क़ोशिश की, तो क्या उनका विरोध करने के लिए?"
"हाँ, बिलकुल तैयार हैं।"
"यदि हम एकजुट रहे तो कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यह हमारे अपने देश के स्वाभिमान की लड़ाई है। मैं आप लोगों को बता दूँ कि यदि प्रिंसिपल कल आप लोगों में किसी को रेस्टिकेट भी कर सकता है। क्या देश के लिए लड़ाई लड़ने को तैयार है। आप में से कितने लोग अपनी कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं? अपने हाथ उठाएँ!"
सारे हाथ खडे हो गए।
"और कितने लोग कुर्बानी नहीं दे सकते? हाथ उठाएँ। किसी के साथ कोई जबरदस्ती नहीं है।"
एक भी हाथ नहीं उठा। सभी छात्र देश के लिए अपनी कुर्बानी देने को तैयार थे। सबके मन में सरफ़रोशी की तमन्ना जोर मार रही थी। यह मेरे देश, भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद के देश के युवा हैं...!
ईश्वर जी प्रसन्न होकर कॉलेज से विदा हुए। उन्होंने विशेष तौर पर मेरी पीठ ठोंकी।
हमने अपने कार्यकर्ताओं के साथ भोपाल में रैली की, रैली बहुत अच्छी रही। पर उस मेडिकल कॉलेज से कोई नहीं आया। सुना है उनके परीक्षा की डेट एनाउंस गई थी और सब अपनी पढ़ाई में जुट गए थे।
आजकल छात्र राजनीति भी आसान नहीं रह गई। और इन मेडिकल कॉलेज के भगतसिंहों के सरफ़रोशी की तमन्ना का कोई भरोसा नहीं _____!
Thursday, October 25, 2007
छोटे शहर की छोटी मानसिकता_____
मेरा नाम डी.पी. यादव है, एम.ए., एम.एस-सी., बी.एड. हूँ और सिहोरा के शासकीय हाई स्कूल में शिक्षक हूँ। सिहोरा शहर काफ़ी तेज़ी से विकास कर रहा है। अब तो यहाँ एम.एस-सी. तक का कॉलेज, दो हाई स्कूल, तथा एक गर्ल्स हाई स्कूल, दो प्राइवेट नर्सिंग होम, एक स्टेडियम, एक आई.ए.एस. कोचिंग सेंटर भी खुल गया है। यहाँ से पढ़े बच्चे देश भर में अपने सिहोरा गाँव का नाम रोशन कर रहे हैं। अब यह गाँव कहाँ रहा, अच्छा खासा शहर हो गया है।
यहाँ बायोलॉजी की कक्षा में अध्यापन कार्य कर रहा हूँ। पिछले 15 वर्ष से बायोलॉजी अध्यापन के क्षेत्र में मेरा नाम है। आसपास के शहरों से विद्यार्थी ट्यूशन पढ़ने मेरे पास आते हैं। पर मैं हर किसी को नहीं पढ़ाता। मेरे स्कूल से भी अनेक बच्चे मेरे पास आते हैं। ट्यूशन पढ़ना या न पढ़ना छात्रों की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है। मैं किसी पर कोई दबाव नहीं डालता, किसी को मैं बाध्य नहीं करता। जिसे पढ़ना है पढ़े, जिसे नही पढ़ना वह स्वाध्याय कर परीक्षा देने के लिए स्वतंत्र है। अपने नंबरों के लिए वह स्वयं जिम्मेदार होगा। मेरा आशीर्वाद उसके साथ है।
यहाँ के लोगों की मानसिकता अभी भी पिछड़ी हुई है। एक लड़का है सुंदर लाल। बारहवीं का छात्र है। पढ़ने में तेज़ है। ईश्वर ने उसे बुद्धि अच्छी दी है पर उसे इसका घमंड हो गया है। मेरे पास ट्यूशन नहीं पढ़ता और कहता है कि स्वयं ही क्लास में फ़र्स्ट आकर दिखाएगा। वह एक दिन प्रिंसिपल के पास शिकायत लेकर पहुँच गया कि यादव सर लड़कों को प्रेक्टिकल नंबर कम देते हैं और लड़कियों को नंबर ज़्यादा देते हैं।
आप तो जानते हैं कि छोटे शहर के लोग और उनकी वैसी ही ओछी मानसिकता। लड़कों को पूरे समय नेतागिरी करने, क्रिकेट वगैरह से फुरसत नहीं मिलती। लड़कियाँ मन लगाकर प्रेक्टिकल में भाग लेती हैं। उनकी हैंडराइटिंग सुंदर होती है। उनका मौखिक साक्षात्कार अच्छा होता है इसलिए उनके नंबर अधिक आते हैं। एक शिक्षक के नाते हमें अपने छात्रों का संपूर्ण व्यक्तित्व जाँचना होता है। प्रेक्टिकल नंबर और किसलिए होता है?
अभी परसों तो हद हो गई। वह प्रिंसिपल के पास पहुँच गया और कहने लगा कि यादव सर नीता के सिर पर हाथ फेर रहे थे। नीता उसी की सहपाठी है, और बहुत अच्छी लड़की है। मेरा लेक्चर बड़े ध्यान से सुनती है। क्या एक शिक्षक स्नेह से अपने विद्यार्थियों के सिर पर हाथ नहीं फेर सकता? मैंने प्रिंसिपल साहब से कह दिया कि चाहे जिसकी कसम खवा लो, मैं नीता के सिर पर ममत्व युक्त स्नेह से हाथ फेर रहा था। सुंदरलाल कहने लगा कि हम भी तो आपके छात्र हैं, हमारे सर पर भी ममत्व वाले स्नेह से हाथ फेरो। ठहर साले! इसी ममत्व वाले हाथ से तेरा टेंटुआ न दबा दूँ_____!
Tuesday, October 23, 2007
राम! बस दस मिनट और रूको _____
मैं संजयनगर दशहरा समिति का अध्यक्ष मनोहरलाल बोल रहा हूँ। जितने भी दर्शक आए हैं शांति बनाए रखें और वह आतिशबाजी का आनंद लें। भगवान राम भी अपनी वानर सेना के साथ मैदान में पधार चुके हैं। रावण दहन शीघ्र ही किया जाएगा। मंच पर हमारे मुख्य अतिथि श्री राजेश पटेल और उनके छोटे भाई विवेक पटेल, दोनों आ चुके हैं। श्री राजेश पटेल मेरे बड़े भाई जैसे हैं और यहाँ के जाने माने समाजसेवक हैं, और जनता के प्रेम में मज़बूर होकर उन्हें राजनीति ज्वाइन करना पड़ा और पिछले 10 वर्ष से राजनीति में सक्रिय हैं। श्री राजेश पटेल ने इस दशहरा उत्सव के आयोजन में अपना भरपूर योगदान दिया है और हमेशा देते रहेंगे। मैं बहुजन समाज पार्टी के युवा नेता भाई कस्तूरी लाल से अनुरोध करता हूँ कि वह मंच पर आकर राजेश पटेल जी का स्वागत करें।
अब मैं कपूर ज्वेलर्स के श्री नेकचंद जैन जी से अनुरोध करता हूँ कि वह भाई राजेश पटेल जी का स्वागत करें। श्री नेकचंद ने तन-मन-धन से इस दशहरा समिति के आयोजन में सहयोग दिया है।
भारतीय युवा मोर्चा के श्री गुमान भाई भी राजेश पटेल जी का स्वागत करें। यह विशाल कुंभकर्ण श्री गुमान भाई के सौजन्य से बना है। कृपया जल्दी-जल्दी मंच पर आएं। गुमान भाई ! और साथ में कमल त्यागी भी आ जाएँ।
एल.आई.जी. कल्याण समिति के सचिव श्री गौतम मंडल हमारे नेता श्री राजेश पटेल जी का स्वागत करेंगे। कृपया ताली बजाते जाएँ। दर्शकों से मेरा निवेदन है कि घेरे के अंदर न घुसें। सिक्योरिटी गार्ड और वालंटियर उधर देखिए क्या हो रहा है?
श्री सखाराम सेठ श्री राजेश पटेल का स्वागत करें।
श्री विद्याधर, सेठ गजानन, सेठ कर्मचंद श्री राजेश पटेल का स्वागत करें। तीनों एक साथ आ जाएँ। श्री राम जी, अपनी वानर सेना को सम्हालिए, बस थोड़ी देर और है, फिर पुतला दहन करते हैं। दर्शक कृपया जल्दबाजी न करें।
अखंड जागरण समिति, कल्याणगंज के मुखिया श्री सुखबीर जी हमारे मुख्य अतिथि श्री राजेश पटेल का स्वागत करेंगे।
सुप्रसिद्ध समाजसेवक यासीन भाई, श्री राजेश पटेल का स्वागत करेंगे। दिगंबर कुर्मी, प्रहलाद सोलंकी, गणेशचंद माँझी श्री राजेश पटेल का स्वागत करेंगे।
संजयनगर के प्रधान श्री कालूराम पासवान मुख्य अतिथि राजेश पटेल का स्वागत करेंगे। श्री नरेंद्र उप प्रधान भी साथ आ जाएँ। श्री रामखिलावन, श्री तेजेंदर खन्ना, श्री .... अरे, राम जी एक मिनट और रूकिए। भगवान राम मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ बस दस मिनट और फिर पुतला...। हे भगवान, बाक़ी का स्वागत बाद में करेंगे... मैं राजेश पटेल जी और श्री विवेक पटेल जी से अनुरोध करता हूँ कि भगवान राम के साथ जाएँ और पुतला दहन में सहयोग करें। पटेल साहब दौड़कर जाइए, अबे राम ! रूक ! पटेल साहब को साथ लेता जा...
Saturday, October 20, 2007
"ट्रांसफ़र का काम है" कहना पर्याप्त नहीं है ____
मेरा नाम सेवाराम है। शिक्षा विभाग में नौकरी करता हूँ। नहीं जी, मास्टर (शिक्षक) नहीं हूँ। ऐसी किस्मत कहाँ। मैं तो मामूली सा क्लर्क हूँ। पोस्टिंग जिला शिक्षा विभाग मुख्यालय, होशंगाबाद में जिला शिक्षा अधिकारी के साथ है। मेरे नाम की तरह ही मेरा काम भी सेवा करने का है।
मुझे शिकायत है कि आजकल लोग अपने कामों को लेकर काफ़ी लापरवाह हो गए हैं। कोई भी लेन-देन या हिसाब-किताब जुबानी रखना ठीक नहीं होता, कभी भी धोखा हो सकता है। अभी पिछले माह की बात है। मेरे पास रामायण प्रसाद आया।
"यह लीजिए दस हज़ार रूपए, ट्रांसफ़र का केस है।" रामायण प्रसाद का काम 'लोगों का काम करवाना' है। नेताओं के आगे पीछे भी फिरता रहता है। लड़का तेज़ है, आगे जाएगा।
"किसका ट्रांसफ़र?" मैंने पूछा।
"तिवरा के रमेश शर्मा, प्राइमरी टीचर का।"
साल में एक बार ट्रांसफ़र का सीजन आता है। इस समय हर सरकारी नौकरी धारी शिक्षक सतर्क हो जाता है। जिसे कोई भूल-सुधार करनी होती है, पूरा मौक़ा मिलता है। कोई पर्दा नहीं है, हर आदमी जानता है कि काम कराना है तो किससे संपर्क करना पड़ेगा।
"दरख़्वास्त कहाँ है?" हर काम के लिए आवेदन पत्र देना आवश्यक होता है।
'वो तो नहीं है। अरे आप लोगों भी कहाँ दरख़्वास्त वगैरह के चक्कर में पड़े हैं। पैसा पूरा एडवांस में दिया है, फिर क्या दिक्कत है।"
"क्या काम है, यह तो पता चले।"
"अभी बताया न, ट्रांसफ़र का काम है।"
"अरे भैया, ट्रांसफ़र रोकना है कि ट्रांसफ़र करवाना है?"
"ट्रांसफ़र रोकने का काम होगा...शायद। कोई ट्रांसफ़र करवाने के पैसे थोड़े ही देता है?" वह हड़बड़ाया।
"ऐसे शायद से काम नहीं चलता भैया, पूरा पक्का करो।
"मैं पक्का कह रहा हूँ ट्रांसफ़र रोकने का ही काम है। आप तो बड़े शक्की आदमी हैं।"
"इसमें मज़ाक नहीं है, ज़िंदगी का सवाल है। आप लोग काम को सीरियसली लिया करो।" मैंने उसे समझाया। "हमें हज़ारों ट्रांसफ़रों का हिसाब रखना पड़ता है। ऐसा करो, पैसा यहीं छोड़ दो। जाकर दरख़्वास्त बना लो, ट्रांसफ़र करना है, कहाँ करना है या रोकना है सब कुछ लिखा होना चाहिए?"
वह भुनभुनाता हुआ चला गया।
पहले एक बार इसी तरह गड़बड़ हो गई थी। किसी सज्जन ने अपने दुश्मन का ट्रांसफ़र रिमोट एरिया में करने के लिए पैसे दिए थे, पर गलती से उनका ही ट्रांसफ़र हो गया। लिया गया पैसा वापस तो हो नहीं सकता था क्योंकि उसमें अधिकारी से लेकर चपरासी तक का हिस्सा रहता है, तो अगले साल दो ट्रांसफ़र फोकट में करने पड़े, बेइज्जती हुई सो अलग।
आप ही बताइए "ट्रांसफ़र का काम है" कहने से क्या क्लीयर होता है? अब यह बात इन झोला छाप नेताओं को कौन समझाए___।
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Thursday, October 18, 2007
मैं सच्चे दिल से ठाकुर साहब की मदद करना चाहता हूँ___
मैं पड़ोसियों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ। बाल-बच्चेदार आदमी हूँ। सुख-दुख तो लगा रहता है। जब हम किसी के काम आएंगे तभी तो कोई हमारे भी काम आएगा। यदि कोई हमारे काम न भी आए तो क्या हुआ, इंसानियत के नाते हमारा जो भी फ़र्ज बनता है, उसे पूरा करना चाहिए।
मैंने एक उसूल बना लिया है। जहाँ भी मौका मिले मदद करने के लिए आगे बढ़ना चाहिए। पड़ोस में ठाकुर साहब के घर शादी है। मैं जानता हूँ कि शादी का घर है, इसमें हज़ारों काम होते हैं। ऐसे में सच्चे पड़ोसी का धर्म निभाने चला गया।
"और ठाकुर साहब, क्या-क्या काम बचा है?"
"अजी, आपके आशीर्वाद सब काम ठीक ही चल रहा है। सारा काम कांट्रैक्टर को दे दिया है। कैटरर, टेंट वगैरह सब वह ठेकेदार देखेगा।"
"फिर भी आप नज़र रखिएगा। इन ठेकेदारों का कोई भरोसा नहीं।"
"वो तो है जी, उससे रोज-रोज मिलकर पूरे काम की रिपोर्ट लेता हूँ। वैसे, बताते हैं कि ये ठेकेदार बढ़िया आदमी है।"
"और मेरे लायक कोई सेवा?" मैंने पूछा। हमारे जमाने में...मुझे याद आता है कि गाँवों में हम लड़के मिल जुलकर सारा काम करते थे। यह ठेकेदार वगैरह तो आज आए हैं। गाँवों में आप अभी भी जा कर देखिए, खाना परोसने से लेकर बारात की पूरी खातिरदारी तक का काम गाँव वाले मिल जुल कर ही करते हैं।
"अभी तो नहीं, जब लगेगी तो बिलकुल याद करेंगे जी। आपको नहीं कहेंगे तो किसको कहेंगे।"
"बिलकुल ठाकुर साहब, कोई भी काम हो, कोई भी ज़रूरत हो तो आधी रात को आवाज़ दीजिएगा.....।"
"एक छोटी सी समस्या है.... हमारे घर बहुत से मेहमान आ गए हैं। काफ़ी भीड़ हो गई है। यदि आपके घर में एक कमरा मिल जाए तो कुछ लोगों को उसमें रूकवा सकते हैं।"
"हाँ क्यों नहीं...पर..." मैं कुछ बोलता रूक गया। मुझे याद आया कि मेरे सास-ससुर भी तो आने वाले हैं।
"अब क्या बताएँ ठाकुर साहब, मेरे सास-ससुर भी कल ही आने वाले हैं। वो ठहरे बूढ़े लोग। ऐसे में कमरा देना तो संभव नहीं हो पाएगा। यदि आप चाहें तो कहीं किराए से लेने के लिए तलाश करूँ?"
"नहीं। फिलहाल तो नहीं। जब लगेगी तब देखेंगे। अरे हाँ, आपके घर पानी का बड़ा ड्रम है। वह एकाध हफ़्ते के लिए मिल जाता तो...? दरअसल पानी की खपत बहुत बढ़ गई है, इसलिए...।"
"ज़रूर, क्यों नहीं।" मैंने कहा। तभी मुझे ध्यान आया कि आजकल पानी की कटौती चल रही है। कई बार नल एक ही टाइम आता है, ऐसे में ड्रम देने से गड़बड़ हो जाएगी। "ओह, ठाकुर साहब, आपको तो पता ही है, मेरे सास-ससुर आ रहे हैं, बूढ़े लोग हैं, तो पानी की खपत बढ़ जाती है। मैं माफ़ी चाहता हूँ, यदि आप कहें तो मैं किसी टेंट वाले से बात करूँ, उनके पास एक्स्ट्रा ड्रम होता है।"
"नहीं कोई बात नहीं, फिलहाल तो काम चल ही रहा है। जब ऐसी नौबत आएगी तो मैं खुद ही टेंट वाले से बात कर लूँगा।"
"कोई और काम हो तो अवश्य बताइएगा।"
"ज़रूर। अरे हाँ, आपके यहाँ एक सिलेंडर एक्स्ट्रा है क्या? हमारा गैस वाला आज शाम तक डिलीवरी करेगा।"
"गैस... " मुझे याद आया कि एक बार हमने इसी तरह एक दिन के लिए सिलेंडर पड़ोस के खान साहब को दिया था। एक हफ़्ते तक उन्होंने सिलेंडर नहीं लौटाया और इसी बीच हमारी गैस ख़त्म हो गई थी।
"हमारा सिलेंडर भी खाली पड़ा है। हमने तो दो तीन दिन पहले बुक कराया था, पर पता नहीं क्यों.. अभी तक आया नहीं, मैं आज पता करता हूँ।"
"कोई बात नहीं जी, मैं कहीं और देख लेता हूँ।"
"और कोई बात हो तो आप निस्संकोच...."
"यह भी कोई कहने की बात है?"
मैं बहुत शर्मिंदा हूँ, और किसी न किसी तरह ठाकुर साहब की कोई मदद करना चाहता हूँ। मेरी अपनी विवशताएँ है, इसी कारण... पर यक़ीन करें। मैं सच्चे दिल से उनकी मदद करना चाहता हूँ।
Tuesday, October 16, 2007
मेरे घर में जो कलेश होगा, उसका कौन जिम्मेदार है___?
आज मैं कैशियर की पोस्ट से रिटायर हो रहा हूँ। मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है, कि अब मैं अपना पूरा समय बच्चों के साथ बिता सकता हूँ। इस विदाई पार्टी में मेरी पत्नी नहीं आ सकीं, परंतु मेरे दोनों बेटे तथा दामाद आए हुए हैं। वह जो कैमरे से फोटो खींच रहा है, मेरा बड़ा लड़का है। मैं बहुत आभारी हूँ कि आप लोगों ने कोई ऐसा-वैसा चुटकुला नहीं सुनाया है।
मन बड़ा इमोशनल हो रहा है। मैं दरअसल देहात का हूँ इसलिए बात-बात पर मेरे मुँह से गाली निकल जाती है। इस नौकरी के दौरान कई लोगों से मेरी गाली-गलौच हुई। सैक्शन हैड से एक बार जूता-चप्पल भी हो चुका है, क्योंकि उन्होंने मेरी छुट्टी स्वीकार नहीं की थी। परंतु मुझे यह जानकर बहुत अच्छा लग रहा है कि आप लोगों में किसी ने भी मेरी बातों का बुरा नहीं माना है। जैसा कि सैक्शन हैड ने अभी बताया मैं साफ़ दिल का आदमी हूँ, जो कुछ जुबान पर आता है बोल जाता हूँ। कोई बात अपने दिल में नहीं रखता। यह अच्छी क्वालिटी है।
अपना सारा चार्ज मैंने पहले ही दे दिया है, परंतु सैक्शन हैड की सर्विस बुक छिपाकर रखी थी। मुझे ऐसा लग रहा था कि वह रिटायरमेंट के समय का क्लेम देने में कुछ दिक्कत कर सकते हैं। परंतु मेरे क्लेम का चेक आ चुका है। सर, मुझे माफ़ कर दीजिए, आपकी सर्विस बुक दरवाज़े के पास वाली केबिनेट के सबसे निचले खाने में है।
मेरे घर में भी कुछ जलपान की व्यवस्था है। मैंने ढोल बजाने वाला भी बुलवा लिया है, और मेरी इच्छा है कि मैं हार पहनकर ढोल बजवाते हुए जुलूस निकालकर अपने घर जाऊँ। आप सभी जो अपना गला तर करना चाहते हैं, कृपया जुलूस में मेरे साथ घर चलें।
आपने सब ने मिलकर राधा-कृष्ण की यह सुंदर मूर्ति मुझे उपहार दी है। मैंने सुना है कि पहले सरस्वती की मूर्ति पसंद की थी, पर कुछ लोगों को धारणा है कि मुझे राधा-कृष्ण अधिक सूट करते हैं, चलो कोई बात नहीं। यह भी भगवान हैं।
सैक्शन हैड ने मेरा लगभग सारा क्लेम आज ही दिलवा दिया, इसके लिए मैं आभारी हूँ। पर अभी भी इन्हें जरा भी अक्कल नहीं आई है। हार पहनाते और राधा-कृष्ण की मूर्ति देते समय दाँत फाड़कर फोटो खिंचवाया, पर चेक को सबको खोलकर क्यों दिखा रहे हैं___!
इसमें साढ़े सात लाख रूपए लिखे हैं, यह भी ज़ोर से पढ़कर सुना दिया है। आप तो वाहवाही लूट गए। अब मेरे घर में इसके लिए जो कलेश होगा, उसका कौन जिम्मेदार है___?
अगले साल इनका भी रिटायर होने का नंबर है। मैं अपने साथियों से प्रार्थना करता हूँ कि सैक्शन हैड साहब को अपने क्लेम का चेक भेंट करें तो उसमें देरी नहीं होनी चाहिए। कोई काम हो तो बेशक मुझे बुलवा लें। मैं फ्री में इनके क्लेम के लिए भाग-दौड़ करने को तैयार हूँ। इनका चेक, रिटारयरमेंट वाले दिन ही इनके सारे परिवार के सामने दिखाकर, फोटो खिंचवाकर भेंट होना चाहिए।
Sunday, October 14, 2007
इतनी मँहगाई में नया प्यार कहाँ मिलेगा____
मेरा नाम सुरेंदर है। हमारा गाम दसरतपुर हरियाणा में पड़ता है जी। हमारे गाँव में बेकारी बहुत है। मेरा मेन काम तो लोहार का है। मैं अपनी दुकान को वर्कशॉप कहता हूँ। अब आप ही बताओ, जिस दुकान में लोहे का काम होता हो, उसे वर्कशॉप कहना क्या गलत है।
आज मैं आपको अपना दुख बताता हूँ जी। मेरी आधी उमर हो गई पर मेरे माँ बाप ने मेरी शादी ना करी। कहते हैं कि कहीं लड़की नहीं मिलती। उनका भी क्या दोष। हमारे इलाके में बहुत कम लड़कियाँ हैं जी, तो शादी के लिए लड़की नहीं मिलती।
पर मैं हाथ-पे-हाथ धरकर ना बैठा। काफ़ी भागी-दौड़ी की तो जाकर एक नेपाल की छोकरी मिली। पूरे पाँच हजार नक़द देने पड़े। उससे शादी करी। तब जाकर जिंदगी में कुछ रौनक आई। पैसा तो फिर आ जावेगा पर एक बार उमर निकल गई तो ना आने की।
मेरा एक चचेरा भाई था जी, उमर में मेरे से बड़ा था और वह भी छड़ा (अविवाहित) था। उसने बड़ा धोखा किया मेरे साथ। वह मेरे घर आता-जाता रहता था। मैं भी सोचता, मेरी घरवाली से थोड़ा हँस-बोल लेता है तो इसमें मुझे क्या दिक्कत है। यह गाँव तो आप जानते ही हो, यहाँ तो रेगिस्तान है जी। इसमें जनानी के पास घड़ी दो घड़ी बैठने से कोई तसल्ली पावे है तो इससे ज़्यादा पुण्य का काम कोई नहीं होता।
वह मेरी घरवाली को भगा ले गया और वह इसी गाँव में दूसरे घर में रहने लगी है। मैंने उससे बहुत झगड़ा किया पर अब वह यहाँ आने को राजी नहीं है। कहती है उसी के साथ रहूँगी। मैं अपने चचेरे भाई से फौजीदारी तो कर नहीं सकता था। इसमें खून-खराबा भी हो सकता था। सो मैं पंचायत गया।
मैंने पंचों से कहा कि मुझे अपनी घरवाली वापस चाहिए। उसे कभी कोई दुख-तकलीफ दिया हो तो मेरी ग़लती। पर उन्होंने मेरी बात ना सुनी। मेरी घरवाली कहती है कि अब उसे मेरे चचेरे भाई से प्यार हो गया है सो वह उसी के साथ रहेगी। मैंने पंचों से कहा कि मेरी घरवाली लौटा दे, चाहे मेरे से पाँच हज़ार और ले और अपने लिए दूसरी ले आए। पर पंचायत ने फैसला सुना दिया कि इसमें जबरदस्ती नहीं चल सकती। यदि इसकी मर्जी है तो वह मेरे चचेरे भाई के साथ ही रहेगी। पर इसके लिए मैंने जो पाँच हजार खर्च किए थे, उसे मुझे लौटाने का हुक्म सुना दिया।
मेरी समझ में नहीं आता कि मेरे प्यार में क्या खोट थी। मैं भी तो जी-जान लगा के प्यार करता था। पाँच हजार रूपए वापस तो मिल गए हैं पर अब मँहगाई बहुत बढ़ गई है। इतने में ऐसी सुंदर जनानी कहाँ मिलगी।
मेरा अभी भी अपने चचेरे भाई से मेल-जोल बना हुआ है। मैं अब उसके घर आता-जाता हूँ। जब तक कोई दूसरी नहीं मिल जाती, इसी से हँस-बोलकर गुजारा करना है____
Saturday, October 13, 2007
हम कथा कीर्तन करने वाले लोग हैं, हमारा रहन-सहन बिलकुल सादा है....
मेरा नाम हरिशरण शास्त्री है। अब आपसे क्या छिपाना, शास्त्र वगैरह की कोई उपाधि नहीं मिली है। जाति से शर्मा ब्राह्मण हूँ। रामकथा कहता हूँ तो भक्तजनों ने स्वयं ही शास्त्री कहना प्रारंभ कर दिया, तो ठीक है। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। आप हमें प्रेम से जिस नाम से पुकारें, उसी नाम से हम आपकी सेवा में हाजिर हो जाएंगे।
पहले मैं कथा, शादी-ब्याह, हवन इत्यादि करवाता था। पर कहते हैं न कि ज्ञानी वही है जो समय के साथ परिवर्तित हो जाता है। मेरी रूचि भी भगवत्कथा कहने में थी। लोग कथा शैली की प्रशंसा करते थे, तो मैंने भागवत तथा रामकथा कहना प्रारंभ कर दिया। अब ढेर सारे भक्त हो गए हैं।
आजकल लोगों की पसंद काफ़ी बदल गई है। लोग हम साधुओं से न जाने कैसी कैसी आस लगाए रहते हैं। कोई चाहता है कि मैं उन्हें योग की बारीकियाँ बताऊँ, तो कोई जन्मपत्री बनवाना और पढ़वाना चाहता है। बड़ी मुश्किल हो जाती है।
भक्तों का विश्वास तोड़ने का जी नहीं करता। इसलिए हाथ और माथा वगैरह देखकर भविष्य तो बता ही देता हूँ। विपत्तियों का तोड़ पूछते हैं, तो उन्हें हवन इत्यादि के उपाय बता देता हूँ। रत्न पहनने की सलाह मैं नहीं देता क्योंकि डरता हूँ कि कोई किसी पुखराज या मूँगे की अंगूठी लेकर आ जाएगा और सही है या गलत, जानना चाहेगा तो उसे संतुष्ट करना कठिन हो जाएगा।
आध्यात्म के क्षेत्र में माँग और पूर्ति का अध्ययन करने के बाद मैंने रामकथा और भागवत के क्षेत्र में काम करने का निश्चय किया है। गोसांई तुलसीदास भी कहते हैं कि रामकथा सुनने से हज़ारों यज्ञों का फल अनायास ही मिल जाता है।
कथा के समय दो-चार भक्त हारमोनियम तथा मंजीरे में संगत भी देते हैं, जिससे कथा और कीर्तन का मिला जुला संगीतमय आध्यात्मिक वातावरण बन जाता है। ये लोग तो विशुद्ध संगीतकार हैं, हमारी तरह साधू-संत नहीं हैं, इसलिए इनका पारिश्रमिक तो देना होगा। आप तो समझते हैं, कथा में इनका महत्व कितना अधिक होता है।
मेरा अपना तो कोई खर्चा नहीं है। आश्रम के लिए जो उचित लगे दे दीजिएगा। रहने की चिंता बिलकुल न करें। आप जैसे किसी गृहस्थ के घर में रह लूँगा। मैं भोजन भी एक ही टाइम करता हूँ। दो रोटी दूध के साथ, बस और कुछ नहीं। कोई ताम झाम मत करिएगा। दूसरे टाइम बस एक कटोरा काजू, किशमिश और फलाहार करता हूँ। सुबह नाश्ते में सादा हलुआ देसी घी में बनवा दीजिएगा। और पीने के लिए दो गिलास गाय का औटाया हुआ दूध आधी कटोरी शहद के साथ दे दीजिए।
सप्ताह में दो दिन तो उपवास ही रहता हूँ। उपवास के दिन मात्र चिरौंजी और किशमिश का सेवन करता हूँ। इसी तरह कुछ कंद मूल, फल-फूल खाकर, गौ माता का दूध पीकर....... अरे कहाँ चले जजमान.....सुनिए तो...... मेरे साथ मेरे कुछ चेले भी हैं जो जय-जयकार करने के लिए साथ ही चलते हैं..... ये लोग भी शाकाहारी ही हैं.........
Thursday, October 11, 2007
कंप्यूटर चलाना बच्चों का खेल नहीं है___
मैं यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हूँ, रिटायरमेंट के लिए चार साल बचे हैं। अब अपनी बात क्या बताऊँ, यहाँ बड़ी पॉलिटिक्स है। जो टैलेंटेड लोग हैं उन्हें आगे बढ़ने का मौक़ा ही नहीं मिलता। मुझे भी हर क़दम में बड़ी फाइट करनी पड़ी है।
अभी दो माह पहले की बात है। डिपार्टमेंट में कंप्यूटर आया। उसे हेड साहब ने अपने कमरे में लगवा लिया जबकि मेरे कमरे में लगना चाहिए था, क्योंकि मैंने यू.एस. में रिसर्च वर्क के दौरान कंप्यूटर पर बहुत काम किया था। इसलिए मुझे ही मालूम है कि कंप्यूटर कितना सोफेस्टिकेटेड इंस्ट्रूमेंट होता है, और उसे कैसे हैंडल करना है। ख़ैर, जब दूसरा कंप्यूटर आया तो उसके लिए मैंने पूरी फ़ाइट की और अपने कमरे में रखवा लिया।
मुझे कोई परेशानी नहीं है, आप भी आइए, इसमें काम कीजिए और अच्छे से ढक कर चले जाइए। पर मुझे लगता है कि यहाँ इंडिया में लोगों को इसे ठीक से हैंडल करना आता नहीं है। सही गलत-सलत बटन दबाते हैं और ख़राब कर देते हैं।
अभी परसों ही मैंने सुनील को डाँटा। अभी टेंपरेरी है पर जब तब काम करने के बहाने मुँह उठाए कंप्यूटर पर बैठ जाता है।
"सुनिए मिस्टर, आप इस कंप्यूटर चेयर धीरे बैठा करिए। यह बड़ा सोफेस्टिकेटेड होता है। इसमें झूला मत झूलिए।"
"ओके सर। मैं ध्यान रखूँगा।"
"और आप इतनी तेज़ी से कीबोर्ड पर बटन क्यों दबाते हैं। एक-एक अक्षर बारी-बारी से जाने दीजिए। एक साथ कई अक्षर भेजते हैं तभी तो कंप्यूटर हैंग हो जाता है।"
"बट सर, कीबोर्ड पर बटन तो..."
"अब आप मुझे मत समझाइये, कॉपी-पेस्ट करने के लिए आपको एडिट में जाना चाहिए। आप शार्टकट से कर लेते हैं। मैं आपसे बड़ा हूँ इसलिए आपके भले के लिए बताता हूँ कि ज़िंदगी में कभी भी शार्टकट अपनाना ठीक नहीं है।"
"पर इसमें शार्टकट...."
"आप इसमें म्यूज़िक कैसे चलाते हैं। इट इज़ नॉट मेंड फ़ॉर म्यूज़िक। आपको म्यूजिक सुनना है तो अलग साउंड सिस्टम ले आइए...."
"सॉरी सर, मैं...."
"आई वोंट एलाऊ यूज़लेस वर्क हियर! आप बताइए मुझे इसे पासवर्ड लॉक कैसे किया जाता हैं?"
"सर, जहाँ तक मेरी जानकारी है पासवर्ड का प्रोवीज़न नहीं है।"
'अच्छा !! मैं इतना तो जानता हूँ कि पासवर्ड सिस्टम हर कंप्यूटर में होता है। आप मत बताइए, मैं इसके इंजीनियर से पूछ लूँगा। गेट आउट!"
पता नहीं क्या, आज कल के लौंडे आप को फन्ने खाँ समझते हैं। मैं तब से कंप्यूटर चलाता हूँ जब तुम पैदा भी नहीं थे। जब जी चाहा, बिना हाथ पैर वाश किए कंप्यूटर में आ जाते हैं। कहीं इसमें वायरस आ गया तो?
Tuesday, October 9, 2007
वह इस क़ाबिल नहीं, कि अपनी ज़िंदगी ठीक से गुज़ार पाए___
काले कोट का अपना अलग महात्म्य होता है। वक़ील काला चोगा पहनते हैं, और हम टी.सी. लोग काला कोट। टी.सी., यानि कि ट्रेन के टिकट चेकर, आप टी.टी.ई. भी कह सकते हैं। आपके लिए बात एक ही है।
"देखिए सर, कोई बर्थ खाली हो तो...", उस व्यक्ति ने बड़ी आशा भरी नज़रों से देखा। यह बात दूसरे दर्जे के स्लीपर डिब्बों की है। उसके पास वेटिंग टिकट था।
"कोई चांस नहीं, पूरी गाड़ी फुल है।" मैंने उसकी ओर बिना देखे ही जवाब दिया।
लोगों को अकसर यह ग़लतफ़हमी होती है कि हम उनकी तरफ़ गौर नहीं करते हैं। यूँ तो हमारी नज़र चार्ट पर रहती है, परंतु हम सामने वाले की औक़ात का अंदाज़ा बख़ूबी लगा लेते हैं। लोग आशा भरी नज़रों से हमें घेरकर खड़े होते हैं मानों प्रसाद पाने में वे कहीं वह पीछे न रह जाएँ।
वह व्यक्ति एक महिला के साथ यात्रा कर रहा था। ज़रूरतमंद तो था ही, पर उसकी ज़रूरत दूसरों से ज़्यादा है, मुझे इसका कोई संकेत नहीं मिल पाया। जो यात्री अनुपस्थित होते हैं, उनकी खाली सीटों को हम नियमानुसार आबंटित कर देते हैं।
मैं कुछ देर बाद उसके पास गया और बोला - "अपनी टिकट दिखाइए", उसने टिकट सामने कर दी।
"एक सीट महिला कोटे की है, दे रहा हूँ", और मैंने उसके टिकट पर सीट नंबर लिख दिया।
"थैंक्यू सर!" वह खुश हो गया।
"बस। खाली थैंक्यू? कुछ दक्षिणा नहीं देंगे?" मुझे आखिरकार खीझ आ गई। लोग एक बर्थ के लिए दो-तीन सौ रूपए तो वैसे ही दे देते हैं।
"ज़रूर सर।" और उसने दस रूपए का नोट निकाल लिया।
"बस! दस रूपए!"
"जी। बस इतना ही।" वह बोला। मैं एक मिनट तक उस दस रूपए को उलट पलट कर देखता रहा, शायद और कुछ निकाले। पर उसने उल्टे ऐसी नज़रों से देखना शुरू किया जिसका मतलब साफ था कि यदि आपको दस रूपए मंज़ूर नहीं, तो लौटा दीजिए।
"मैं हाथ आई लक्ष्मी को नहीं ठुकराता", मैंने वह नोट जेब में रख लिया।
वह इस क़ाबिल नहीं था कि मैं उससे कुछ बहस करूँ। वह इस क़ाबिल भी नहीं था पूरी ज़िंदगी में कभी भी कनफ़र्म बर्थ हासिल कर पाता। मैं यही सोचता हूँ कि वह अपनी लाइफ़ कैसे गुज़ारेगा...। आपको क्या लगता है?
Sunday, October 7, 2007
काश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है___!
मैं दिल्ली पुलिस का सिपाही हूँ। एक बार रिश्तेदारों के साथ वैष्णोदेवी के दर्शन करने चल पड़ा। बाहर आना जाना हो तो अपनी खाक़ी वर्दी पहन लेता हूँ, इसका बड़ा रौब पड़ता है। सभी लोग वर्दी की इज़्ज़त करते हैं इस नाते अपनी भी इज़्ज़त हो जाती है।
माता की कृपा से यात्रा बड़ी अच्छी रही। माता के दर्शन हो गए। घर लौटते वक़्त थोड़ा पंगा पड़ गया। कोई दस-बारह साल का लड़का जम्मू स्टेशन में केले बेच रहा था।
"ओए इधर आ" मैंने ट्रेन से उसे हाथ देकर बुलाया। "केले कैसे दिए, इधर दिखा"।
उसके कानों में जूँ न रेंगी।
"ओए इधर आ" मैंने फिर आवाज़ लगाई।
"आप पैसे नहीं दोगे" उसने कहा।
"रूक साले।" मैंने उसका गिरहबान पकड़ना चाहा। पर वह तेजी से छुड़ाकर भाग गया। इसी दौरान मेरी घड़ी गिरकर टूट गई। वह दूर खड़ा दाँत दिखाता रहा।
मुझे ताज्जुब हुआ कि वह कमबख़्त कैसे जानता था कि मैं उसे पैसे नहीं देने वाला हूँ। मैं तो उससे पहले कभी मिला ही नहीं। वह मेरी वर्दी देखकर समझ गया था। कमीने ने रिश्तेदारों के सामने मेरा पानी उतार दिया।
मैं खड़ा-खड़ा उसका सारा खानदान एक करता रहा। मन किया कि पकड़कर मजा चखाऊँ, वह जानता था मैं उसे दौड़ाकर पकड़ नहीं पाऊँगा।
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Wednesday, October 3, 2007
सिस्टम से काम करो, तो कस्टमर को सैटिस्फैक्शन होगा।
मेरा छोटा सा गैराज है बल्कि यूँ कहो कि स्कूटर और मोटरसाइकिल रिपेयरिंग की दुकान है। स्कूटर रिपेयरिंग में इस गैराज का अच्छा खासा नाम है। आस-पास के इलाके का हर कस्टमर इस गैराज पर आता है। मैं खुद भी काम करता हूँ, तथा चार-पाँच और लड़के रखे हैं। इनमें 3 को तनख्वाह देता हूँ और दो अभी छोटे हैं, काम सीख रहे हैं।
गैराज चलाना बड़ा मुश्किल है। दो मिनट के लिए किसी काम से इधर-उधर जाओ, तो कामचोरी चालू हो जाती है। एक-एक लड़के को अपने हाथों से काम सिखाता हूँ।
ऐसे भी कस्टमर आते हैं, छोटे बच्चों को काम करता देखकर उनका जी पसीज जाता है, कभी कभी वह पढ़ने की सलाह भी देते हैं। मैंने अपने लड़कों से साफ़ कह रखा है, सिर्फ़ काम पर ध्यान देना है, कस्टमर की बात पर ध्यान नहीं देना है। यह सब बड़े लोगों के टाइम पास की बातें हैं। एक-दो लड़के छोटे हैं, इन्हें दुनियादारी की समझ नहीं है, धीरे-धीरे सारी बातें समझ जाएंगे।
अभी कल की ही बात है, एक लड़के को डाँटना पड़ा। एक स्कूटर का क्लच ढीला था, उसने अपनी उंगलियों से उसका नट टाइट कर दिया। काम हो गया, कस्टमर थैंक्यू बोलकर चलता बना।
मैंने हज़ार बार समझाया है "बेटे, चोट लग सकती है। ऐसे कभी अपने हाथों से कोई नट-बोल्ट टाइट मत करो, रिंच और पेंचकस लेकर जाओ। कोई नट ढीला हो तो उसे निकालकर दुकान से दूसरा नट लगा दो।"
नहीं जनाब, पैसे की बात नहीं है, सिस्टम की बात है। मैं एकाध नट का पैसा यूँ भी नहीं लेता। सिस्टम से काम करो तो कस्टमर को भी सैटिस्फैक्शन होगा। बच्चे अभी नादान हैं, इस बात को समझने में इन्हें टाइम लगेगा।
Tuesday, October 2, 2007
अब वह क़ानून तोड़ने की जुर्रत कभी नहीं करेगा!
आज हमारे पुलिस थाने में मकानदार और किराएदार का झगड़ा आया। मकानदार ने दो लड़कों को किराए पर कमरा दिया था। दोनों साल भर रहे, और अब छोड़ते समय दो महीने का किराया देने में अनाकानी करने लगे, मांगने पर गाली-गलौच करने लगे। दोनों पक्षों में हाथापाई की नौबत आ गई।
इस शहर में डकैती, क़त्ल के इतने सारे अपराध हो रहे हैं, उन पर ध्यान दें कि इनका झगड़ा निपटाएँ। पर क़ानून दोनों पक्षों ने तोड़ा है। साफ पुलिस केस है। कार्रवाई तो करनी पड़ेगी।
दोनों किराएदार लड़कों को दो-दो थप्पड़ लगाए और दोनों ने बड़ी आसानी से बक़ाया किराया दे दिया। मकानदार ने भी क़ानून तोड़ा था। किसी भी व्यक्ति को अपने घर किराए पर रखने से पहले उसने पुलिस को सूचित नहीं किया था। उसे भी बिठा लिया। उसकी यह ग़लती बड़ी गंभीर थी, इससे कोई आतंकवादी वारदात भी हो सकती थी।
उसे अच्छी तरह से समझाया कि उसका अपराध कितना गंभीर है। घबराइये नहीं, उसे थप्पड़ नहीं लगाया। वह खुद ही आकर 10 हज़ार रूपए दे गया। अब वह क़ानून तोड़ने की जुर्रत कभी नहीं करेगा।
Monday, October 1, 2007
खाता खुलवाने के लिए यही बैंक मिला है!
इतनी देर से मेरे काउंटर के सामने खड़ा है और बैंक के खाता खोलने का फ़ॉर्म मांग रहा है। मैं उसे अनदेखा कर अपने दूसरे कामों में व्यस्त होने का दिखावा कर रहा हूँ। मुझे दिखावा करने की क्या ज़रूरत है? मेरे पास वैसे ही बहुत काम है।
"अभी फार्म खत्म हो गए हैं कल आना!"
वह फिर भी नहीं टलता। मैं उठकर अंदर टेलीफ़ोन करने चला जाता हूँ। उसे लगता है कि मैं उसकी जिद से हार मानकर फ़ॉर्म लाने कहीं अंदर गया हूँ। इन लोगों ने तंग कर रखा है। यहाँ वैसे ही बहुत भीड़ रहती है। इतने सारे दूसरे बैंक हैं, उनकी अच्छी-अच्छी सुविधाएँ है, तो वहाँ जाकर अपना खाता क्यों नहीं खुलवाते।
वह अभी भी डटा है।
"क्या एक बार में सुनाई नहीं देता!" मैं झल्ला उठा। हमें भी इनसे नाराजगी से बात करना अच्छा नहीं लगता, पर क्या करें मज़बूरी है। इतनी डांट-डपट न करें तो यह हमारा जीना मुश्किल कर देंगे।
वह वापस जा रहा है। पर मैं जानता हूँ कि वह कल वह फिर आएगा। कमबख़्त ने परेशान कर दिया। पब्लिक डीलिंग का काम सचमुच कितना टेंशन वाला है।
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